वर्जनाओं का उल्लंघन ही पतन का कारण

April 1995

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स्वार्थपरता की मात्रा जब मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगती है तब मनुष्य किसी भी मार्ग से अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये तत्पर हो जाता है। उचित अनुचित का विचार छोड़कर जैसे भी बने अपना स्वार्थ सिद्ध करने की नीति अपनाई जाने लगती है तो मनुष्य का व्यक्तित्व असुरता से परिपूर्ण हो जाता है। असुरता की जहाँ वृद्धि होगी वहाँ सुख-शांति का ठहर सकना संभव न होगा अनैतिक दृष्टि अपनाये हुए व्यक्तियों का समाज असभ्य हो कहता सकता है। वहाँ निरंतर क्लेश कलह ही नहीं सर्वनाश के अवसर भी उपस्थित होते रहते है आज हमारे समाज में अपराधों क्लेशों संघर्षों अभावों चिंताओं और समस्याओं का घटाटोप दिखाई पड़ता है उसका एक मात्र कारण व्यक्तियों के मन में बँटी हुई स्वार्थपरता, चरित्रहीनता एवं संकुचित दृष्टि ही है। आदर्शवाद का धर्म-नीति एवं मर्यादा का उल्लंघन जब कभी भी अधिक मात्रा में होने लगता है तब उसका परिणाम सारे समाज को भुगतान पड़ता है।

स्वार्थ से मनुष्य कैसा निर्मोही हो जाता है इसके अगणित उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। स्वजन संबंधियों के रिश्ते भी स्वार्थ-परता के तूफान में नष्ट भ्रष्ट हो जाते है और औरंगजेब अपने सगे भाई दारा को अपने रास्ते का काँटा समझाता है और उसका सिर काटकर अपने बाप के पेश करता है सगे भाई के प्राण लेना और बाप का अपने प्राण प्यारे बेटे का कटा हुआ सिर दिखाकर मृत्यु से अधिक यंत्रणा सहने को विवश करने वाली यह डाकिनी स्वार्थपरता ही तो है। बाली ने अपने सगे भाई सुग्रीव की स्त्री का अपहरण कर लिया। रावण ने आने भाई विभीषण को भरी सभा में सदुपदेश देने के कारण लात मारकर तिरस्कृत किया। कौरवों ने पाण्डवों को क्या क्या दुःख नहीं दिए। एक ओर राम लक्ष्मण और भरत का आदर्श प्रेम है दूसरी ओर औरंगजेब वाली रावण और कौरवों के कुकृत्य है। इस अंतर को प्रस्तुत करने का कारण धर्म और अधर्म की आस्था-अनास्था ही हो सकती हैं।

बाप बेटे का कितना पवित्र सम्बन्ध है। पिता की आज्ञा पालन करने लिये जहाँ राम श्रवण कुमार भीष्म पुरु आदि ने अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किये वहाँ ऐसी भी परम्परा मौजूद है जिनमें बेटे ने बाप को तिरस्कृत पददलित और मौत के मुँह में धकेल देने में कसर न रखी। जहाँगीर ने अकबर को कैद किया था खुसरो ने जहाँगीर के खिलाफ बगावत की। औरंगजेब शाहजहाँ को कैद कर उसकी गद्दी पर आप बैठ गया और सलीम ने औरंगजेब के साथ वही व्यवहार किया। बेटों की बापों के प्रति की गई वह करतूतें किस समाज के लिये गौरवास्पद हो सकती है?

कंस ने अपनी बहिन देवकी के बच्चों को पत्थर पर पटक कर मार डाला। गुरुभक्ति के स्थान पर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करने वाले शिष्यों की भी कमी नहीं रही है। भस्मासुर अपने गुरु शिवजी पर उनके दिये हुए वरदान का उलटा प्रयोग एवं उन्हें भस्म करके पार्वती का अपहरण करने को उतारू हो गया। गुरु गोविन्दसिंह की हत्या उनके एक शिष्य ने ही कर दीं। दयानन्द को उनके प्रिय सेवक जगन्नाथ ने ही विष खिला दिया। ईसा मसीह को उनके एक शिष्य ने ही तीस रुपये के लोभ में गिरफ्तार कराके फाँसी पर चढ़वा दिया। जहाँ गुरु भक्ति के एक से एक ऊँचे उदाहरण मौजूद है वहाँ ऐसी निकृष्ट घटनाएँ भी कम नहीं है। अपने स्वामी की रक्षा के लिये बड़े से बड़ा त्याग करने वाली संयमी पन्नाधाय जैसे उदाहरण मौजूद हैं।

वहाँ सिराजुद्दौला से विश्वासघात करके उसके राज्य और जीवन को नष्ट करा देने वाले मीरजाफर जैसे नौकरों के कुकृत्य भी देखने को मिलते रहते है।

पतिव्रत भारतीय नारी की विशेषता रही है पर शूर्पणखा जैसी भी नारियाँ हुई है जो विवाहित पति को छोड़ कर पुरुषों की कल्पना से स्वच्छन्द विचरण करती रहीं और समाज में भयंकर काण्डों की निमित्त बनी। एक नारी वृत्त का उल्लंघन जिनने किया उनने विपत्ति को ही आमंत्रण किया है। उत्तानपाद ने एक स्त्री के रहते दूसरी से विवाह किया। उस ईशा से पहली रानी के पुत्र ध्रुव का अपनापन हुआ और बच्चे को घर छोड़ देना पड़ा। दशरथ ने तीन विवाह करके कौन शांति पाई? पाण्डु ने कुन्ती के रहने से माद्री से और विवाह कर लिया तो उन्हें भय ग्रस्त होकर अकाल मृत्यु के मुख में जाना पड़ा। रावण ने सीता का अपहरण करके कई स्त्री घर में रखनी चाही कीचक ने द्रौपदी पर कुदृष्टि डाली। अलाउद्दीन चित्तौड़ की रानी पद्मावती पर ललचाया। इन सबका क्या परिणाम हुआ? यह किसी से छिपा नहीं है कुमार्ग पर जिसने भी कदम बढ़ाया है उसने अपनी लिये ही नहीं वरन् दूसरों के लिये भी संकट उत्पन्न किया है।

रावण, कंस, जरासन्ध, हिरण्यकश्यप, वेन नहुष, दुर्योधन, औरंगजेब, नादिरशाह आदि नृशंस शासकों ने अपने मुँह पर कालिख पोती और अन्य अगणित लोगों को उत्पीड़न एवं यंत्रणा सहने के लिये विवश किया। मुहम्मद गौरी अपनी महत्त्वाकाँक्षाएँ पूरी करने के लिये क्या-क्या नहीं करता रहा? क्या नैपोलियन और सिकन्दर ने असंख्यों अपराधों के खून से धरती नहीं रंगी? कुमार्ग पर चलने वाले व्यक्ति सारे समाज को ही दुःख देते है। जयचंद ने देशद्रोह करके मोहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने को बुलाया तो उस कुकृत्य का परिणाम राष्ट्र को आद्यावधि सहना पड़ रहा है। दूसरी ओर एक व्यक्ति की देश भक्ति के कारण इंग्लैंड के मालामाल और समुन्नत हो जाने का भी उदाहरण मौजूद है। शाहजहाँ की पुत्री जहानआरा का इलाज एक अंग्रेज डॉक्टर ने किया था। उससे जब बादशाह ने पूछा कि आपने क्या पुरस्कार दूँ। तो उसने अपने लिये कुछ न माँगते हुये इतना ही कहा कि मेरे देश से आने वाले माल पर से चुंगी माफ कर दीजिये। शाहजहाँ ने उसे स्वीकार कर लिया और भारत के बाज़ार में इंग्लैंड जैसा पिछड़ा हुआ देश संसार का अग्रणी बन गया। मनुष्य हाड़-माँस का पुतला एक तुच्छ प्राणिमात्र है उसमें न कुछ विशेषता है न न्यूनता। उच्च भावनाओं के आधार पर वह देवता बन जाता है तुच्छ विचार के कारण वह पशु दिखाई पड़ता है और निकृष्ट पाप बुद्धि को अपना कर वह असुर एवं पिशाच बन जाता है। इस लोक में जो कुछ सुख शांति समृद्धि और प्रगति दिखाई पड़ती है वह सब सद्भावनाओं ओर सत्प्रवृत्तियों का परिचय है। जितनी भी उलझने पीड़ायें और कठिनाइयाँ दीखती है उनके मूल में कुबुद्धि का विष बीज ही फलता फूलता रहता है। सैकड़ों हजारों वर्ष बीत जाने पर भी पुरानी ऐतिहासिक इमारतें लोहे की चट्टान की तरह आज भी अडिग खड़ी है पर हमारे बनाये हुए बाँध स्कूल पुल इधर बनकर बिखरना शुरू हो जाते है। सामान और ज्ञान दोनों ही आज पहले की अपेक्षा अधिक उच्चकोटि का उपलब्ध है पर उस लगन की कमी ही दिखाई पड़ती है, जिसके कारण प्राचीन काल में लोग स्वल्प साधन होते हुए भी बड़ी बड़ी मजबूत चीजें बनाकर खड़ी कर देते थे। कुतुबमीनार ताजमहल आबू के जैन मंदिर मदुरा के मीनाक्षी के देवालय अजंता की गुफाएँ मिश्र के पिरामिड और चीन की दीवार उस समय के बौद्धिक ज्ञान का नहीं उत्कृष्ट वस्तु निर्माण करने की भावना का प्रमाण प्रस्तुत करती है।

मशीनों कारखानों नहरों बाँध और सड़कों के आधार पर हमारी सुख शांति नहीं बढ़ सकती इनसे थोड़ी आमदनी से अनर्थ ही बढ़ने वाला है। देखा जाता है कि कारखानों के मजदूर और दूसरे श्रमिक 40 फीसदी तक पैसा शराब, तंबाकू सिनेमा आदि में खर्च कर डालते हैं। आमदनी बढ़ती चलने पर तरह तरह की फिजूल खर्ची के साधन बढ़ते जाते है जिन्हें ऊँची तनख़्वाह मिलती है वे भी अभाव और कमी का रोना रोते रहते हैं। धनी लोगों का व्यक्तिगत एवं पारिवारिक सामाजिक जीवन क्लेश और द्वेष से भरा रहता है। पैसे के साथ-साथ दुर्गुण बढ़ते रहने पर वह दलित उलटी विपत्ति का कारण बनती जाती है इसलिये आर्थिक उन्नति के साथ साथ विवेकशीलता और सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि भी अवश्य रहेगी। यदि इस दिशा में उपेक्षा बरती गई तो प्रगति के लिये आर्थिक सुविधा बढ़ाने के जो प्रयत्न किये जा रहे है वे हमारी समस्याओं को सुलझा सकने में कदापि समर्थ न हो सकेंगे

जब तक मजदूर ईमानदारी से काम न करेंगे कोई कारखाना पनप नहीं सकेगा। जब ताक चीजें अच्छी और मजबूत न बनेंगी उससे किसी खरीदने वाले को लाभ न मिलेगा। जब तक विक्रेता और व्यापारी मिलावट कम तोल नाप, मुनाफाखोरी न छोड़ेंगे तब तक व्यापार की स्थिति दयनीय ही बनी रहेगी। सरकारी कर्मचारी जब तक अहंकार रिश्वत कामचोरी और घोटाला करने की प्रवृत्ति न छोड़ेंगे तब तक शासन यंत्र का उद्देश्य पूरा न होगा। यह सत्प्रवृत्तियाँ वर्गों में अभी उतनी नहीं दिखाई देती जितनी होनी चाहिए। यही कारण है कि हमारी प्रगति अवरुद्ध बनी पड़ी है। साधनों की कमी नहीं है आज जितना ज्ञान धन और श्रम साधन अपने पास मौजूद है उसका सदुपयोग होने लगे तो सुख सुविधाओं की अनेक गुनी अभिवृद्धि हो सकती हैं।

आत्म कल्याण की लक्ष्य पूर्ति तो सर्वथा सत्प्रवृत्तियों पर ही निर्भर है ईश्वर का साक्षात्कार स्वर्ग एवं मुक्ति को प्राप्त कर सकना केवल उन्हीं के लिए संभव है जिनके विचार और कार्य उच्चकोटि के आदर्शवादी एवं परमार्थ भावनाओं से ओत−प्रोत हैं। कुकर्मी और पाप वृत्तियों में डूबे हुए लोग चाहे कितना ही धार्मिक कर्मकाण्ड क्यों न करते रहें कितना भजन-पूजन कर लें, उन्हें ईश्वर के दरबार में प्रवेश न मिल सकेगा। भगवान घट-घट वासी है वे भावनाओं को परखते है और हमारी प्रवृत्तियों को भली प्रकार जानते हैं, उन्हें किसी बाह्य उपचार से बहकाया नहीं जा सकता। वे किसी पर तभी कृपा करते हैं जब भावना की उत्कृष्टता को परख लेते है। उन्हें भजन से अधिक भाव प्यारा है। भावनाशील व्यक्ति बिना भजन के भी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है पर भावना हीन व्यक्ति के लिये केवल भजन के बल पर लक्ष्य प्राप्ति संभव नहीं हो सकती।

लौकिक और पारलौकिक भौतिक और आत्मिक कल्याण के लिये उत्कृष्ट भावनाओं की अभिवृद्धि नितांत आवश्यक है। प्राचीन काल में जब भी अनर्थ के अवसर आये हैं तब उनका कारण मनुष्य की स्वार्थपरता एवं पाप बुद्धि ही रही है और जब भी सुख शांति का आनन्दमय वातावरण रहा है तब उसके पीछे सद्भावनाओं का बाहुल्य ही मूल कारण रहा है। आज भी हमारे लिये वही मार्ग शेष है। इसके अतिरिक्त और रहेगा। सभ्य समाज की स्थिति जब जब रही तब धर्मबुद्धि की ही प्रधानता रही है। हमें वर्तमान दुर्दशा से ऊँचे उठने के लिये जनमानस में की स्थापना करनी होगी। इसी आधार पर विश्वव्यापी सुख शांति का वातावरण बन सकना संभव होगा।


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