प्रकाश पथ का पथिक

April 1995

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चलते-चलते संध्या का झुटपुटा हो गया। समय के रथ पर सवार भगवान भास्कर अस्ताचलगामी होने लगे। अमावस्या की अन्धकारमयी रात्रि थी। हाथ को हाथ नहीं दिखाई देता था। मंजिल अभी दो कोस दूर थी। वह वहाँ पहुँचा और बड़े दीन भाव से साधू से निवेदन करने लगा-महात्मन्! मुझे अपनी मंजिल पर इसी समय पहुँचना है। अँधेरी रात है। बीहड़ मार्ग है। यदि मैं आज न पहुँच सका तो जीवन का अलभ्य अवसर हाथ से निकल जाएगा। ऐसे विपत्तिकाल में आप मेरी सहायता कीजिए।’

कुटिया में रखा दीपक यदि आपके काम आ सके तो सहर्ष ले जा सकते हो। शाम का भोजन मैं कर ही चुका। केवल विश्राम करना है उसके लिए प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं।”

यात्री प्रसन्न हुआ। उसे एक सहारा मिल चुका था। उसने दीपक उठाया और यथावत् चल पड़ा मंजिल की ओर। दो-चार खेतों को ही पार किया होगा कि उसके कदम मंजिल की ओर न बढ़कर कुटिया की ओर लौट पड़े दीपक को यथा स्थान रखते हुए उलाहने के स्वर में उसने कहा-इस दीपक का क्षीण प्रकाश चार-पाँच कदम से आगे पहुँचता ही नहीं, फिर मैं दो कोस की मंजिल कैसे तय करूँगा यह स्वर्ण अवसर भले खो जाय, पर इस क्षीण प्रकाश के सहारे यात्रा करके मैं अपने जीवन को संकट में नहीं डालना चाहता। महात्मन्। मुझे तो आप अपनी कुटिया में रात बिताने की आज्ञा दीजिए। मैं एक किनारे पड़ा रहकर रात्रि काट लूँगा। विश्वास करें मेरे रहने से आपकी साधना में किसी तरह की बाधा न आएगी सुबह होते ही मंजिल की ओर तेजी से कदम बढ़ाकर पहुँचने का प्रयास करूँगा

यात्री को ठहराने में भला साधु को क्यों आपत्ति होती। उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। यात्री थका हुआ तो था ही लेटते ही गहरी नींद में खो गया।

लगभग एक घंटे के बाद एक अन्य यात्री उधर से निकला। उसके हाथ में दीपक था। जो क्षीण प्रकाश बिखेरता हुआ उसके मार्ग को प्रशस्त करता जा रहा था। यात्री ने कुटिया की ओर एक दृष्टि डाली और बिना रुके आगे की ओर बढ़ने लगा। साधु कुटी के बाहर आया। उसने यात्री को रोकते हुए कहा-ऐसा लगता है कि आप काफी लंबी यात्रा तय करके आ रहे है। बहुत थक गए होंगे। दिन भर यहीं विश्राम कर लें। प्रातः काल होते ही यहाँ से चले जाना। एक अन्य यात्री भी कुटिया में विश्राम कर रहा है। उसे भी इसी ओर जाना है। दोनों का साथ हो जाएगा। बातचीत करने से रास्ता कब कट गया, पता भी न चलेगा।”

साधु ने पुनः आगे कहा-यात्री ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा-यह प्रकाश तो मुझसे चार-पाँच कदम आगे ही रहता है। इसलिए मंजिल की ओर बढ़ने में मुझे किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होतीं। आप देख ही रहे है। इसी के सहारे में दो कोस की यात्रा कर आया हूँ। अब आगे तो उतना ही और चलना भर है।”

“लेकिन इस तरह तो जीवन संकट में पड़ सकता है। साधु ने तनिक हिचकिचाते हुए सवाल किया। आखिर क्यों? यात्री के चौंकने की बारी थी। आगे रास्ता जो कठिन है, और तुम्हारे पास प्रकाश का कोई समुचित साधन भी नहीं। मुसाफिर ने साधु की ओर आश्चर्य पूर्ण नजर डालते हुए कहा-” लक्ष्य के प्रति समर्पित समय का अर्थ ही जीवन हैं।” जो समय साधन मंजिल की ओर बढ़ने में अपनी निष्ठा न सिद्ध कर सके, उसे व्यर्थ ही समझना चाहिए। बिना रुके, बिना थके जो लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे, यथार्थ में वही जीवित हैं।”

साधु यात्री के उत्तर से संतुष्ट हो गया। वह तो उसके मनोबली की परीक्षा ले रहा था। उसने मनोबली की परीक्षा ले रहा था। उसने आशीर्वाद देते हुए कहा- “वत्स! मैं तुमसे संतुष्ट हुआ तुम्हारी यह यात्रा बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो मेरी यहीं कामना है।”

यात्री के पास अधिक कहने सुनने के लिए समय कहाँ था। वह तो दीपक के क्षीण प्रकाश में आगे बढ़ गया। जबकि स्वल्प प्रकाश और घने अंधकार को उलाहना देने वाला विराम की निद्रा में लंबी तान कर सो रहा था।


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