हमारा सच्चा सहचर-ईश्वर

April 1995

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जिन्दगी को ठीक तरह जीने के लिये एक ऐसे साथी की आवश्यकता लिये एक ऐसे साथी की आवश्यकता रहती है जो पूरे रास्ते हमारे साथ रहे रास्ता बतायें प्यार करे सलाह दे और सहायता की शक्ति तथा भावना दोनों से ही सम्पन्न हो। ऐसा साथी मिल जाने पर जिन्दगी की लम्बी मंजिल बड़ी हँसी-खुशी और सुविधा के साथ पूरी हो जाती है। अकेले में यह लम्बा रास्ता भारी हो जाता है और कठिन प्रतीत होता है।

ऐसा सबसे उपयुक्त साथी जो निरंतर मित्र सखा सेवक गुरु सहायक की तरह हर एक घड़ी प्रस्तुत रहे और बदले में कुछ भी प्रत्युपकार न माँगे केवल एक ईश्वर ही हो सकता है। ईश्वर को जीवन का सहचर बना लेने से मंजिल इतनी मंगलमय हो जाती है कि यह धरती ही ईश्वर सबके साथ है और वह सब की सहायता भी करता है पर जो उसे समझते और देखते है। वास्तविक लाभ उन्हें ही मिल पाता है, किसी के घर में सोना गढ़ा है और उसे वह प्रतीत न हो तो गरीबी ही अनुभव होती रहेगी, किन्तु यदि मालूम हो कि हमारे घर में इतना सोना है तो उसका भले ही उपयोग न किया जाय मन में अमीरी का गर्व और विश्वास बना रहेगा। ईश्वर को भूले रहने पर हमें अकेलापन प्रतीत होता है, पर जब उसे अपने रोम-रोम में समाया हुआ, अजस्र प्रेम बरसाता हुआ और सहयोग लुटाता हुआ अनुभव करते हैं तो साहस हजारों गुना अधिक हो जाता है। आशा और विश्वास से हृदय हर घड़ी भरा रहता है।

जिसने ईश्वर को भुला रक्खा है अपने बलबूते पर ही सब कुछ करता है और सोचता है उसे जिन्दगी बहुत भारी प्रतीत होती है, इतना वजन उठाकर चलने में उसके पैर लड़खड़ाने लगते है। कठिनाइयाँ और आपत्तियाँ सामने आने पर भय और आशंका से कलेजा धक धक करने लगता है। अपने साधनों में कमी दीखने पर भविष्य अंधकारमय प्रतीत होने लगता है। परन्तु जिसे ईश्वर पर विश्वास है वह सदा वही अनुभव करेगा कि कोई बड़ी शक्ति मेरे साथ है जहाँ अपना बल थकेगा वहाँ उसका बल मिलेगा। जहाँ अपने साधन कम पड़ रहे होंगे वहाँ उसके साधन कम पड़ रहे होंगे वहाँ उसके साधन उपलब्ध होंगे। इस संसार में क्षण-क्षण पर प्राणघातक संकट और आपत्तियों के स्थल मौजूद है। जो उन से अब तक अपनी रक्षा करता रहा वह आगे क्यों न करेगा? अब तक के जीवन पर यदि हम ध्यान दे तो ऐसे ढेरों प्रसंग याद आ जायेंगे जब चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था और यह प्रतीत होता था कि नाव अब डूबी और तब डूबी। पर स्थिति बदली, विपत्ति की घटाएँ हटी और सुरक्षा के साधन बन गए। लोग इसे आकस्मिक अवसर कह कर ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को भूलते रहते है। वास्तविकता यह है कि समय-समय पर हमें दैवी सहायता मिलती है और अपने स्वल्प साधन रहते हुए भी कोई बड़ी शक्ति सहायता करने के लिये आ पहुँचती है। कृतघ्नता को हमने अपने स्वभाव में यदि सम्मिलित नहीं किया है तो अपने निज के जीवन में ही अगणित अवसर दैवी सहायता के ढूँढ़ सकते है और यह विश्वास कर सकते हैं कि उसकी अहैतुकी कृपा निरन्तर हमारे ऊपर बरसती रहती है।

अब तक जिसने समय-समय पर इतनी सहायता की है, जन्म लेने से पहले ही हर घड़ी गरम मीठे और ताजे दूध से निरन्तर भरे रहने वाले दो-दो डिब्बे जिसने तैयार करके रख दिये थे, माता के रूप में धोबिन, भंजन, डॉक्टर, नर्स आया, तथा मनमाना खर्च और दुलार करने वाली एक चौबीस घंटे की बिना वेतन की सेविका जिसने नियुक्त कर रखी थी, प्रत्येक अवसर पर जिसकी सहायता मिलती रहीं है वह आगे भी मिलेगी ही और अपना भविष्य उज्ज्वल बनेगा ही, यह विश्वास नहीं हो सकता। उसकी हिम्मत नहीं हो सकता। उसकी हिम्मत बढ़ती है और साहसी शूरवीरों जैसा कलेजा बना रहता है।

डरता वह है जिसे ईश्वर का डर नहीं होता। जो ईश्वर से डरता है उसके आदेशों का उल्लंघन नहीं करता उसे इस संसार में किसी से भी डरना नहीं पड़ता संसार की हर वस्तु से डरने और सशंकित रहने का एक ही कारण है-ईश्वर से न डरना, उसकी अवज्ञा करना जो ऐसा नहीं करते उसे अपना मित्र सहायक और मार्गदर्शक मानते हैं उन्हें सबसे पहला उपहार निर्भयता का प्राप्त होता है। उन्हें फिर किसी से भी डरना नहीं पड़ता आपत्तियाँ उन्हें खिलवाड़ सरीखी दीखती है। वस्तुतः इस पुण्य उपवन संसार में डरने का कहीं कोई कारण नहीं है। ईश्वर द्वारा कागज का डरावना चेहरा पहन कर छोटे बच्चों को डराने का विनोद भर किया जाता है।

पिता अपने बच्चों को तलवार घुमाकर डराना चाहे तो क्या बच्चा कभी डरता है? ईश्वर के हाथ में इस संसार की सारी बागडोर हैं। दीखने वाली कठिनाइयाँ भले ही तलवार जैसी हो, उनकी मूँठ तो अपने परम स्नेही के हाथ में है फिर डरने की क्या बात रही? ईश्वर विश्वासी का सोचना इसी ढंग का होता है। हर डराने वाली घटना उसे खिलवाड़ जैसी लगती है और विषम घड़ियों में भी न तो उसे घबराहट होती है और न परेशानी।

अपना सहायक पिता-माता स्वामी सखा, भ्राता मित्र परिजन और धन जिसने ईश्वर को मान रखा है उसे बड़े से बड़े अमीर से, राजाधिराज से अधिक आत्म विश्वास बना रहेगा। राजा रईसों के लड़के अपने पिता की जरा सी संपत्ति पर गर्व कर सकते हैं तो अनंत सामर्थ्य और असीम विभूतियों के स्वामी ईश्वर को जो अपना पिता मानेगा उसे इस संसार में फैला हुआ सब कुछ अपना ही अनुभव होगा। इतना अतुल वैभव जब अपना, अपने पिता का ही है तब दरिद्रता और गरीबी की बात सोचने का प्रश्न ही नहीं उठता। गरीब वे है जो केवल अपनी संपत्ति को ही अपनी मानते है। ईश्वर को अपने से पृथक् दूर एवं असम्बद्ध मानने वाले को ही गरीबी दुःख देती है और उसे ही तृष्णा सताती है। जब सब कुछ अपने ईश्वर का ही है तो फिर असंतोष किस चीज का?

रास्ता वह भूलता है जिसे बताने वाले की बात सुनने की फुरसत नहीं होती। अन्तरात्मा में बैठा हुआ ईश्वर उचित और अनुचित की, कर्तव्य और अकर्तव्य की प्रेरणा निरंतर देता रहता हैं जो इसे सुनेगा उसका महत्त्व समझेगा और सम्मान करेगा उसे सीधे रास्ते चलने में कोई कठिनाई न होगी और जो सीधे रास्ते चलता है उसे लोक में सुख और परलोक में शान्ति की कमी नहीं रहतीं। यश प्रतिष्ठा, और सम्मान उसके पीछे फिरते हैं भले ही धन की दृष्टि से वह ऐसा न हो पावे पर महत्ता उसके चरणों पर लेटती रहती हैं। महापुरुषों और नर रत्नों में ही वह गिना जाता है। ईश्वर को जिसने पहचाना और अपनाया वह नर से नारायण और पुरुष से पुरुषोत्तम बन कर रहता है। सदाचार और कर्तव्य परायणता, आत्म विश्वास और निर्भयता, आशा और धैर्य आनंद और संतोष यही सब तो आस्तिकता के चिन्ह है। जैसे-जैसे ईश्वर विश्वास बढ़ता है वैसे ही यह महानतायें अपने आप उत्पन्न होती जाती है। जीवन की सार्थकता और सफलता उन्हीं तत्त्वों पर तो निर्भर है।

ईश्वर की उपेक्षा करने में परमेश्वर की कोई हानि नहीं। हमारे भजन-ध्यान से उनका कुछ बनता बिगड़ता नहीं उसकी कृपा में इससे कोई अंतर पुत्रों का हित चिंतन वैसे ही करते हैं जैसे माता-पिता छोटे शिशु का करते हैं। उपेक्षा में हानि अपनी ही है। अकेलापन सदा ही अखरता है। दूसरे स्वजन सम्बन्धी एक समय तक ही साथ रह सकते है उनका प्रेम भी बदले की ही प्रक्रिया पर निर्भर रहता है। फिर उनकी क्षमा और उदारता भी उतनी बढ़ी चढ़ी कहाँ होती है। सबसे श्रेष्ठ ओर सबसे सस्ता साथी ईश्वर ही हो सकता है। उसकी उपेक्षा करके अपना ही सबसे अधिक अहित होता है। हम उन सब लाभों से वंचित रह जाते है जो भगवान के सान्निध्य में रहने से प्राप्त होते थे हो सकते थे। गाड़ी दो पहिये से चलती है। अपनी गाड़ी में एक पहिया एक ईश्वर का और लगा लें तो जो गति आती है वह एक लगा लें तो जो गति आती है वह एक पहिये से नहीं आ सकती। ईश्वर विहीन जीवन ऐसा ही है जैसा बिना शरीर के प्रेत-पिशाच की योनि में विचरण करने वाली आत्मा। उसे अशान्ति ही मिलती है। असंतोष द्वेष क्लेश से ही ऐसी मनोभूमि जलती और संत्रस्त रहती है। परमात्मा से विमुख होकर हम पाते कुछ नहीं खोते बहुत हैं समय रहते इस भूल को सुधार लिया जाय तो ही अच्छा है।


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