एक बार मेढ़कों को अपने समाज की अनुशासन हीनता पर बहुत खेद हुआ और वे शंकर भगवान के पास एक राजा भेजने की प्रार्थना लेकर पहुँचे। प्रार्थना स्वीकृत हो गई और शिवाजी ने नन्दी को राजा बनाकर भेज दिया। मेंढक इधर उधर निःशंक भाव से कूदते फाँदते से नन्दी के पैरों से दब कर कुचलने लगे। मेढ़कों को ऐसा राजा पसन्द नहीं आया फिर वे शिवलोक पहुँचे और पुराना हटाकर नया राजा भेजने का अनुरोध करने लगे।
यह प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। नन्दी वापस बुला लिया गया। अब की बार अपने गले का सर्प शासक बनाकर भेजा। उसे जब भी भूख लगती वह मेढ़कों को पकड़ कर खा जाता। इस नई विपत्ति से मेढक बहुत दुखी हुए और भगवान के पास जाकर शिकायत करने लगे।
शिवाजी ने गम्भीर होकर कहा पहले मैंने अपना वाहन नन्दी भेजा फिर सर्प भेजा इस तरह शासक बदलने से कोई लाभ होने वाला नहीं है। शासन से बड़ी बड़ी आशाएँ अपेक्षाएँ रखने की अपेक्षा स्वयं अनुशासित रहना सीखते तो ज्यादा अच्छा। यह सुनकर बेचारे अपने प्रबंध में जुट गये।
हम भी शासन का मुँह अधिक ताकते हैं आत्मावलम्बन पर निर्भर नहीं रहते।