जीवन खिलाड़ी की तरह जिए, वही सच्चा कलाकार

April 1995

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संसार में ऐसे न जाने कितने व्यक्ति देखने को मिल सकते है, जो हर समय कुछ सोचते विचारते से रहते है। उनका मुख मलीन और मुद्रा गंभीर रहती है। काम करते है काम कर रहा है उसमें उसका मनोयोग रंचमात्र भी नहीं हैं। यों ही हाथ पैर चलाता हुआ सक्रियता को अभिव्यक्ति भर कर रहा है। केवल उनकी क्रिया देखने से ही नहीं काम का स्वरूप देखकर भी पता चल जाता है कि यह काम उत्साहपूर्वक, मनोयोग द्वारा नहीं किया गया है। बेगार टाली गयी है या कोई मजबूरी पूरी की गई है।

इस प्रकार की असफल अभिव्यक्तियों वाला अवश्य ही कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो व्यग्र चिंतित खिन्न और अप्रसन्न रहने की हो जाती है वे एक प्रकार से मानसिक रोगी ही होते है। किसी काम, किसी बात और किसी व्यवहार में उनका मन नहीं लगता। उनके अंदर एक तनाव की स्थिति बनी रहती है और वे प्रतिक्षण मानसिक खींचातानी में पड़े रहते है। जिसका फल यह होता है कि उनकी बहुत-सी ऐसी जीवनी शक्ति जलकर भस्म हो जाती है जिसका सदुपयोग करने से सफलता के पथ पर उन्नति के शिखर पर अनेक विश्वस्त कदमों को बढ़ाया जा सकता है।

परमात्मा ने मनुष्य को जीवन दिया, जीवनी शक्ति दी, सक्रियता तथा कार्य के लिए अभिरुचि प्रदान की इसलिए कि वह अपने कर्तव्यों में सुचारुता का समावेश करके संसार को सुन्दर बनाने सुखी करने में अपना योगदान करे और उसी माध्यम अथवा मार्ग से स्वयं अभ्युदय की ओर बढ़े, अपना और अपनी आत्मा का उपकार करे सुखी संपन्न और संतुष्ट जीवन पाकर अनुभव कर सके कि मानव जीवन में सुन्दरताओं के भंडार भरे पड़ें है। किंतु होता यह है कि लोग अपने अंदर खिन्नता अप्रसन्नता अथवा निराशा का रोग पालकर सर्व संपन्न, मानव जीवन को आग और अंगारों के मार्ग बना लेते हैं। सफलता अभ्युदय प्रकाश की ओर अग्रसर होने के स्थान पर विफलता अवनति और अंधकार के शिकार बन जाते है। यह बहुत खेद का विषय है, किंतु इससे अधिक दुःख यह है कि वे यह नहीं समझते कि इस प्रकार की मनोदशा से वे अपनी और इस संसार की कितनी गहरी क्षति कर रहे है, और यदि समझकर भी अपना सुधार करने खिन्नता की बेडिय़ों से छूटने का प्रयत्न नहीं करते तब तो इस पर होने वाले दुःख का पारावार ही नहीं रह जाता। खिन्नता अथवा अप्रसन्नता की स्थिति अकल्याणकारी है। इससे शीघ्र ही छूट लेना अच्छा है। खिन्न रहकर जीवन को नष्ट करने का किसी भी मनुष्य को अधिकार नहीं है।

खिन्न मनः स्थिति वाले व्यक्ति को विक्षेप का रोग लग जाता है, कहीं भी किसी बात में उसका मन नहीं लगता। घर में प्रसन्न बच्चों की क्रीड़ा उनका उछालना, कूदना खेलना और प्रसन्न होना उसे ऐसा अखरता है मानों वे भोले भाले बच्चे उसका कोई अहित कर रहे हो। वह उनकी क्रीड़ा देखने पर प्रसन्न होने हँसने और उनके कल्लोल में सहभागी होने की बजाय उन्हें डाँटने-मारने लगता है अथवा उनसे विरक्त होकर दुःखी होकर दूर हट जाता है अथवा बाहर चला जाता है। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि उसका घर प्रसन्नता और उल्लास का सागर बना हुआ है किंतु खिन्न व्यक्ति उसका आनंद नहीं ले सकता उलटे अपने मासिक विपर्यय के कारण वह पारिवारिक सुख उसे कष्ट देता रहता है। इसे भाग्य की वंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

बच्चों की क्रीड़ा ही नहीं ऐसे व्यक्ति को अपनी पत्नी का विनोद उसकी मुसकान उसका कथन, अथवा अन्य प्रियवादी बातें अच्छी नहीं लगतीं। पत्नी हँसती है तो वह गुर्रा उठता है। पत्नी कोई बात कहती पूछती अथवा सुनाती है तो काटने दौड़ता है। अस्वस्थ मन वालों की अनुभव शक्ति कुछ इस प्रकार की उलटी हो जाती है कि उन्हें अनुकूल से अनुकूल बात भी प्रतिकूल और सुन्दर से सुन्दर वातावरण दुःखदायी लगने लगता है।

खिन्न व्यक्ति घर पर बाल-बच्चों के बीच तो त्रस्त रहता ही है बाहर जाकर भी उसे शांति एवं समाधान नहीं मिल पाता। कुछ ही समय में मित्रों के संपर्क से उनके साथ मनोविनोद और वार्तालाप से ऊब उठता है। उसे उपयोगी से उपयोगी बातचीत बेकार की बकवास लगती है। उसे बाह्य संसार का कोलाहल उसकी हलचल उसका क्रिया−कलाप काटने को दौड़ता है। उपवन अथवा एकांत में भी उसका चित शांति से वंचित रहता है। खिले हुए फूलों का सौंदर्य और कलरव करती हुई चिड़ियों का सुख उसके लिए असंभव रहता है कुछ ही देर में उपवन का सौंदर्य उसके लिए वन की भयानकता में बदल जाता है। एकांत अथवा निर्जन स्थान में तो उसकी दशा और भी खराब हो जाती है। वहाँ पहुँचते ही उसके मन की भयानकता, बाह्य निर्जनता से मिलकर वातावरण इतना असह्य बना देती है कि उसे वह स्थान श्मशान जैसा लगने लगता है। उसे अपने से अपनी छाया से, भय लगने लगता है, जिससे वह उस शांत स्थान श्मशान जैसा लगने लगता है, जिससे वह उस शांत स्थान में भी शांति नहीं पा पाता, जिसमें पहुँच कर किसी भी स्वस्थ चित्त व्यक्ति को नए विचार नूतन भाव, और एक अलौकिक निस्तब्धता की उपलब्धि हो सकती है।

सुख-शांति के स्थानों घर और बाहर किसी का उद्विग्न रहना, त्रास एवं संताप पाना कितना बड़ा दंड हो सकता है। यह दंड किसी बड़े पाप का ही परिणाम हो सकता है और वह पाप निश्चित रूप पिशाचिनी खिन्नता ही है। जिसे अज्ञानी व्यक्ति अपने मन मंदिर में बसा लेता है। जहाँ उसे सद्विचारों और शांति-संतोष के देवी-देवताओं की आराधना करनी चाहिए। जितना शीघ्र इस पाप से छूटा एवं बचा जा सके उतना ही कल्याणकारी है।

खिन्नता के दोष से मनुष्य के मन में विक्षेप का विकार उत्पन्न हो जाता है। जिससे न तो उसका मन किसी काम में लगता है और न किसी स्थान में उसे शांति मिलती है। जहाँ आस-पास लोग हँसते-बोलते अपना काम-काज करते, संसार के सभी व्यवहारों को निभाते, उन्नति एवं प्रगति करते दिखाई देते है, वहाँ मलीन मन व्यक्ति हर समय शोक संताप में जलता एवं कोई भी काम वह ठीक से नहीं कर पाता। अभी एक काम प्रारंभ किया कि शीघ्र ही उसे छोड़कर दूसरा करने लगा। अभी कहीं जोन का उत्साह जागा कि दूसरे ही क्षण अंदर बैठी खिन्नता की डायन ने उस क्षीण उत्साह का गला दबा दिया। खिन्न व्यक्ति का मनोबल नष्ट हो जाता है, उसका आत्म विश्वास उसे छोड़कर चला जाता है। जिससे वह संसार में आगे बढ़ने अपनी आत्मा का उद्धार करने के लिए पुरुषार्थ के योग्य नहीं रहता। किसी भी काम करने से पहले ही उसे असफलता हानि अथवा निरर्थकता के भाव दबा लेते है। तिस पर भी उसे यदि कुछ करना ही पड़े तो सिवाय- असफलता एवं निराशा के उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता।

सवाल यह उठता है कि जब खिन्नता इतनी अकल्याणकारी प्रवृत्ति है तब लोग उसको प्रश्रय ही क्यों देते है? निश्चय ही कोई व्यक्ति जान-बूझ कर इस दोष को नहीं पालता। कोई भी खिन्न अप्रसन्न अथवा असंतुष्ट नहीं रहना चाहता। किंतु फिर भी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती है, जिनमें खिन्नता के कारण निहित रहा करते है और मनुष्य न चाहता हुआ भी उनसे प्रभावित हो जाता है। उदाहरण के लिए खिन्नता के कारणों में से अनेक कारण इस प्रकार हो सकते है किसी प्रियजन का विछोह अथवा परिजन का रुग्ण हो जाना। किसी आकस्मिक विपत्ति का आ पड़ना, आर्थिक अथवा शारीरिक हानि किसी से विवाद खड़ा हो जाना, अथवा किन्हीं विषय परिस्थितियों में फँस जाना आदि।

इस संसार की रचना और उसका विधान ही कुछ इस प्रकार का है कि कोई भी व्यक्ति एक समान स्थिति में नहीं रह सकता यहाँ पग-पग पर संघर्ष और प्रतिकूलता के अवसर आते ही रहते है। किसी भी समय कोई भी कारण खड़ा होकर विवाद को पैदा कर सकता है। किन्हीं निर्दिष्ट व्यक्तियों को ही नहीं इस विषमतापूर्ण संसार में सभी व्यक्तियों को थोड़ी बहुत प्रतिकूलताओं से गुजरना ही पड़ता है। तथापि हम देख सकते है हजारों-लाखों और करोड़ों आदमी ऐसे है जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी प्रफुल्ल एवं प्रसन्न बने रहते है। खिन्नता के कारण न तो उन्हें अकर्मण्य बना पाते हैं और न उनकी जीवन-रुचि छीन पाते है। वे हर प्रतिकूल कारण से टकराते हुए आगे बढ़ते जाते है। न तो वे बैठकर विवाद मनाते हैं और न अपने जीवन तत्त्व को जलाते ही हैं।

संसार की एक जैसी परिस्थितियों में यदि सभी व्यक्ति समान रूप से निराश एवं निष्क्रिय हो जायें तो क्या यह संसार एक क्षण को भी स्थिर रह सकता है। क्या ऐसी दशा में इसकी प्रगति संभव है। क्या ऐसी दशा में इसकी प्रगति संभव है।

आज प्रति दिन होने वाले चमत्कार सामने आने वाली उपलब्धियाँ और उन्नति की ओर बढ़ते हुए मानवता के कदम जहाँ और शीघ्र ही यह हरा-भरा और चलता फिरता संसार श्मशान की तरह नीरस एवं निर्जीव बन जाय।

दुःख अथवा विषादों से छुटकारा पाने का उपाय निराश होकर बैठे रहना नहीं है। उसका उपाय है कर्मठता एवं पुरुषार्थ। हँसना और मुस्काना जीवन की सफलता-असफलता में समदृष्टिकोण रखकर साहस न हारना। हँसने मुसकाते हुए अपना कर्तव्य करिए। विषमताओं एवं प्रतिकूलताओं से हारिए नहीं उन पर अपने शारीरिक और मानसिक बल से विजय प्राप्त करिए। खिन्नता निरुत्साह की जननी है। यह जीवन का सारा रस सारा सौंदर्य और समस्त पुण्यों को नष्ट भ्रष्ट करके मनुष्य को निस्सार बना देती है। इससे दूर रहना ही ठीक है। इसे जीवन से निकाल फेंक देना चाहिए। खिन्नता कायर और कमजोर मन वालों का दंड हैं। पुरुषार्थी एवं वीर-पुरुष का पुरस्कार प्रसन्नता एवं संपन्नता है। हम सभी प्रयत्न करें और उसे प्राप्त कर जीवन को सफल एवं प्रसन्न बनाएँ।


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