प्रेय बने श्रेय

April 1995

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विद्या विहार का उस दिन दीक्षांत समारोह था। आचार्य रौहित्य स्नातकों के सम्मुख समापन का प्रवचन कर रहे थे। सुनने वालों में अंतेवासी ही नहीं सुदूर देशों के हजारों जिज्ञासु और गणमान्य नागरिक भी सम्मिलित थे। उस सत्र में जो ज्ञान गंगा वह रही थी उसमें अवगाहन करके श्रोता मंत्र मुग्ध हो रहे थे। हर एक के मुख से यही निकल रहा था ऐसे अमृत वर्षण का लाभ कभी कदाचित ही किन्हीं सौभाग्यशालियों को मिलता है।

उस समारोह में स्वयं कौशल नरेश उपस्थित थे। विद्या विहार के समापन समारोह में उनकी उपस्थिति अनिवार्य तो नहीं थी पर आचार्य रौहित्य द्वारा ओजस्वी वाणी में जो तथ्यान्वेषी प्रतिपादन होता था उससे अवगत होने का लोभ संवरण कर सकना उनके लिए भी कठिन था। सो वे उपस्थित रहें ही उपस्थिति का एक और कारण था विद्या विहार को निर्माण कराने से लेकर उसके संचालन तक का सारा दायित्व राजनर्तकी मधुलिका के कंधों पर था। राजाधिराज उसे प्राणाधिक प्यार उनका मन मयूर नाचता रहता था। एक क्षण के लिए भी उससे विलग पर उनका मन मयूर नाचता रहता था। एक क्षण के लिए भी उससे विलग रहना उनके लिए कठिन था। मधुलिका उन दिनों सत्र समारोह में पूरी तरह व्यस्त थी सो कौशल नरेश की उपस्थिति इस कारण भी सहज स्वाभाविक हो गयी।

आचार्य की अमृत वर्षा कई दिन चली वे मेघगर्जन जैसे अपने ओजस्वी प्रतिपादनों में तत्त्व दर्शन के गंभीर विषयों पर प्रकाश डालते जा रहे थे। इस प्रकार उनका प्रधान विषय था, तथ्य और सत्य इस संदर्भ में अधिकाधिक प्रकाश डालते हुए वह यह सिद्ध कर रहे थे कि सत्य अविच्छिन्न रूप से तथ्य के साथ जुड़ा हुआ है। तथ्य के आधार पर ही सत्य को पहचाना और पाया जा सकता है। तथ्य रहित सत्य भ्रांति मात्र है। सत्य को पाना हो तो तथ्यों का अवलंबन करना होगा।

विषय गंभीर था। प्रवाह की धारा इतनी वेगवती थी कि उसके साथ बहने के अतिरिक्त सामान्य बुद्धि के लिए और कोई चारा ही न था। करतल ध्वनि कर रहे थे। समारोह का क्रम बड़े उत्साह वर्धक वातावरण में चल रहा था।

मधुलिका राजनर्तकी थी। उसका रूप यौवन समय की परिधि का उल्लंघन करके उस स्तर पर जा पहुँचा था जिसे सर्वोपरि कहा जा सके। प्रकृति ने उसकी काया जिस कला का आश्रय लेकर रची थी, मानो वह अनुपम और अपूर्व रही हो। कौशल नरेश उसके सौंदर्य पर इतने मुग्ध थे कि और कुछ देखना सुनना उन्हें फीका लगता था। धन के उसके पास भंडार भरे पड़े थे। महाराज ने उसे सुसम्पन्न बनाने में कुछ छुपा न रखा था। राजकोष की चाबियां उसके संकेतों पर खुलती बंद होती थी।

यह सब तो तथ्य था। वह अपनी माँसलता को बेचकर महाराज को अपने मोह पाश में बाँधने वाली मायाविनी समझी जाती थी। राजकोष खाली करके अपना घर भर लेने का दोष भी उस पर मढ़ा गया था और यह दोनों ही आरोप अपने स्थान पर तथ्य थे। किंतु यदि यही सत्य भी है तो उस नगर वधू का व्यक्तित्व कितना हेय और पतित हो सकता है, इसकी कल्पना करने से मधुलिका का हृदय विदीर्ण होने लगा वह रूपवती ही नहीं बुद्धिमती और सूक्ष्मदर्शी भी थी। दूसरों की तरह उसने आचार्य रौहित्य का प्रवचन कानों से ही नहीं सुना बल्कि उसके प्रकाश में अपने आपको भी देखा परखा। एक बारगी वह तिलमिला गयी।

अब तक मधुलिका के स्वप्न कुछ दूसरे ही थे। वह कुलीन परिवार में उत्पन्न हुई थी। उदर पूर्ति के लिए अथवा वासना के लिए उसे राजनर्तकी बनना पड़ा हो सो बात भी नहीं थी और न किसी ने उसे इसके लिए बाध्य किया था। यह उसका स्वेच्छा चयन ही था। अपने प्रयास में वह सफल हुई थी इसके पीछे एक विशेष उद्देश्य था। वह चाहती थी कि कौशल देश का विद्या विहार धर्म संघ की महती आवश्यकता पूरी करें और मानवी अंतरात्मा पर छायी हुई मोह कालिमा को धोने के लिए बढ़-बढ़ कर काम करे। हजारों सुयोग्य भिक्षु तैयार हों और वे विश्व के कोने-कोने में संव्याप्त अधर्म के उन्मूलन में अपने ज्योतिर्मय जीवन द्वारा महती भूमिका प्रस्तुत करे। ऐसे सुसम्पन्न विद्या केन्द्र के लिए प्रचुर साधनों की आवश्यकता थी। धर्म के प्रति लोक रुचि के अतीव में वे साधन बड़ी मंदगति से जुट रहे थे और लगता था इस क्रम से तो दिग्भ्रांत वातावरण को दिशा देने में युगों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी मधुलिका ने सोचा क्यों न वह अपने रूप यौवन को बेचकर एक धर्म संघ को समर्थ बना सकने वाला विद्या बिहार चलाए।

वर्षों वह उस विचार के सित-असित पक्षों पर ऊहापोह करती रही थी और इस निष्कर्ष पर पहुँची थी। कि लोगों की दृष्टि में तथ्य कुछ भी क्यों न रहे वह सत्य के लिए सदुद्देश्य के लिए अपने सर्वस्व का बलिदान करेगी। यहाँ तक कि गौरवगरिमा को भी श्रेय और परलोक को भी। लोग उसे वीराँगना ही कहेंगे न? मायाविनी ही समझेंगे? वासना की अग्नि को जलाने वाली एक काष्ठ खंड की तरह उसे अपना अस्तित्व खोना पड़ेगा न? यह उसकी व्यक्तिगत क्षति हुई। समष्टि के कल्याण का संपादन करने में यदि व्यक्ति को अपना शील भी होमना पड़े तो हानि तो उसी की होगी। संसार को तो उसका लाभ ही मिलेगा। मधुलिका का यही विचार पक्ष क्रमशः प्रबल होता चला आया था और अंततः उसने इसी निष्कर्ष के आधार पर राजनर्तकी बनने का प्रयास किया था। जिसमें उसकी माँसलता ने सहज सफलता भी प्रस्तुत कर दी थी।

मधुलिका ने जान बूझकर अपने मोह-पाश में कौशल नरेश को जकड़ा था। चतुरता का समग्र उपयोग करके राजकोष से विपुल धन प्राप्त किया था। किंतु उसका समस्त उपयोग विद्या विहार के चलाने में ही होता था। उसका शयन कक्ष बहुमूल्य उपकरणों से सुसज्जित था। यों सामान्य उपयोग के लिए उसे राजसी साधन उपलब्ध थे फिर भी उसका भूमि शयन आस्वाद आहार अपने रहस्यमय ढंग से चलता रहता था। वीतराग संत की तरह उसकी मनःस्थिति थी। बाहर से निंद्य और भीतर से श्रद्धास्पद जीवन क्रम का अद्भुत सफलता मिली इस पर वह स्वयं आश्चर्यचकित थी। उसे इस बात का भरपूर संतोष था कि उसे जो सहना या करना पड़ रहा है वह एक समर्पित बलिदानी के स्तर से छोटा या हेय नहीं है।

पर इन दिनों आचार्य रौहित्य के जो प्रवचन हो रहे थे उनसे मधुलिका को लगा वह भूल कर गई। तथ्य और सत्य को वह अलग मानती रही। सत्य को वह वीराँगना ही है न? सत्य का क्या मूल्य? उसका मकसद कुछ भी क्यों न हो वह रहेगी तो वहीं जो तथ्य की कसौटी पर सिद्ध करेगी। मधुलिका का चेहरा पीला पड़ गया। उसके रोम रोम में हजारों बिच्छू काटने जैसी पीड़ा उमड़ने लगी। प्रवचन को जहाँ श्रोताओं द्वारा अमृत वर्पण की उपमा दी जा रही थीं, वहाँ मधुलिका को वे मर्मभेदी शूल के समान पीड़ादायक लग रहे थे। अंततः वह अस्वस्थता का बहाना करके समीपवर्ती विश्राम कक्ष में जा लेटी और अंचल परिधान से मुँह छिपा कर सुबकने लगी। आँसू उसके मर्मस्थलों को बेधकर निकल रहे थे।

आचार्य रौहित्य का प्रवचन समाप्त हुआ। विद्याविहार के कनिष्ठ प्राध्यापक विशालाक्ष का भी एक छोटा प्रवचन इसके उपरांत होने वाला था सो वे उठे और नम्रता पूर्वक बोले आचार्य श्री का परिपूर्ण सम्मान करते हुए भी मुझे यह मतभेद है व्यक्त करना है कि तथ्य और सत्य, एक नहीं है। दोनों एक दूसरे के लिए सहायक हो सकते है पर यह संभावना भी झुठलायी नहीं जा सकती कि किसी व्यक्ति के भीतर और बाहर की स्थिति परस्पर सर्वथा भिन्न हो। साधु जैसा वेश–विन्यास बनाए हुए दस्यु भी हो सकते है और किसी दस्यु भी हो सकते है और किसी दस्यु जैसा आचरण करने वाले व्यक्ति का बोधिसत्व होना भी संभव है। तथ्य और सत्य अपने स्थान पर दोनों ही महान् है फिर भी वे दोनों एक नहीं हो सकते। उनमें मौलिक अंतर बना ही रहेगा।”

वरिष्ठ आचार्य से उसका तत्त्व मंथन किसी तरह से कम नहीं। आँसू सूख गए और वह अँगड़ाई लेती हुई कौशल नरेश के साथ राजभवन चली गयी।

भाव भरी आवभगत के अतिरिक्त तत्त्व चर्चा भी चली पर वह तो अपने को खोया सा अनुभव कर रही थी। इतने में आचार्य विशालाक्ष भी वहाँ आ पहुँचे उन्हें देखकर वह विह्वल हो उठी। समीप खिसकती हुई आयी और उनकी गोदी में मस्तक रखकर ऐसी भाव विभोर हो गई मानो उसे इष्ट की प्राप्ति हो गई हो जिन देवता के चरणों में वह अपना पुष्प चढ़ाना चाहती थी वह मूर्तिमान् होकर सामने आ बैठा है।

इस अप्रत्याशित स्थिति को देखकर एक क्षण के लिए तो विशालाक्ष हतप्रभ और किंकर्तव्य विमूढ हुए किंतु दूसरे ही क्षण संभल गए। उन्होंने अपनी सहज करुणा ममता भरे वात्सल्य के साथ सिर पर स्नेह भरा हाथ फिराते हुए कहा-सत्य और तथ्य पृथक् रखे जा सकते है। सघन आत्मीयता को विलास आचरण से अछूता भी रखा जा सकता है। कल्याणी श्रेयस्कर यही है पूर्णता के लिए प्रेम से आगे बढ़कर श्रेय की शरण में जाना होता है।”

मधुलिका ने आंखें खोली उसने कातर होकर पूछा क्या सत्य को तथ्य के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता? विशालाक्ष की करुणा उनके कमल जैसे अधखुले नेत्रों से बूँद−बूँद करके टपकने लगी बोले भद्र सत्य और तथ्य का एकीकरण करना हो तो तथ्य को ऊँचा उठा कर सत्य का बंधन करना चाहिए सत्य को तत्त्व के अनुरूप बनने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए प्रेय और श्रेय बनाना चाहिए श्रेयों को प्रेय नहीं विशालाक्ष का ये प्रतिपादन भी मधुलिका को मर्म स्पर्श प्रतीत हुआ उसने सिर को गोदी में से हटा लिया और भाव कुल होकर कहा देव मेरी अतृप्त आकुलता की साध का समाधान कैसा होगा? विशालाक्ष फफक उठे और रुंधे हुए कंठ से संघ महामंत्र ही देर तक लगातार गुनगुनाते रहे ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’’ ‘‘संघं शरणं गच्छामि’’ ‘‘धम्मं शरणम् गच्छामि’’ यह गुनगुनाहट मधुलिका का गुरुमंत्र बन गयी उसके मुख से भी इन्हीं त्रिविधि महासत्यों की रट विनिसृत होने लगी कुछ दिन महल प्रसादा के कपाट बंद रहे पीछे देखा गया मधुलिका ने राजकीय वेश विन्यास का परित्याग कर दिया। वह भिक्षुणी के चीवर परिधानों से लिपटी हुई विद्या विहार की एके विनम्र अध्यापिका बनकर रह रही थीं। कोटि कोटि सुवर्ण मुद्राओं की उसकी समस्त संपदा विद्या विहार के कोष में जमा हो गयी थीं। कौशल थे। लेकिन राजनर्तकी का भोगविलास देखने नहीं महासती का पद वंदन करने और उसके चरणों की धूल अपने मस्तक पर चढ़ाने


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