जिसने जीता मन उसने जीता संसार

April 1995

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कठिनाइयों से डर कर यदि हिम्मत हार बैठा जाय तो बात दूसरी है अन्यथा प्राण धारियों की अदम्य जीवनक्षमता इतने प्रबल है कि इतने बुरी से बुरी परिस्थितियों में जीवित ही नहीं फलता फूलता भी रह सकता है उत्तरी ध्रुव पर एस्किमो नामक मनुष्य जाती चिर काल से रहती है, वहां घोर शीत रहती है सदा बर्फ जमी रहती है कृषि तथा वनस्पतियों की कोई सम्भावना नहीं सामान्य मनुष्यों को उपलब्ध होने वाले साधनों में से कोई नहीं जीवित ही नहीं परिपुष्ट ही नहीं सुखी भी है हम अपने को जितना सुखी मानते है वह उससे कम नहीं कुछ अधिक ही सुखी मानते है और संतोष पूर्वक जीवन यापन करते है जरा-सी ठंड हमें परेशान कर देती है पर एस्किमो भोर शीत में आजीवन रहकर भी शीत से प्रभावित नहीं होते है किसी गाँव में एक बालक रहता था। उसने हाथी रेल मोटर आदी भी सवारियाँ चढ़ी थी ऊँट के विषय में उसने सुना था। चढ़ा नहीं था उसकी इच्छा सदैव ऊँट की सवारी करने को हुआ करती थी एक बार वो घर लौट रहा था रास्ते में एक व्यापारी अपने ऊँट को बैठा कर नदी में स्नान करने चला गया ऊँट को विश्राम देने के लिए काठी और नकेल दोनों खोल दी थी। ऊँट देखते ही बालक प्रसन्नता से नाचने लगा वर्षों से अधूरी आस पूरी करने का इससे सुन्दर कहा मिलता? छलाँग लगाई ऊँट के पीठ पर जा बैठा अपने स्वभाव के अनुसार ऊँट एकाएक उठा और रास्ते को भाग चला इसका लड़का घबराया पर अब क्या हो सकता था नकेल थी ही नहीं ऊँट को काबू कैसे करता जिधर जी आया अधर ऊँट भागता बालक की घबराहट भी बढ़ती गई मार्ग में दो पथिक जा रहे थे बालक की घबराहट देखकर उनने पूछा बालक कहा जाओगे? लड़के ने सिसकते हुए जवाब दिया” भाई जाना तो घर था किन्तु अब तो जहाँ ऊँट ले जाना चाहे ले जाए “ इसी बीच वो पेड़ के डाली से टकराया और लहूलुहान होकर भूमि पर जाकर जा गिरा।

बालक की कहानी पढ़ कर लोग मन ही मन उसकी मूर्खता पर हँसेंगे पर आज संसार की स्थिति ठीक उस बालक जैसी है मन के ऊँट पर चढ़ कर उसे बेलगाम छोड़ देने का ही परिणाम है कि आज सर्वत्र अपराध स्वेच्छा चरित्र कला और कुटिलता के दर्शन हो रहे है मन के नियंत्रण में न होने के कारण लोग पारलौकिक जीवन की यथार्थता आवश्यकता और उपयोगिता को भूल कर लौकिक सुख और स्वार्थ की पूर्ति में संलग्न हो गये है की उन्हें भले बुरे अनुचित का ज्ञान भी नहीं रहा।

मनुष्य के शरीर में सभी कुछ महत्त्व का है और तो और नाखून पंजे, उँगली और पाँव, हाथ तक बड़े उपयोगी है, परन्तु मन का महत्त्व सर्वाधिक है। इसकी विलक्षण शक्तियाँ है। मनुष्य का सुखदुःख बंधन और मोक्ष ये सभी मन के आधीन है शास्त्र कार ने कहा है” मन एवं मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयौ” मनुष्यों के बंधन मोक्ष दोनों का मन नहीं है साँसारिक वैभव चाहिए तो उसके भी मन प्रदान करते है और परम सुख, मोक्ष चाहिए तो उसका प्रदाता मन ही है। मनुष्य की सेवा में हर घड़ी मन ताबेदार सेवक की तरह तैयार खड़ा रहता है वह कभी थकता नहीं, कभी वे रुकता नहीं। कभी वृद्ध नहीं होता, सतत् उद्योग का स्वभाव है। इच्छाएँ करते रहना और उनकी पूर्ति के पीछे भागते फिरने में ही उसे आनंद आता है मन की सामर्थ्य अपार है वह सब कुछ कर सकता है। किन्तु उसमें स्वेच्छाचारिता की बुराई भी है वह अनियंत्रित मन नकेल रहित ऊँट की तरह ही मनुष्य को पथ भ्रष्ट करता और घर जीवन लक्ष्य की ओर ले जाने की अपेक्षा इन्द्रिय सुखों बीहड़ में ले जाकर किसी रोग शोक, कलह कुटिलता, कुसंग, कुमार्ग, कुटेव से टकराकर पटक देता है मनुष्य का जन्म जिस उद्देश्य पूर्ति के लिए हुआ उसका स्मरण भी नहीं आता, उलटे ये जीवन भी नारकीय भी बन जाता है।

सारी सिद्धियों का मूल मनः संयम में है। परन्तु वे केवल साधारण पुरुषार्थ से मिल जाने वाली नहीं मन की साधना किसी भी पुरुषार्थ से, योग से बढ़कर है। इसलिए शास्त्रकार ने कहा-जिते जगत केन? मना ही येन” जिसने मन का लिया उसने संसार को जीत लिया।


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