एक दिन कर्म और भावना दोनों इकट्ठे हुए। बात-चीत में विवाद बल पड़ा कि दोनों में कौन बड़ा है। दोनों ही अपनी अपनी बड़ाई बखानने लगे कोई छोटा बनने को तैयार न हुआ। जब विवाद बढ़ा तो निर्णय कराने उन्हें ब्रह्माजी के पास जाना पड़ा।
ब्रह्माजी ने दोनों की बात सुनी और मुस्कुराये उनने कहा-परीक्षा से ही वास्तविकता का पता चलेगा। तुम दोनों आकाश छूने का प्रयत्न करो। जो पहले आकाश छू सकेगा वही बड़ा माना जायेगा।
भावना ने उछाल लगाई तो आकाश तक जा पहुँची। छूने में भी सफल हो गई। पर आकाश की ऊँचाई इतनी अधिक थी कि बेचारी को अधर में ही लटकना पड़ा पैर धरती से बहुत ऊपर थे।
अब कर्म की बारी थी। उसने आकाश तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनानी शुरू कर दीं। कई दिनों वह लगातार लगा भी रहा। पर उत्साह के अभाव में उसे उदासी ने आ घेरा और अपने औजार पटक कर वह सुस्ताने सरोवर के तट पर चला गया।
ब्रह्माजी पता लगाने गये तो देखा कि भावना आधार में लटकी है और कर्म एक घने वृक्ष की छाया में औंधे मुँह पड़ा सुस्ता रहा है उन्होंने दोनों को बुलाकर कहा तुम दोनों ही अकेले अपूर्ण हो। बड़प्पन तभी है जब तुम दोनों एक साथ रहो। उसी में तुम्हारी उपयोगिता भी है।”
आयु सातवाँ वर्ष ही तो निर्धारित की गई थी। उस समय तक बच्चों को गुरुकुल भेज देना पड़ता था। अन्यथा उसे वाव्यसंज्ञक (पतित) कहा जाता और इस अवस्था से लेकर पच्चीस वर्ष तक परिवार से दूर-गुरुकुल में ही वह विभिन्न वय स्थिति और अवस्था के लड़कों के साथ पढ़ता।
इस प्रकार सामूहिक रूप से बच्चों को पालने का प्रथम सत्य परिणाम यह होता था कि बच्चों में परिस्थितिजन्य अहंकार द्वेष समाप्त ही हो जाता। राजा का बेटा, साधारण कर्मचारी के बेटे के साथ पढ़ता और भाई-भाई की तरह सौ से लेकर पाँच सौ बच्चे सामूहिक रूप से पढ़ते उन परिस्थितियों में बच्चे की चेतना सीमित दायरे में ही कैद रह जाने से बच जाती। तथा उसका दृष्टिकोण इतना उदार और इतना विशाल बन जाता कि सारा समाज ही उसे अपने परिवार की तरह लगता। इसी पद्धति से भारतीयों मनीषियों ने वसुधैव कुटुम्बकम् का लक्ष्य अपने सामने रखा हो तो वह केवल आदर्श या अव्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। वरन् यही मानना पड़ेगा कि वे अपने लक्ष्य की ओर सही ढंग से बढ़ रहे थे।
लेकिन खेद है कि हम सामूहिकता की ओर बढ़ने की अपेक्षा विघटन की ओर ही बढ़ रहे है। पचास वर्ष पूर्व अधिकांश परिवार संयुक्त थे। सामूहिकता का एक छोटा ही सही पर रूप तो था और संयुक्त परिवारों में चाचा ताऊ के बच्चों में परस्पर जो स्नेह आत्मीयता ,श्रध्दा तथा त्याग की भावना थी वह आज सगे भाई-भाइयों में भी नहीं है। इसका क्या कारण है? आत्यंतिक स्वार्थपरता और सुविधा साधनों की लालसा ने लोगों को इतना स्वकेंद्रित बना दिया है कि वे अपने अतिरिक्त किसी और की सुख सुविधा का ध्यान ही नहीं रखते है।
बच्चों को जैसे घर में पाला जाता है, वैसे ही परिवार उनके जीवन का केन्द्र बन जाता हैं। न राष्ट्र बनता है और न समाज ही। बच्चों को मिल जाती है तो पर्याप्त है और माता को सुविधा मिल जाती हो तो सुविधा का प्रश्न ही नहीं उठता। बच्चों को जब सामूहिक रूप से बोला जायेगा तो जाने अनजाने उसके जीवन का केन्द्र सारा समाज बनेगा और समाज के सभी वृद्धों का उसी प्रकार ख्याल रहेगा जिस प्रकार कि वर्तमान समय में अपने वृद्ध पिता का रहता हो।
सामूहिकता का सिद्धांत सार्वभौम और सार्वकालिक उपयोगी रहा है। पर आज के समय में वह न केवल उपयोगी वरन् आवश्यक भी हो गया हैं। पथ्य और खानपान का संयम अच्छे स्वास्थ्य के लिये सदैव उपयोगी होता है पर जब रुग्णावस्था में जो उसकी आवश्यकता अनिवार्यता की भूमिका में पहुँच जाती है। इस समय समूचा मानव समाज रुग्णावस्था में ही समझा जाना चाहिए। अशान्ति उद्वेग स्वार्थपरता और संकीर्णता के समय-समय की विकासमान् धारा भी लगभग बीमार है। जिस प्रकार रोग की स्थिति में देख-भाल सतर्कता के स्तर पर अनिवार्य हो जाती है, उसी प्रकार रुग्ण मानवता के साथ बदलती समय धारा में हमें अपनी जीवन पद्धति और समाज व्यवस्था को अनुकूल धारा में ढालने की भी आवश्यकता है।