फूल और काँटा (Kahani)

April 1995

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एक था फूल एक था काँटा। दोनों हरे-भरे उद्यान में आजू–बाजू पल रहे थे। मानों प्रकृति ने उनको यह संदेश देने को नियुक्त किया हो कि इस संसार की बनावट उभयनिष्ठ है, यहाँ सब कुछ सुखद और सौंदर्ययुक्त ही नहीं दुःखद और कुरूपता भी उसका आवश्यक अंग है।

काँटे ने कहा प्यारे दोस्त? तुम्हें भी भगवान ने व्यर्थ ही बनाया कितने कोमल हो तुम कि शीत और ताप के हलके झोंके भी सहन नहीं कर सकते? एक दो दिन खिलकर मुरझा जाने की तुम्हारी इस क्षण भंगुरता पर तरस आता है इधर देखो कितने दिनों से जी रहा हूँ तुम्हारे कितने ही पूर्वजों को इसी डाली पर खिलते और मुरझा जाते मैंने देखा पर मेरा अब तक भी कुछ नहीं बिगड़ा, जानते हो क्यों? इसलिये कि मैं अपना जो कुछ है तुम्हारी तरह लुटाता नहीं जो भी मेरे पास आता है काट खाता हूँ लोग मुझसे भय खाते है, हाथ भी नहीं लगाते। एक तुम हो जो चाहे जब तोड़ ले और मरोड़ कर फेंक दे।

फूल ने कहा बन्धुवर! तुम्हारा कहना यथार्थ है, किंतु मैं क्या करूं। मुझे मरने जीने का तो कभी ध्यान ही नहीं आता उत्सर्ग मेरे जीवन का ध्येय बन गया है। मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन एक पल के लिये ही क्यों न हो पर ऐसा हो जो भी देखे प्यार और प्रसन्नता से गदगद हो जाये। किसी को यह कहने का अवसर न मिले कि भगवान ने मेरे संसार को सुखद और सुन्दर न बनाकर दुःखदायी और कुरूप ही बनाया है।

काँटे का घमण्ड चकनाचूर हो गया उस दिन से उसने ऐंठ छोड़कर फूलों की रक्षा को ही अपना कर्तव्य मान लिया।


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