आत्मज्ञान— मनुष्य की सर्वोपरि उपलब्धि

February 1982

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इसे एक विडंबना ही कहना चाहिए कि मनुष्य बाह्य संसार एवं संबंधित वस्तुओं के विषय में अधिकाधिक जानकारियाँ एकत्रित तो करता रहता है; पर स्वयं अपने विषय में अपरिचित बना रहता है। अपने स्वरूप का बोध न होने तथा सांसारिक आकर्षणों में भटकते रहने से अंततः भटकाव ही हाथ लगता है। जड़प्रकृति की खोज साधन−सुविधाओं की उपलब्धि के लिए आवश्यक है; पर उससे भी अधिक जरूरी है— उनके उपयोगकर्त्ता सत्ता का स्वरूप जानना।

मनुष्य क्या है? जीवन का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है? जीवन के साथ जुड़े संसार एवं प्राप्त विभूतियों का सही उपयोग क्या है? इन प्रश्नों को उपेक्षा के गर्त में डाल देने से एक प्रकार की आत्मविस्मृति छाई रहती है। अंतःकरण के मूर्च्छित स्थिति में जा पहुँचने से जीवन नीति का गंभीर निर्धारण नहीं हो पाता। इंद्रियों की उत्तेजना ही प्रेरणा बनकर रह जाती है। जिस तरह मनुष्येत्तर जीव शरीरेंद्रियो से अभिप्रेरित होकर विभिन्न प्रकार के कर्म करते पेट और प्रजनन की परिधि में चक्कर काटते रहते हैं, उसी प्रकार का जीवनक्रम मनुष्य का भी बन जाता है। लोक-प्रचलित का अनुकरण ही स्वभाव बन जाता है। कटी पतंग और पेड़ से टूटे पत्ते दिशाविहीन स्थिति में इधर−उधर उड़ते और छितराते रहते हैं। जीवन भी मात्र इसी प्रकार दिन काटने के लिए जिया जाता है। उच्चस्तरीय आदर्श सामने न रहने से न तो कोई महत्त्वपूर्ण प्रयास बन पड़ता है और न ही जीवन का वास्तविक आनंद मिल पाता है। भौतिक सुखाकांक्षा में भटकती जीवात्मा अशांति और असंतोष की आग में जलती रहती है। रोने–कलपने में ही हारी−थकी जिंदगी कट जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि मनुष्य को अपनी सत्ता का बोध न होने से जीवन लक्ष्य का निर्धारण भी नहीं होने पाता।

अंतःज्ञान की उपयोगिता−उपादेयता बाह्य ज्ञान की तुलना में कहीं अधिक है। सुख−साधनों की अभिवृद्धि की तरह उपभोगकर्त्ता की विवेकदृष्टि का प्रखर होना आवश्यक है; अन्यथा भौतिक उपलब्धियों का दुरुपयोग ही बन पड़ेगा और उससे अगणित समस्याएँ उत्पन्न होंगी। मोटर अच्छी होना पर्याप्त नहीं है, ड्राइवर यदि अनाड़ी हुआ तो कितने ही संकटों का सामना करना पड़ सकता है। साधनों की कमी रहते हुए भी जीवन लक्ष्य सामने हो तो अभावों में भी सदा प्रसन्न और संतुष्ट रहा जा सकता है, जबकि अंतःविवेक के अभाव में साधनों की प्रचुरता से बंदर के हाथ में तलवार पड़ जाने जैसी स्थिति उत्पन्न होगी; जिसने अपने मालिक की नाक पर बैठी मक्खी को उड़ाने के लिए गर्दन ही उड़ा दी थी।

मनुष्य के लिए खोज का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न कौन-सा हो सकता है, श्वेताश्वतरोपनिषद् का ऋषि यह स्पष्ट करता है—

“किं कारणं ब्रह्म कुतः स्मजाता जीवाम् केन क्वच सम्प्रतिष्ठाः।

अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहेब्रह्म विदो व्यवस्थाम्॥1।1॥”

अर्थात्— हे वेदज्ञ महर्षियों! इस जगत् का प्रधान कारण ‘ब्रह्म’ कौन है? हम सभी किससे उत्पन्न हुए हैं, किससे जी रहे हैं तथा किसमें प्रतिष्ठित हैं? साथ ही किसके अधीन रहकर हम लोग सुख और दुःख का अनुभव करते हैं।

इस प्रश्न के उत्तर की अर्थात् आत्मज्ञान की आवश्यकता यदि अनुभव की जा सके तो सर्वप्रथम यह विचार करना होगा— हम कौन हैं? और क्यों जी रहे हैं? इस तथ्य पर आत्मवेत्ता ऋषियों ने गंभीर चिंतन एवं अनुसंधान से जो निष्कर्ष निकाले थे, वे बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं तथा आत्मानुसंधान में प्रवृत्त होने के इच्छुक जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करने में सक्षम है।

अणु की सत्ता की व्याख्या— विवेचना करने वाले वैज्ञानिक उसे सुविस्तृत पदार्थ वैभव का एक छोटा-सा अविच्छिन्न घटक मानते हैं। आत्मा क्या है?—  परमात्म सत्ता का एक छोटा-सा अंश। अणु की अपनी स्वतंत्र सत्ता लगती भर है, पर जिस ऊर्जा आवेश के कारण उसका अस्तित्व बना है तथा क्रियाकलाप चल रहा है, वह व्यापक ऊर्जा तत्त्व से भिन्न नहीं है। एक ही सूर्य की अनंत किरणें समस्त संसार में फैली रहती हैं। एक ही समुद्र में अनेकों लहरें उठती रहती हैं। ऐसा देखने पर प्रतीत होता है कि किरणों एवं लहरों की स्वतन्त्र सत्ता है, जो परस्पर एकदूसरे से भिन्न है। पर सत्य की गहराई में जाने पर पता चलता है कि भिन्नता कृत्रिम और एकता वास्तविक है। अलग−अलग बर्तनों में आकाश की कितनी ही स्वतंत्र सत्ताएँ दिखाई पड़ती हैं; पर तथ्यतः उनका अस्तित्व निखिल आकाशीय सत्ता से भिन्न नहीं है। पानी में अनेकों बुलबुले उठते और विलीन होते रहते है। बहती धारा में कितने ही भँवर पड़ते हैं। दिखने में बुलबुले और भँवर अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्रकट कर रहे होते हैं; पर यथार्थ में वे प्रवाहमान जलधारा की सामयिक हलचलें मात्र हैं। जीवात्मा की स्वतंत्र सत्ता दिखती भर है; पर उसका अस्तित्व एवं स्वरूप विराट चेतना का ही एक अंश है।

इस निष्कर्ष के आधार पर ही अध्यात्मवेत्ताओं ने उद्घोष किया कि— “हम विश्व चेतना के एक अंश मात्र हैं। समष्टि ही आधारभूत सत्ता है। हम उसकी छोटी चिनगारी भर हैं। व्यष्टि और समष्टि की एकता शाश्वत है, पृथकता कृत्रिम। सबमें अपने को और अपने में सबको समाया हुआ, देखा, समझा और माना जाए। सबके हित में अपना हित सोचा जाए। परस्पर एकदूसरे के सुख−दुःख को अपना ही सुख−दुःख माना जाय। सबका उत्थान अपना उत्थान और सबका पतन अपना पतन, यह मानकर चलने से सीमित परिधि में सुखी रहने की क्षुद्रता घटती है तथा आत्मविस्तार की प्रेरणा उठती है। सीमा-संकीर्णता से निकलने से व्यक्तिवाद पर अवलंबित स्वार्थपरता घटती है। मनुष्य विराट समाज का अपने को एक अभिन्न अंग मानने लगता है। सामूहिक हित सोचने और सामूहिक गतिविधियाँ अपनाने में ही उसे आनंद आता है।

अपनापन हर किसी को प्यारा लगता है। यह आत्मीयता जिस भी पदार्थ अथवा प्राणी के साथ जुड़ जाती है वही परम प्रिय अपने लगते हैं। अपनेपन का दायरा जितना ही छोटा होगा, आत्मिक दृष्टि से मनुष्य उतना ही पिछड़ा माना जाएगा। अपने शरीर और परिवार तक सीमित रहने वाला व्यक्ति आत्मविस्तार का आनंद नहीं ले पाता। छोटा-सा क्षेत्र ही अपना बनकर रह जाता है। यह क्षेत्र जितना विस्तृत होगा उतनी ही आत्मीयता की परिधि भी बढ़ती जाएगी। सभी अपने लगेंगे और अपना परिवार अत्यंत सुविस्तृत बन जायेगा। किस व्यक्ति की कितनी आत्मिक प्रगति हुई, इसका अनुमान इस आधार पर लगाया जा सकता है कि उसने किस सीमा तक आत्मविस्तार किया है।

आत्मा-परमात्मा की, जीव-ब्रह्म की, व्यष्टि-समष्टि की, एकता का दूसरा निष्कर्ष है कि अंशों के सभी गुण सूक्ष्म रूप से अंशी में विद्यमान रहते हैं। अस्तु परमात्मा की समस्त विशेषताएँ एवं सम्भावनाएँ जीवात्मा में मौजूद है। साधना द्वारा उन्हें जगाया एवं विकसित किया जा सकता है। आत्मा के परमात्मा स्तर तक जा पहुँचने की पूरी−पूरी संभावना है। चिनगारी में दावानल बनने की सभी विशेषताएँ मौजूद रहती हैं। विशाल वृक्ष का ढाँचा बीज के भीतर सन्निहित है। नन्हें से शुक्राणु में प्राणी की आकृति एवं प्रकृति का अधिकांश स्वरूप समाहित रहता है; जो नेत्रों से दिखाई नहीं पड़ता। छोटे−से परमाणु में पूरे सौरमंडल का नक्शा होता है। इस तथ्य से यह बात स्पष्ट है कि, जीव की मूलसत्ता ईश्वर के ही समतुल्य है। इस संभावना को साकार करना मनुष्य जीवन में संभव है। मनुष्य के रूप में शरीर धारण करने का सुअवसर भी इसीलिए मिला है कि वह अपने महान लक्ष्य को समझे तथा पूर्णता की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करे। परमात्मा द्वारा दिए गए मनुष्य जीवनरूपी बहुमूल्य उपहार की सार्थकता पूर्णता की प्राप्ति−आत्मज्ञान की उपलब्धि में ही सन्निहित है।

इस परम लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हुए अनुकरणीय आदर्श एवं पवित्रमय देव जीवन जिया जाए और अपनी शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक उपलब्धियों में से न्यूनतम अपने लिए तथा अधिकतम परमार्थ प्रयोजनों में उपयोग किया जाए, यही है ईश्वरप्रदत्त सुरदुर्लभ मानव जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग। अन्य जीवधारियों की तुलना में मनुष्य को अतिरिक्त बुद्धिवैभव परमात्मा ने दिया है। ऐसा पक्षपात उसने क्यों किया? इसका उत्तर मनुष्य जीवन के लक्ष्य को समझने पर स्पष्ट हो जाता है। यदि मनुष्य प्राप्त अतिरिक्त अनुदान को व्यक्तिगत संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करने में प्रयुक्त करता है तो उस उपहार का दुरुपयोग हुआ समझा जाना चाहिए।

मन और शरीर जीवनरूपी रथ के दो पहिये— दो घोड़े हैं। अन्तःकरण की आस्था एवं आकांक्षा के अनुरूप यह दोनों स्वामीभक्त सेवक की भाँति गतिशील रहते हैं। शरीर जड़ है, उसकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता अथवा इच्छा नहीं है। इंद्रियों भी पंचतत्त्वों से बनी हैं। मन भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं सोचता। अन्तःकरण से जैसी भी प्रेरणाएँ उभरती हैं, वह उसी के अनुरूप विचारों का ताना−बाना बुनता है। अन्तःप्रेरणा के निर्देशों को पूरा करना मात्र उसका काम है। सज्जनों का चिंतन और कर्त्तव्य एक तरह का होता है और दुर्जनों का दूसरी तरह का। इन दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियों में शरीर और मन सर्वथा निर्दोष होते हैं। दोषी अन्तःकरण होता है, जिसमें जमे संस्कार भली−बुरी प्रेरणाएँ उभारने का कारण बनते हैं।

आत्मज्ञान का अर्थ है— अंतरात्मा के गहन स्तर को स्पर्श करना। कुसंस्कारों का परिशोधन करना तथा यह आस्था एवं अनुभूति उत्पन्न करना कि हम सत्−चित−आनंद परमात्मसत्ता के अविच्छिन्न अंग है। पूर्णता हमारा लक्ष्य है। अध्यात्म की भूमिका में जगा हुआ जीवात्मा संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि को लांघकर सब में अपने को और अपने में सब को देखता है। इसलिए वह जो कुछ भी करता एवं सोचता है वह व्यापक लोकहित मानव मात्र के कल्याण को ध्यान में रखकर उसके हर क्रियाकलाप में आदर्शवादिता ही उभरती, छलकती दिखाई पड़ती है। ऐसे आत्मज्ञानी अभावों एवं संकटों में रहते हुए भी अंतःकरण में सदा असीम आनंद एवं संतोष की अनुभूति करते रहते हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जिसके विषय में वृहदारण्यक उपनिषद् का ऋषि कहता है— "आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्।"

अर्थात्—वह एक ऐसी पूर्ण चैतन्य आनंदमय सत्ता है, जिसके ज्ञान से सब कुछ जान लिया जाता है। अर्थात् कुछ भी जानने को शेष नहीं रहता।

“य एवं वेदाहं ब्रह्मा स्मीति स इदं सर्वं भवति”

अर्थात्–आत्मवेत्ता सर्व हो जाता है, क्योंकि दृष्टा का अनुभव ही विश्व का विस्तार है। निद्रा से टूटने पर स्वप्न की स्थिति मिट जाती है। आत्मज्ञान के प्रकाश में यह अनुभव होता है कि, संसार की सत्ता आत्मा के बाहर नहीं है। भगवान बुद्ध आत्मज्ञान होते ही दिव्यमानव बन गए। यह अन्तःजागरण का ही प्रतिफल था, जिसके कारण उन्हें सबमें आत्मसत्ता का प्रकाश दिखाई पड़ने लगा।

आत्मज्ञान की चरम उपलब्धि के लिए तत्त्वदर्शन को समझना जितना आवश्यक है उतना ही साधना का मार्गावलंबन भी अनिवार्य है।


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