निष्काम कर्मयोग की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि

February 1982

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कर्म की धुरी पर ही सृष्टि का गतिचक्र अविराम चक्कर काट रहा है। संसार का दृश्य स्वरूप इस गति प्रक्रिया पर अवलंबित है। जड़ परमाणु एक सुनिश्चित परिकर में गति करते और अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं और चेतन-जीव दूसरे तरह की हलचल में अपने को नियोजित रखते हैं। कर्म किए बिना यहाँ कोई नहीं रह सकता। जीवित रहने के लिए कर्म आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। अविकसित मनुष्येत्तर जीवों में यह प्रकृति प्रेरणा से परिचालित है। शिश्नोदर जीवन चक्र तक सीमित है। उदरपूर्ति और कामतुष्टि जैसे दो सीमित प्रयोजनों तक उनके सुख और आनंद की अनुभूतियाँ परिसीमित हैं। इसके इर्द-गिर्द ही उनका समूचा जीवन परिभ्रमण करता रहता और एक दिन काल के गर्भ में समा जाता है। अस्तु उनके लिए सुख−दुःख की उच्चस्तरीय वैचारिक और बंधनमुक्ति की आत्मिक अनुभूतियाँ निरर्थक हैं।

मानसिक और बौद्धिक दृष्टि से सुविकसित होने के कारण मनुष्य ऐंद्रिय सुख की निम्न परिधि में नहीं रह सकता। उसे उच्चस्तरीय और शाश्वत आनंद की खोज है, जिसके लिए वह सांसारिक मृगमरीचिका में अज्ञानवश भटकाता रहता है। ऋषियों ने इस भटकाव से बचने और जीवनमुक्ति के शाश्वत आनंद की प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग, भक्तियोग अथवा कर्मयोग का मार्ग अपनाने का निर्देश दिया है। कर्मयोग के पथ को राजमार्ग इसलिए माना गया है कि यह हर तरह की मनःस्थिति के व्यक्तियों एवं आज की परिस्थितियों के अनुकूल है। भटकाव की गुंजाइश कम है, जबकि ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग के मार्ग पर चलने के लिए एक निश्चित प्रकार की मनःस्थिति का होना अनिवार्य है। कर्मयोग सभी के लिए इसलिए अधिक उपयुक्त है; क्योंकि मनुष्य जीवनपर्यन्त किसी न किसी रूप में कर्मों से जुड़ा रहता है, उनसे विरत रहना संभव नहीं है। अस्तु यदि कर्मयोगयुक्त जीवन शक्य हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का आनंद लेना हर किसी के लिए संभव है।

‘कर्म’ आत्मा और परमात्मा को एकाकार कर देने वाला ‘योग’ तब बन जाता है जब वह निष्काम हो। निष्काम क्यों, कामना से युक्त क्यों नहीं? क्योंकि मन की कामना ही भवबंधनों का कारण है। गीताकार ने इसी सत्य का रहस्योद्घाटन इस प्रकार किया है— 'मन एवं मनुष्याणाम् कारणं बंध मोक्षयोः।' अर्थात्— मन ही मनुष्य के बंधन या मुक्ति का कारण है।’ कामनायुक्त कर्म जहाँ बंधनों में बाँधता है, निष्काम कर्म ‘मुक्ति ‘ का साधन बन जाता है। एक क्षण के लिए भी कर्म से विरत रहना संभव नहीं है, साथ ही कर्म भवबंधनों में भी जकड़ता है, फिर संसार में किस तरह रहा जाए? जीवनमुक्ति का आनंद कैसे उठाया जाए? यजुर्वेद का ऋषि इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहता है— 'तेन त्यक्तेन भुंजीथाः’ अर्थात्— संसार को भोगे; परंतु निर्लिप्त होकर, निस्संग होकर, निष्काम भाव से।

निष्काम कर्मयोग के पथ पर चलने वाला साधक अपनी समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं को परमात्मा को समर्पित कर देता है। कर्मफल के प्रति उसकी आसक्ति नहीं रहती। अपने कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति वह तत्पर और सजग रहता है। उनके निर्वाह में संतोष की अनुभूति करता है। शरीर से कर्म और मन से चिंतन करते हुए भी वह सांसारिक पदार्थों एवं व्यक्तियों के प्रति निरासक्त होता है।

अर्जुन को संबोधित कर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गंत्यक्त्वा धनंजय।

सिद्धयासिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योगउच्यते॥

अर्थात — "हे अर्जुन! आसक्ति छोड़कर सिद्धि और असिद्धि के विषय में समबुद्धि रखकर, योग में स्थिर होकर कर्म कर। समत्व को ही योग कहते हैं।”

‘समत्व’ का अर्थ हुआ समान भाव, समभाववृत्ति की एकरूपता, चित्तवृत्तियों की चंचलता पर निरोध। जिसे पातंजलि ने “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः” करके समझाया है, उसे भगवान ने यहाँ एक ही शब्द ‘समत्व’ में गूँथ दिया है। हर पल चित्त की चंचलता कर्मों के करने में बाधा डालती है। सुख−दुख, जय−पराजय, हानि−लाभ के द्वंद्व मानसपटल पर सतत उभरते हैं। जय होने से घमंड होता है और पराजय से व्यक्ति हताश हो जाता है। परिस्थितियों मे जो मनःस्थिति को प्रभावित न होने दे, वह समत्व योग की ही उपासना करता है। बाह्य परिस्थिति जैसी भी बने, जिसकी वृत्ति में चंचलता नहीं है, वही कुछ कर्त्तव्यपालन कर सकते हैं।

चित्त की चंचलता के कई कारणों में अनुकूल भोग पाने की इच्छा भी एक प्रमुख कारण है। मनोवृत्ति की यही चंचलता असंयम को जन्म देकर उसे पथ भ्रष्ट कर देती है। समत्व योग का उपासक वस्तुतः निष्काम कर्मयोगी के साथ चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण रखने वाला कठोर साधक भी है जो पल−पल अपनी मनःस्थिति पर पैनी नजर रखता है। सिद्धि हो चाहे असिद्धि, हम जीवन-क्षेत्र में सफल हों अथवा असफल, कभी भी अपनी समस्वरता पर उसका प्रभाव न पड़ने देंगे, यही साधक का लक्ष्य होता है।

इसी श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है— 'संग व्यक्त्वा’ अर्थात फल की आसक्ति भी त्यागी जाए। वही मानव आमंत्रित दुर्बुद्धिजन्य आपत्तियाँ हैं। संग से ही विषयासक्ति की कामना, कामना से क्रोध, क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से भ्रम व भ्रम से बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि का नाश ही मनुष्य के नाश का कारण है। इसीलिए कहा गया है कि—

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोतियः।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्र मिवाम्भसा॥

“जो मनुष्य आसक्ति छोड़कर ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्मों को करता है, वह पानी में कमलपत्र की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता।” इसीलिए फलेच्छा का त्याग करके किए गए कर्म ही सात्विक कहे जाते हैं। ऐसा व्यक्ति ही योगी; कर्त्तव्यपरायण साधक कहा जा सकता है।

ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म बहुत अनिवार्य है। साधारण मनुष्य जो कर्म करता है, वह स्वार्थवश करता है। सकाम कर्म करने वाला मनुष्य अपने अंश, रूप, आत्मा को प्रधान और सर्वव्यापी परमात्मा को गौण मानता है। किरण को प्रधान मानना और सूर्य का विचार तक न करना, अज्ञान का ही घोतक है, इसीलिए इस अज्ञान के निवारण तथा ब्रह्मार्पण बुद्धि से कार्य करने से ज्ञान की प्राप्ति कराने वाले इस ‘समत्व योग’ को ‘निष्काम कर्मयोग’ के अलावा ‘बुद्धियोग’ भी कहा गया है। अज्ञान ही सारे अभावों व अनास्था का कारण है। यह भावना चली जाए तो संकीर्ण स्वार्थपरता में लिप्त; यह जीवात्मा भवबंधन से निकले और कुछ विश्वात्मा के लिए भी सोचे; पर आरंभ वहीं से होता है, जिसे भगवान् ‘संगं त्यक्त्वा’ अर्थात अनासक्ति कहते हैं।

कर्मफल के प्रति अनासक्ति का होना इसलिए भी आवश्यक है कि मनुष्य का अधिकार नहीं है। यह सच है कि कर्मों का फल अपने निश्चित समय पर मिलता है, पर यह भी उतना ही सत्य है कि यह प्रक्रिया किसी अदृश्य के हाथों संचालित है। कई बार कर्मफल प्रक्रिया में व्यतिरेक पड़ते भी दिखाई पड़ता है। एक निश्चित प्रकार के कर्म करते हुए भी उसका परिणाम उलटा देखकर मन में कर्मफल के सिद्धांत को सही रूप से न समझने के कारण ही होता है। प्रत्यक्ष जीवन और उससे जुड़ी भली-बुरी उपलब्धियाँ मात्र इसी जीवन की ही नहीं जन्म−जन्मांतरों के संचित कर्मों का परिणाम होती हैं। कितनी ही बार अच्छे कर्म करते हुए भी उनके परिणाम अनुकूल नहीं निकलते और अप्रत्याशित विघ्न−बाधाएँ ऐसे आकर अड़ जाती हैं, जिन्हें हटाने में मानवी पुरुषार्थ असमर्थ सिद्ध होता है। यह वस्तुतः अदृश्य उन कर्मों के फल होते हैं जो पिछले जन्मों में किए गए होते हैं। जो कर्मफल के सुनिश्चित विधान के अनुसार कालांतर में रोग−शोकों के रूप में प्रकट होते दिखाई देते हैं; अस्तु कर्मफल का सिद्धांत अक्षरशः सत्य होते हुए भी उसमें आसक्ति का न होना ही श्रेयष्कर है। फलासक्ति होने और तदनुरूप परिणाम न निकलने से भारी निराशा होती है।

भागवत गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्मयोग का उपदेश देते हुए कहते हैं— "जो सुख−दुःख, सर्दी−गर्मी, लाभ−हानि, जीत−हार, यश−अपयश, जीवन−मरण, भूत−भविष्य की चिंता न करके मात्र अपने कर्त्तव्य−कर्म में निरत रहता है वही सच्चा ‘निष्काम−कर्मयोगी है।” कर्मयोगी इस सत्य से भली-भाँति परिचित होता है कि सांसारिक द्वंद्व तो एक के बाद एक आते हैं और आते रहेंगे। इनका प्रभाव क्षणिक और अस्थाई तथा मात्र नाशवान शरीर तक सीमित है। स्थाई शाश्वत तो आत्मा है, उसका उत्थान और पतन ही मनुष्य का वास्तविक उत्थान और पतन है। अस्तु जो भी कार्य किए जाए वे आत्मोन्नति को ध्यान में रखकर ही किए जाए।

अनासक्त कर्मयोग के संबंध में कितने ही व्यक्तियों के मस्तिष्क में अनेकों प्रकार की भ्रांतियाँ बैठी हुई हैं। कितने ही अतिवादी यह कहते हैं कि “हम जो भी काम करते हैं, वह वास्तव में हमसे कराए जाते हैं और वह कराने वाला परमात्मा है। हमारे द्वारा किया जाने वाला काम अच्छा है या बुरा इसकी न तो हमें चिंता करनी चाहिए और न ही अपने ऊपर उत्तरदायित्व लेना चाहिए। सबके लिए जिम्मेदार परमात्मा है।” इस भ्रांतियुक्त धारणा के कारण मनुष्य कर्म-अकर्म के बीच अंतर नहीं करता और दोनों ही में प्रवृत्त होता है। ऐसे में मन को अपनी निम्नगामी प्रवृत्तियों को तुष्ट करने की खुली छूट मिल जाती है; फलतः पतन के गर्त में गिरता चला जाता है।

सृष्टि का नियामक, संचालक होते हुए भी परमात्मा ने मनुष्य को अतिरिक्त रूप से विवेक-बुद्धि देकर उसे कर्मों का अधिष्ठाता बनाया है। उसे कर्म करने की पूरी−पूरी छूट दे रखी है। चाहे तो वह सत्कर्म का मार्ग अपनाकर आत्मिक-प्रगति की ओर बढ़ सकता है अथवा दुष्कर्मों में प्रवृत्त होकर अपनी अवनति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। भले−बुरे कर्मों के लिए इस प्रकार पूर्ण उत्तरदायी मनुष्य ही है, न कि परमात्मा। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि कर्मों के लिए प्रेरणाएँ परमात्मा से मिलती हैं तो इस सत्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ से युक्त परमात्मा कभी मनुष्य को दुष्कर्म करने की प्रेरणा देगा। ऐसी प्रेरणाएँ अपने ही मन की उपज होती हैं, उस महानसत्ता का प्रतीक— प्रतिनिधि आत्मा के रूप में अपने भीतर बैठा है, जो सदा उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ ही संप्रेषित करता है; पर मन द्वारा उनकी उपेक्षा−अवहेलना होने से वे व्यवहार में नहीं उतर पातीं। मन को अपेक्षा यदि सचमुच ही अपनी गतिविधियों को आत्मप्रेरणा के अनुरूप परिचालित किया जाए तो कभी दुष्कर्मों की ओर बढ़ने का अवसर ही न प्रस्तुत हो। अस्तु कर्माकम का दायित्व अपने ऊपर न मानकर परमात्मा पर मानना अनासक्त कर्मयोग का गलत अर्थ लगाना है।

अनासक्त कर्मयोग शब्द स्वयं भी अपने वास्तविक आशय को प्रकट करता है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है— अनासक्त और कर्मयोग। अनासक्ति का अर्थ यह है कि राग न रखना। कोई भी छोटा अथवा बड़ा काम क्यों न किया जाए उसके प्रति कर्त्तव्य का अहंकार न जोड़ा जाए। “पापमूल-अभिमान”— अहंकार को सभी पापों की जड़ माना गया है। अहंकार की उत्पत्ति आसक्ति से होती है। दूसरा शब्द है– कर्मयोग। गीता इसकी व्याख्या इस प्रकार करती है— ”योगः कर्मसु कौशलम्”— कर्म में कुशलता ही योग है। कार्यकुशल वही हो सकता है जिसे उचित-अनुचित कर्मों के बीच स्पष्ट अंतर का बोध हो। कुशल शब्द के अंतर्गत 'सत्यं शिवं सुंदरम्' का भाव प्रवाहित है। इसलिए कार्यकुशलता में अशुभ कर्मों के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। अनासक्त कर्मयोग का वास्तविक तात्पर्य यह है कि किसी भी काम को पूरी कुशलता के साथ कर्त्तापन का अभिमान छोड़कर किया जाए और उसके फल के प्रति निर्लिप्त— निस्पृह रहा जाए। निष्काम कर्मयोग के तत्त्वदर्शन को हृदयंगम करने और इस राजमार्ग का अवलंबन लेकर साधक संसार में रहते हुए भी स्वर्गमुक्ति का उच्चस्तरीय आनंद प्राप्त कर सकता है।


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