सर्वतोमुखी प्रगति की सरल साधना

February 1982

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प्रगति-पथ पर चलते हुए दो कदम बढ़ाने पढ़ते हैं। पिछला एक पैर जिस जगह पर था उसे छोड़ता है और दूसरा जहाँ था उसे पीछे छोड़कर स्वयं आगे बढ़ता है। यह क्रम दूसरे को भी अपनाना पड़ता है। आगे बढ़ने के लिए पिछला छोड़ना पड़ता है, छोड़ने के बाद साथी से आगे निकल जाने का प्रयास करना होता है। यही सामान्य यात्रा में भी होता है और यही जीवनलक्ष्य की प्रगतियात्रा में भी करना होता है।

आत्मोत्कर्ष की दिशा में अग्रसर होने वाले को दो कदम बढ़ाने पड़ते हैं। एक वह जिसमें पूर्वजन्मों की पिछड़ी योनियों में संचित हुए उन कुसंस्कारों का परिमार्जन करना होता है। जो उन परिस्थितियों में भले ही उपयुक्त रहे होंगे, पर मानवी कलेवर में प्रवेश करने के उपरांत वे अनावश्यक ही बन जाते हैं। गरिमा की दृष्टि से ओछे भी जान पड़ते हैं और अपनाए रहने पर हानिकारक भी सिद्ध होते हैं। छोटे बच्चे की पोशाक बड़े होने पर बेकार हो जाती है। कोई उसी को पहने रहने का आग्रह करे तो न केवल उपहासास्पद ही बनेगा; वरन् ताल-मेल बिठाने में भारी अड़चन भी अनुभव करेगा; जबरदस्ती करने पर मुसीबत में भी फँसेगा। पशु−पक्षी निर्द्वंद होकर नंगे विचरते हैं जहाँ चाहे बिना किसी प्रतिबंध अनुशासन के मल−मूत्र भी त्यागते हैं; पर वैसा करना मनुष्य के लिए अशोभनीय है। वह जब उन योनियों में रहा होगा तब उसे प्रवृत्तियाँ सहज लगती थी और अभ्यस्त थी; पर अब उनके लिए आग्रह करना अबुद्धिमत्तापूर्ण ही माना जाएगा। उन्हें छोड़ने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

न केवल पशु और मनुष्य के बीच भारी अंतर पड़ता है; वरन् मनुष्य की अविकसित और विकसित स्थिति में भी ऐसा ही फर्क पड़ जाता है। बच्चे जैसा स्वेच्छाचार बरतते हैं, वैसी अनुशासनहीनता बड़े होने पर नहीं चल सकती। बचपन और प्रौढ़ता न केवल आयु के हिसाब से आँकी जाती है; वरन् स्तर भी एक कसौटी है। अनगढ़ कुसंस्कारी, लालची, मोहग्रसित, निष्ठुर, कृपण, संकीर्ण, स्वार्थी प्रकृति के व्यक्ति किसी भी आयु के क्यों न हों अनगढ़, अविकसित, बचकाने ही माने जाएंगे। ऐसे ही लोग ऐसी भूलें करते हैं, कुचेष्टाएँ बरतते हैं, जिन्हें अनैतिक अवांछनीय कहा जाए। पाप-कर्मों का इसी स्थिति में उभार बाहुल्य रहता है। आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने वालों काे यह पिछला कदम उस स्थान से हटाना पड़ता है, जहाँ वह जमा हुआ था। इसे परिशोधन-परिमार्जन भी कह सकते हैं।

दीवार चुनने से पूर्व नींव खोदनी पड़ती है। पोशाक सीने का प्रथम चरण काटना है, दूसरा सीना। बीज बाेने से पहले खेत की जुताई होती है। उपकरण ढालने से पहले धातु को गलाना पड़ता है। सरकस के कलाकार अच्छा सम्मान और वेतन पाते हैं, पर इससे पहले उनकी अच्छी खासी कुटाई−पिटाई होती है। पकवान को पहले चूल्हे पर अग्नि परीक्षा देनी होती है। रोगग्रस्त को कड़ुई औषधि पीने, सुई चुभने, आपरेशन की मेज पर लेटने जैसी नई आफतें ओढ़नी पड़ती हैं। इसे पिछला पैर उठाना कह सकते हैं। वाल्मीकि को डाकू से ऋषि बनने के मध्यांतर में कठोर तप करना पड़ा था। इतिहास में ऐसे अगणित व्यक्तित्वों का उल्लेख है जो बहुत समय तक गई−गुजरी स्थिति में रहे अथवा हेय, निंदनीय जीवन जीते रहे; इसके उपरांत पलटा खाया तो कुछ से कुछ हो गए। इन परिवर्तनों की एक मध्य बेला भी रही है, उसमें उन्हें अभ्यस्त कुसंस्कारों से जूझना पड़ा है, साथ ही परिष्कृत जीवनचर्या अपनाने के लिए जिस अभिनव शासन एवं कठोर अनुशासन की आवश्यकता पड़ती है उसे भी जुटाना पड़ा है।

इन दो मोर्चों पर एक साथ लड़ने की प्रक्रिया को तपश्चर्या कहते हैं। महान परिवर्तनों में हर मध्यांतर का यही स्वरूप रहा है, उसको असुविधा भी होती है, कष्ट भी होता है और एक अच्छे−खासे अंतरंग एवं बहिरंग विग्रह का सामना करना पड़ता है। अशुद्ध धातुओं का परिशोधन और उनका उपयोगी उपकरणों में परिवर्तन भट्टी की प्रचंड ऊष्मा ही संपन्न कर सकती है। बंधनग्रस्त भ्रूण को उन्मुक्त वातावरण में गतिशील होने का अवसर मिले, इसके लिए प्रसवपीड़ा की कष्टसाध्य प्रक्रिया में से गुजरने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। जननी की तरह बालक को भी भयंकर त्रास सहना पड़ता है, तभी दोनों अपने−अपने स्तर के लाभ उठा पाते हैं। गर्भवती को पुत्रवती होने का सौभाग्य मिलता है और उदरस्थ भ्रूण एक गांठ के रूप में न रहकर खुले वातावरण में साँस लेता है; हाथ-पैर चलाता देखा जाता है। यह सुअवसर देने में प्रसवपीड़ा का स्वरूप कष्टकर होते हुए भी उसे सफल करना ही होता है।

तपश्चर्या का दूसरा पक्ष है— प्रगति के लिए पूर्वाभ्यास। इसे परिष्कार कह सकते हैं। प्रत्येक दुर्बल को सबल बनने के लिए व्यायामशाला में निर्धारित कसरतें करनी होती हैं। सभी जानते हैं कि अखाड़े की उठक−पटक कितना दबाव डालती है, कितनी चोटें सहने को विवश करती है। आग की तपन सहनकर सामान्य-सा पानी ऐसा सशक्त भाप बनता है, जिससे रेल का इंजन तूफानी गति से दौड़ सके। कच्ची मिट्टी की ईंटें भट्टे में लगने के उपरांत पत्थर जैसी कठोर, सुंदर एवं चिरस्थाई बन जाती हैं। यह प्रगति−पथ पर अग्रसर होते समय अपनाया जाने वाला दुस्साहस है। इसी रीति−नीति को अपनाकर सामान्यजन महामानव बनते रहे हैं। ऐसे लोगों को आत्मानुशासन— त्याग-बलिदान करना पड़ता है और लोकहित में परमार्थपरायण रहकर अनेकानेक असुविधाओं का सामना करना पड़ा है। इस परीक्षा में से गुजरे बिना किसी की प्रामाणिकता एवं विशिष्टता परखी भी तो नहीं जा सकती। आदर्शों के लिए कष्ट सहने वाले तपस्वी ही जन सम्मान पाते हैं। महत्त्वपूर्ण कार्य एवं पद उन्हीं के हाथों सौंपे जाते हैं। कष्ट से बचते रहने और बातों के छप्पर तानकर वरिष्ठता झटक लेने वाले प्रायः निराश, खाली हाथ ही बने रहते हैं। परखें बिना सिक्के तक को कोई लेता नहीं। खोटी चवन्नी देने वाले के सिर पर ही मार दी जाती है। आदर्शों की बकवास का कोई महत्त्व नहीं, उनके प्रति किसकी निष्ठा है इसकी जाँच−पड़ताल एक ही आधार पर की जाती है कि उच्चस्तरीय प्रतिपादन के निमित्त कौन कितनी कठिनाई सहन करने के लिए स्वेच्छापूर्वक अग्रगामी बना। तप-साधना का सिद्धांत यही है। प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए आदर्शवादी त्याग−बलिदान करने की माँग पूरी करनी होती है। जीवनचर्या को सन्निहित सिद्धांतों के सहारे अधिकाधिक पवित्र प्रखर एवं परिष्कृत करने का न केवल संकल्प करना पड़ता है; वरन् उसे निष्ठापूर्वक निभाना भी होता है।

सद्गुणों का संवर्धन इस बात की पक्की गारंटी है कि कुछ अपवादों को छोड़कर संपर्क-क्षेत्र में सम्मान बढ़ेगा और सहयोग मिलेगा। आए दिन क्लेश-विग्रहों में परिस्थितियों की प्रतिकूलता ही कारण प्रतीत होती है; पर वस्तुतः वैसा है नहीं। अपनी ही मनःस्थिति दोष−दुर्गुणों से भरी होती है तो सामने वाले भी तदनुरूप अवांछनीय प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं; फलतः असहयोग— उपेक्षा के वातावरण पग−पग पर असमंजस खड़े होते हैं। कई बातों से उग्र प्रतिक्रियाएँ भी होती हैं और मार-काट जैसे झंझट भी खड़े हो जाते हैं। यों इनमें सर्वथा अपना ही दोष नहीं होता। संसार में भरी हुई दुष्टता भी कम त्रासदायक नहीं होती, फिर भी इतना तो है ही कि आक्रमणों से सही एवं साहसपूर्ण तरीकों से निपटने में न्यूनतम हानि उठानी पड़ती है। कम से कम असंतुलनजन्य त्रास से तो बचाव हो ही जाता है जो कि स्वनिर्मित होने पर भी दूसरों द्वारा किए गए आक्रमण जितना ही हानिकारक होता है।

आत्मानुशासन बरतने वाले अपनी क्षमताओं को अवांछनीयताओं में नष्ट−भ्रष्ट होने से बचाकर उन्हें सत्प्रयोजनों में लगाते और उच्चस्तरीय योजनाओं में समाहित किए रहते हैं; फलतः अपनाई गई दिशा में आशाजनक सफलता मिलती चलती है। ऐसी सफलताएँ बहुधा आश्चर्यजनक होती हैं और सामान्यजन उन्हें दैवी वरदान जैसा मानने लगते हैं; जबकि वस्तुतः वे उपलब्धियाँ अपने ही सद्गुणों की प्रतिक्रिया होती हैं।


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