‘योग-साधना’ शब्द योग एवं साधना दो से मिलकर बना है। योग का अर्थ होता है— जुड़ना एवं साधना अर्थात नियंत्रण में कर लेना— मजबूती से अपनी पकड़ में ले लेना। किसे जोड़ना, किसे जुड़ना व किसे नियंत्रण में लेना, इनके ठीक तरह न समझ पाने के अज्ञान के कारण ही इस क्षेत्र में नाना प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हैं। इसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में एक समस्या मानकर चला जाए तो चमत्कार–सिद्धियों संबंधी मान्यताओं का जो अनाधिकार प्रवेश इस क्षेत्र में गलत रूप में हो गया है, उससे स्वयं बचा व अन्यों को बचाया जा सकता है।
योग न तो आसन है, न प्राणायाम, न ही एकाग्रता। यह तो एक भावपरक भूमिका है, जिसमें व्यक्ति को अपनी सत्ता का समर्पण, समष्टि में करना होता है। आदर्शों से भरी ब्रह्मचेतना ही ‘उपास्य ब्रह्म’ है, जो जीव से मिलने को आतुर है। व्यक्तिवादी संकीर्णता से उबरकर आना व विश्वमानस की परिधि में मानव का भावोत्कर्ष होना योग-साधना कहा जा सकता है। इसके लिए दृष्टिकोण का, भावनात्मक मनोभूमि का, परिष्कार करना होता है। पाशविक चिंतन को हेय स्थिति से उलटकर सद्भावना व सत्प्रवृत्तियों में रत होना पड़ता है। समस्त अध्यात्मयोग-साधनाओं का लक्ष्य यही है। यही वह लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति के लिए योग-साधक तत्पर हो स्वयं आगे बढ़ता है व अन्यों को आगे बढ़ाता है।
साधना का अर्थ है— ”अपने को सुसंस्कृत-सभ्य बना लेना।’ अपने जीवन देव की सुव्यवस्था के लिए की गई चेष्टाएँ ही साधना कहलाती हैं।
व्यक्तित्व पर चढ़ी दुष्प्रवृत्तियों का निवारण, सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाना प्रत्यक्षतः एक पुरुषार्थ है। इस कीमत पर ही साधारणजन व्यक्तित्व सम्पन्न–महामानव बने हैं। साधना आत्मिक-क्षेत्र में भी होती है तथा भौतिक में भी। जैसे प्रयास किए जाते हैं, वैसी ही सफलता मिलती है।
माली अपनी क्यारी की निराई–गुड़ाई करके खरपतवार अलग करता है व वांछित पौधे को खाद-पानी देने से लेकर उसे सहारा देने तक की आवश्यकता को भली−भाँति समझता है। किसी के दबाव से नहीं– स्वप्रेरणा से ही खेत की, बैलों की, हल आदि संबद्ध उपकरणों की व्यवस्था जुटाकर चलता है। आज का श्रम कल ही लाभप्रद हो, ऐसा दुराग्रह उसका नहीं होता। फसल समय के अनुसार पकती है, तब तक वह धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता है, मौसम से लेकर कीड़ों से सुरक्षा तक के सभी अवरोधों से निपटता रहता है व समय आने पर जितना मिला, उसे ईश्वरीय उपहार समझ घर ले आता है। इस साधना को वह सतत् जीवन भर चलाता है। साधना कैसे की जाती है–इसकी विधि का मर्म किसान की गतिविधियों तथा मनोभूमि का पर्यवेक्षणकर भली-भाँति समझा जा सकता है।
अध्यात्म-साधना का क्षेत्र अंतर्जगत है। अपने भीतर दबे खजाने को व्यक्ति स्वयं नहीं जानता; पर खोजने−उभारने का प्रयास करने पर उसे यही काया— यही जीवन प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष दृष्टिगोचर होता है। लगता है बाहर किसी से माँगने की, दीनता दिखाने की बजाए पहले अपने भीतर ही हल चला लिया होता तो कितना ठीक रहा होता। भीतरी प्रसुप्त क्षमताओं को ही विभिन्न तत्त्वदर्शियों ने देव माना है और बाह्योपचारों के माध्यम से अंतःसंस्थान के भांडागार को करतलगत करने का विधि−विधान मात्र बताया है। वे साधक की निष्ठा को पकाते हैं, उसे अभ्यस्त बनाते हैं। साधक की मूर्च्छना जागृत होती है। आत्मविस्मृति को भूल वह आगे बढ़ चलता है।
आत्मचेतना की जागृति, उसे साधकर लक्ष्य विशेष पर केंद्रीभूत कर देना एवं उस लक्ष्य से जुड़ने के लिए प्रारंभिक पुरुषार्थ–आत्मशोधन के साथ उच्चस्तरीय आदर्शवादी दृष्टिकोण का विकास— यही यह नींव है, जिस पर योग-साधना का भवन खड़ा होता है। इसके फलित होने पर जो चमत्कार बहिरंग व अंतरंग-क्षेत्र में दिखाई पड़ते हैं वे मनोबल— आत्मबल की फलश्रुतियाँ नहीं; वरन प्रसुप्त की जागृति की चमत्कृति ही होते हैं। उन्हें पाकर मनुष्य सही अर्थों में मनुष्य बन जाता है।
विडंबना यह है कि ऊपर वर्णित इस दर्शन को भूलकर आसन, प्राणायाम, एकाग्रता की तीन टाँग की सवारी पर सवार होकर योग-साधना के क्षेत्र में दौड़ लगाने की प्रतियोगिता ही चारों ओर नजर आती है। कहीं−कहीं तो मुद्रा, बंध, नेति, धोति, वस्ति आदि बहिरंग योगपरक क्रियाओं को ही योगशिक्षा में सम्मिलित कर लिया गया है। चौथे अनिवार्य चरण पर किसी का ध्यान गया ही नहीं, जिसके बिना ये तीनों अधूरे हैं। मात्र शरीर का शोधन, अभिवर्धन व एकाग्रताजन्य स्थूल परिणतियों तक ही सीमित रह जाने वाले हैं। स्वार्थवादी संकीर्णता में उलझे कुसंस्कारी मन को उच्च आदर्शों को अपनाने की तपश्चर्या में लगा देना ही योग-साधना का प्राण है। चूँकि यह सबसे दुष्कर कार्य है, सबसे बड़ा आत्मिक पुरुषार्थ इसी में करना होता है, इसी कारण सबसे अधिक अवहेलना भी इसी की, की जाती है। कहा जाता है कि योग विज्ञान प्रथम तीन व अन्य हठयोग की क्रियाओं तक सीमित है। चिंतन व आहार, कर्त्तव्य व व्यवहार में पूरी छूट है।
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि अध्यात्म-क्षेत्र के प्रवक्ता कहे जाने वालों ने यह भ्रम-जंजाल सबसे अधिक फैलाया है। योग की दुकान खूब तेजी से फैली है। मानसिक शांति, शरीर-स्वास्थ्य की किसे जरूरत नहीं है? आज विश्व में समृद्धि की सहचरी इन दो कुलटाओं— मानसिक तनाव व शारीरिक कुस्वास्थ्य ने प्रत्यक्ष रूप से विकसित समाज को अपने शिकंजे में जकड़ रखा है। औषधि उपचार व्यर्थ नजर आते हैं, ऐसे में वे सहज ही उस ओर भागते हैं, जहाँ उन्हें कुछ आसानी से मिलने की आशा हो। यह सब योग-साधना के नाम पर ही हुआ है कि आत्मिक पुरुषार्थ–आत्मोत्थान की इस पद्धति— क्रियाविधान को सरल–सुगम बनाने के नाम पर आत्मप्रवंचकों ने जमकर तथ्यों की अवहेलना की है व अध्यात्म विज्ञान को हानि भी पहुँचाई है। आस्था संकट का एक कारण यह भी है कि व्यक्ति उपचारों को गलत ढंग से अपनाने पर परिणाम न मिलने की शिकायत करे एवं प्रकारांतर से इन उपचारों में अपनी अनास्था व्यक्त करे।
आज सबसे बड़ा परिष्कार इसी क्षेत्र में किए जाने की आवश्यकता है। यहाँ तक तो उचित भी है कि शरीर सक्रिय, सबल−स्वस्थ हो एवं मन संतुलित। योग-साधना की ओर प्रवृत्त साधक का शरीर दूसरे अन्य लोगों की तरह ही स्वस्थ बनाए रखने के लिए आसन, प्राणायाम जैसे व्यायामों का प्रयोग जरूरी है। आहार-विहार ठीक हो— संयमित दिनचर्या हो। योगी हो अथवा साधारण लोक−जंजाल में फंसा व्यक्ति दोनों ही के लिए यह जरूरी है कि, आसन आदि तथा बलवर्धक शरीरपरक क्रियाएँ करके शरीर को सुगठित-क्रियाशील रखा जाए। यह स्वास्थ्य-रक्षा हर स्थिति में उपयोगी है, अनिवार्य है, पर गलती तब होती है जब शारीरिक अवयवों की तोड़−मरोड़, अंगों को ऐसे−वैसे घुमाना, इन्हीं को योग-साधना कह दिया जाता है।
इसी प्रकार प्राणायाम स्थूलतः ‘डीप ब्रीदिंग‘ गहन श्वास−प्रश्वास प्रक्रिया भर है, यदि उसके साथ भावना नहीं जुड़ी है। महत्ता तो तब है जब अंतःचेतना को प्राणाकर्षण— प्राण-धारणा-प्रक्रियाओं द्वारा प्रदीप्त किया जाता है एवं इसे उच्चस्तरीय स्थिति में पहुँचाने की बात सोची जाती है। शरीर के अवयवों को साफ रक्त मिले, उनके अंदर जमा विकारों का शोधन हो यह जरूरी है व डीप ब्रीदिंग की प्रक्रिया यह करती भी है; पर यदि इसे ही योग, कुण्डलिनी आदि का स्वरूप दे दिया जाए तो यह हास्यास्पद कदम ही होगा। किसी भी वस्तु को उतना ही महत्त्व मिले जितनी कि वह है। नकली जेवर नाटकों में खूब पहने जाते हैं, गोल्ड पालिश किए श्रृंगार के सभी साधन सस्ती कीमत में बाजार में मिलते हैं; पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि ये सोने का स्थान ले लेंगे। आज बाजारों में जिस प्रकार हर वस्तु का चाहे वह लिखने वाली कलम हो अथवा विदेशी आयातित उपकरण— एक डुप्लीकेट नकल बिकती है। जानकार उसे पहचानते हैं व इस धोखाधड़ी से बचते हैं। मात्र प्राणायाम को ही योग-साधना कह देना इसी प्रकार की एक धोखाधड़ी षड्यंत्र है। अध्यात्म के सरलीकरण की यह प्रक्रिया किसी भी प्रकार उचित नहीं ठहरायी जा सकती। एक मजदूर जो दिन में 3−3 क्विंटल वजन उठाकर इधर−उधर करता है अथवा जो खेत में हल जोतता है, एक सैनिक जो अपनी कवायद करता है, उतना शरीर-शोधन कर लेता है, जितना इन क्रियाओं से संभव है; पर यह योग तो नहीं हुआ? ऐसी दशा में मात्र आसन-प्राणायाम को तिल का ताड़ बनाकर खड़ा कर देना अध्यात्म विद्या के साथ मजाक है।
एकाग्रता— मेडीटेशन तीसरा पक्ष है, जिस पर खूब लिखा जाता है व कहा जाता है। ध्यानकेंद्र इतने खुल गए हैं लगता है सारा विश्व अध्यात्मवादी हो गया; पर बाद में देखने पर लगता है इन व्यक्तियों के चिंतन व कार्य तो बदले ही नहीं। वैसे के वैसे ही घटिया रहे। एकाग्रता मन के विधि−व्यवस्थापूर्वक सोचने की, बिखरी शक्तियों को एक ओर केंद्रित सुनियोजित करने की विधा मात्र है। यह तो एक कला है। घड़ी साज जब अपने ग्राहक की घड़ी का सूक्ष्मपुर्जा अपनी जगह लगाता है व त्रुटि को ठीक करता है तो वह एकाग्रता के माध्यम से ही यह सब कर पाता है। इसी प्रकार एक सफल विद्यार्थी, साहित्यकार, कलाकार, मूर्तिकार, वैज्ञानिक मनोयोग के संपादन से ही वह सब कुछ अर्जित कर पाता है; पर यह है एकाग्रता की–एक स्थूल भौतिक शक्ति के सुनियोजन द्वारा अर्जित सिद्धि। मनोयोग−तन्मयता जहाँ होगी वहाँ सफलता मिलती चली जाएगी। अस्त−व्यस्त चिंतन रोककर एक जगह केंद्रित किया जाए तो उसके सत्परिणाम मिलेंगे ही। मस्तिष्क की घुड़दौड़ जब रुक जाती है— विचार-प्रवाह सुनियोजित हो जाता है तो, भौतिक क्षेत्र में अपार सफलताएँ मिलती हैं, यह सत्य है। मात्र यहाँ तक ही एकाग्रता या ‘मेडीटेशन की भूमिका है। यह मस्तिष्कीय व्यायाम मात्र हुआ; पर यह योग-साधन नहीं है। इसे यदि इतनी हलकी परिधि में सीमाबद्ध कर देंगे तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। विचारों में उच्चस्तरीय, उद्देश्यपरक, भाव–परिष्कारयुक्त चिंतन का समावेश हुए बिना योग कहाँ हुआ? चूँकि चरित्र निर्माण, भावनात्मक उत्थान एवं जीवन लक्ष्य का उच्चस्तरीय निर्धारण कठिन एवं सबके लिए सुलभ नहीं है, इसलिए मात्र भीड़ एकत्र करने के लिए योग के नाम पर बाजीगरी उपयुक्त नहीं।
आदर्शवादी चिंतन–महत्त्वाकांक्षाओं को भौतिक से आत्मिक में बदल देना, संकीर्ण स्वार्थपरता के भवबंधनों— लोभ, मोह, अहंकार से मुक्त होकर आत्मविस्तार करना यह योग का वह पक्ष है, जिसके बिना ऊपर वर्णित तीनों साधन मात्र स्थूलक्रियाएँ भर हैं। आदर्शवादी भावचेतना को ही ‘उपास्य ब्रह्म’ कहते हैं। अपनी ‘लघु−स्व’ चेतना को ऊँचा उठाकर उसे परम सत्ता के साथ जोड़ देना अथवा उसका अपने अंदर अवतरण होने की अनुभूति करना, दोनों एक ही हैं। लक्ष्य एक ही है, दृष्टिकोण का परिष्कार— पाशविक स्तर, हेय चिंतन एवं कर्त्तव्य के उलटकर उसे कुमार्गगामिता के पथ से रोककर सद्भावना व सत्प्रवृत्तियों में परिणत करना। इसी तथ्य की ओर योग-साधना के उत्सुकों का ध्यान आकर्षित किया जाना चाहिए। यह ध्यान-साधना क्रियाओं में सद्कर्म, चिंतन में सद्ज्ञान व अंतः में सद्भाव के रूप में परिलक्षित होने लगती है। यही वह चरम उपलब्धि है, जिस पर मानव का उत्थान एवं समाज का उत्कर्ष निर्भर है। जितनी जल्दी इन तथ्यों को हृदयंगम कर लिया जाए, श्रेयस्कर है। बाल−क्रियाओं में समय भी नष्ट किया और पाया कुछ नहीं, यह पश्चात्ताप मन में बना रहे, इससे उचित तो यही है कि योग-साधना, अध्यात्म उपचारों के मर्म, स्वरूप एवं लक्ष्य पहले अच्छी तरह समझ लिया जाए। उतना होने पर आगे बढ़ चलना, बिना किसी कठिनाई के ही संभव है। लक्ष्य यही रहे कि इस पंचतत्त्वों की कायामात्र नहीं; वरन अपने प्रसुप्त आत्मतत्त्वों को जगाना, उठाना, उभारना है।