मानवी तेजोवलय— एक आध्यात्मिक संपदा

February 1982

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भले-बुरे व्यक्तियों के सान्निध्य में पड़ने वाला प्रभाव सर्वविदित है, जिसे प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया जा सकता है। पदार्थों की भाँति व्यक्तियों का भी अपना आकर्षण होता है। मानवी चुंबकत्व की इस विशेषता को साधना-क्षेत्र में तेजोवलय के रूप में जाना जाता है। यों समस्त शरीर में उसकी मात्रा होती है; पर आवाज की भाँति शरीर से निकलकर दूर क्षेत्र में जाते ही उसका प्रभाव कम हो जाता है। शरीर से निकलते समय यह विद्युतधारा अत्यंत तीव्र होती हैं, जिसके शरीर में तेजोवलय जितना अधिक प्रखर होता है वह उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है। यह ‘वलय’ भला भी हो सकता है और बुरा भी। अपने-अपने ढंग का आकर्षण और प्रभाव दोनों में रहता है। समीपवर्ती व्यक्ति तथा वातावरण उसी के अनुरूप प्रभावित होते हैं।

तेजोवलय की सर्वाधिक मात्रा चेहरे पर होती है। देवताओं के चित्रों में उनके चेहरे के इर्द-गिर्द सूर्य जैसा एक घेरा चित्रण किया जाता है। यह इसी अदृश्य तेजोवलय का चित्रण है। ज्ञानेंद्रियो का जमघट तथा मस्तिष्क का विद्युतभंडार एक ही जगह है, इसीलिए चेहरा सबसे अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली होता है। मोटेतौर पर चेहरे को देखकर कितने ही व्यक्ति बहुत कुछ जानने और समझने में सफल हो जाते हैं। आकृति देखकर प्रकृति का अनुमान लगाने वाले सूक्ष्मदर्शी नाक, कान, आँख, मुँह आदि की बनावट को नहीं; वरन चेहरे के चारों ओर उमड़ते-घुमड़ते तेजोवलय को ही परखते हैं और उसी के आधार पर व्यक्ति के आंतरिक व्यक्तित्व का प्रभाव एवं परिचय प्राप्त करते हैं।

तेजोवलय का एक केंद्र चेहरे की ही तरह जननेंद्रिय क्षेत्र में छाया रहता है, पर इस क्षेत्र में प्रजनन संबंधी केंद्र होने से वलय का प्रभाव यौन-आकर्षण उत्पन्न करने वाला होता है। किशोर वय के भिन्न लिंगों के बीच यह वलय ही अधिक उभार उत्पन्न करता है। समलिंगों की समीपता में वह तेजस् उत्तेजित नहीं होता। कटिप्रदेश को सदा ढके रहने के पीछे यही आधार होता है कि समलिंगों का तेजोवलय भिन्न लिंगों के बीच अनावश्यक उभार न पैदा करे।

जैसा भी तेजोवलय होगा अपने निकटवर्ती क्षेत्र को, संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को, स्पर्श-व्यवहार में आने वाले पदार्थों को सुनिश्चित रूप से प्रभावित करेगा। जिस तरह विद्युत, ताप, चुंबक जैसी ऊर्जाएँ अपनी विशेषताओं के अनुरूप व्यक्तियों एवं पदार्थों पर प्रभाव डालती हैं, उसी प्रकार तेजोवलय का विद्युतमंडल समीपवर्ती क्षेत्र एवं संबंधित व्यक्तियों एवं पदार्थों में अपना प्रकाश— प्रभाव फैलाता रहता है। इसे अब वैज्ञानिक यंत्रों के माध्यम से भी नापा और जाना जा सकता हैं। ‘ह्यूमन औरा’ पर पश्चिमी देशों में विस्तृत शोध भी सतत चल रही हैं। इसका मापन व फोटोग्राफिक अंकन भी अब संभव है।

कितने ही व्यक्तियों की समीपता अनायास ही बड़ी सुखद, प्रेरणाप्रद और हितकर होती है और कइयों का सान्निध्य अरुचिकर तथा कष्टकर प्रतीत होता है। इसका वैज्ञानिक कारण व्यक्तियों के शरीर से निकलने वाली इस ऊर्जा का पारस्परिक आकर्षण-विकर्षण होता है। समान प्रकृति के लोगों की ऊर्जा घुलती-मिलती और सहयोग-प्रोत्साहन प्रदान करती है; पर यदि समीपवर्ती व्यक्तियों की प्रकृति में प्रतिकूलता हो तो वह ऊर्जा टकराकर वापिस लौटेगी तथा घृणा, द्वेष, अरुचि, अप्रसन्नता, एवं खीज जैसी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करेगी। रास्ता चलते कितने ही अनजान व्यक्तियों के बीच मित्रता हो जाती और वह घनिष्ठता में परिवर्तित हो जाती है। इसके विपरीत सदा एकदूसरे के निकट रहते हुए कितने ही घनिष्ठ नहीं बन पाते, पराए जैसे लगते हैं। यह सब अंतःऊर्जा के प्रतीक तेजोवलय का ही प्रभाव चमत्कार है, जो एक जैसी प्रकृति वालों के बीच आकर्षण तथा विपरीत के बीच विकर्षण पैदा करता है।

तर्क के आधार पर अनायास उत्पन्न हुआ आकर्षण भावुकता मात्र प्रतीत होता है और जल्दबाजी में घनिष्ठता में बँध जाने से खतरे की आशंका की जा सकती है; पर तथ्य इतने प्रबल होते हैं कि इन संभावनाओं को निरस्त करते हुए घनिष्ठता उत्पन्न कर ही देते हैं, जबकि स्वजन संबंधियों से भी अकारण अरुचि रहती हैं और उनकी समीपता में कष्टकर अनुभूति ही होती रहती है। ढूँढ़ने पर ऐसा कोई कारण प्रतीत नहीं होता तो भी विषमता बनी ही रहती है। इसमें तेजोवलय के कंपनों की गति में छाई असाधारण विपन्नता ही प्रधान अवरोध होती है।

यह तो समस्तरीय तेजोवलयसंपन्न व्यक्तियों की चर्चा हुई। प्रचंड प्रतिभा से युक्त व्यक्तित्वों में तेजोवलय की प्रखरता एवं बहुलता होती हैं। चुंबक का स्पर्श करने से साधारण लोहे में भी चुंबक की विशेषता उत्पन्न हो जाती है। प्रखर व्यक्तित्वों में मानवी विद्युत की प्रचंडता होती है। उनके परामर्श, ज्ञान, सहयोग का भी लाभ समीपवर्ती लोगों को मिलता है; पर सबसे बड़ा लाभ उस तेजोवलय का होता है, जो अपनी शक्तिशाली क्षमता को निरंतर निःसृत करता रहता है। जो भी उस संपर्क-सान्निध्य की लपेट में आता है उसे बदलने, प्रभावित करने में सफल होता है। महामानवों के दर्शन, चरणस्पर्श, आशीर्वचन, दृष्टिपात में जो सत्परिणाम विद्यमान रहते हैं, उसमें उनका प्रकाशपुंज-तेजोवलय ही काम करता है। दूसरे शब्दों में इस सूक्ष्मसत्ता को अदृश्य व्यक्तित्व भी कह सकते हैं। दृश्य व्यक्तित्व पंचतत्त्वों से बनी काया के रंग रूप, सुडौलता, अंगों की बनावट आदि पर निर्भर करता है; पर अदृश्य व्यक्तित्व पर इस दृश्य स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। शरीर से स्वस्थ, सुंदर, आकर्षक होते हुए भी कोई व्यक्ति आचरण की दृष्टि से हेय और हीनस्तर का हो सकता है इसके विपरीत कोई काला, दुर्बल, कुरूप होते हुए भी अत्यंत तेजस्वी और प्रतिभा का धनी हो सकता है, जबकि वह बाहर से कितना भी उपहासास्पद क्यों न लगे। आँखों को आरंभिक दर्शन में कायकलेवर के अनुरूप किसी की वस्तुस्थिति समझने में भ्रम हो सकता है; पर जैसे ही उसकी यथार्थता अनुभव की जाएगी वह भ्रम दूर हो जाएगा और वास्तविक व्यक्तित्व के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन किया जाने लगेगा।

सामान्यतया रंग, रूप का आकर्षण हर किसी को मुग्ध करता है, पर यदि तेजोवलय तदनुरूप न हुआ तो कुछ ही समय में वह मूल्यांकन बदल जाता है। रूपवान काया में भी विषधर सर्प जैसी विद्रूपता प्रकट हो सकती है एवं कुरूप व्यक्ति अष्टावक्र, सुकरात, गाँधी की तरह सिर आँखों पर बिठाया जाने लगता है। साज-सज्जा द्वारा तो शरीर की कुरूपता एक सीमा तक छिपाई भी जा सकती है, पर तेजोवलय के सूक्ष्मशरीर पर किसी भी प्रकार पर्दा नहीं डाला जा सकता है। सुविकसित अंतःकरणसपन्न व्यक्तियों को किसी की भीतरी स्थिति को पहचानने में देरी नहीं लगती है। यही कारण है कि महामानव किसी की बाह्य सुंदरता अथवा कुरूपता को अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। वे रंगरूप की अपेक्षा तेजोवलय में संव्याप्त सुंदरता एवं कुरूपता को वास्तविक व्यक्तित्व मानते हैं। भले−बुरे व्यक्तित्वों के प्रति जनसामान्य की श्रद्धा एवं अश्रद्धा भी इसी अंतःऊर्जा के आधार पर बनती है।

शरीर को खुला-नग्न छोड़ देने पर शरीर विद्युत की मात्रा स्फुल्लिगों के रूप में उड़ने लगती है। वस्त्र पहनने का कारण शरीर को सर्दी से बचाना या शोभा बढ़ाना भी हो सकता है; पर मूल कारण तेजोवलय पर आवरण आच्छादित किए रहना ही है। भीतर की ऊर्जा बाहर न निकलने पाए इसीलिए वस्त्रों का आवरण ढका जाता है। आध्यात्मिक साधनाओं में निरत रहने वाले कठोर तप-तितिक्षा के अभ्यासी, साधु, संन्यासी तथा योगी भी नग्न शरीर में भस्म या मिट्टी का आवरण चढ़ाए रहते हैं। पूर्ण नग्न शरीर रखना असभ्य आचरण माना जाता है। इस मान्यता के पीछे प्रमुख कारण सामाजिक मर्यादाएँ हैं, पर आत्मिक कारण यह है कि शरीर को नग्न रखने वाला अपनी शक्ति तरंगें बड़ी मात्रा में बाहर बिखेरता रहेगा, साथ ही दूसरों के भले-बुरे प्रबल भावों से अपने को बचा भी न सकेगा। धूप का तीव्र प्रभाव नग्न शरीर पर पड़ता है। इसी प्रकार दूसरों का चुंबकत्व भी निर्वस्त्र लोगों को अधिक प्रभावित कर सकता है। ऊन और रेशम में शारीरिक विद्युत पर आवरण डाले रहने की क्षमता अधिक होती है। इसीलिए प्राचीन समय में प्रायः पुरश्चरण जैसी प्रखर साधना प्रयोगों में ऊनी अथवा रेशमी वस्त्रों को अधिक महत्व दिया जाता था। ऊन ऐसी होती थी जो अहिंसात्मक तरीके से प्राप्त हो जाए। वध के उपरांत भेड़ों की उतारी गई ऊन अथवा कीड़ों को उबालकर उन्हें मार डालने के उपरांत पाया जाने वाला रेशम आत्मिक-प्रगति के लिए की जाने वाली साधना के प्रयोग योग्य नहीं होते। वध के समय प्राणियों का करुण क्रंदन, निकला हुआ चीत्कार उनकी सूक्ष्म स्थिति को आसुरी प्रकृति का बना देता है। ऐसे वस्त्रों को धारण करने वाले के ऊपर भी उस विक्षोभ का प्रभाव पड़ता है। साधना में शारीरिक विद्युत के आवागमन में प्रतिरोध उत्पन्न करने की क्षमतासंपन्न होते हुए भी ऐसे वस्त्रों के धारण करने से अनेकों प्रकार की मानसिक बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, फलतः आध्यात्मिक उन्नति का प्रयोजन पूरा नहीं होने पाता। ऊन अथवा रेशम अहिंसात्मक तरीके से प्राप्त हुआ हैं, इस बात की गारंटी हो तभी उनसे बने वस्त्र प्रयोग किए जाए, संदिग्ध स्थिति हो तो उनका प्रयोग न करना ही श्रेष्ठ है। ऐसी हालत में सूती वस्त्रों का उपयोग कहीं अधिक श्रेयस्कर है।

अन्य वस्त्रों तथा उपयोग में आने वाली वस्तुओं के बारे में भी यही बात है। भली या बुरी प्रकृति के मनुष्य अपनी प्रिय वस्तुओं पर, जिन्हें वे उपयोग में लाते हैं, अधिक प्रभाव छोड़ते हैं। साधु, संतों, महापुरुषों की माला, जनेऊ, खड़ाऊ, वस्त्र अथवा अन्य वस्तुएँ उपहार आशीर्वादस्वरुप पाकर लोग कृतार्थ हो जाते और उनके प्रभाव से देर तक लाभांवित होते रहते है। दीर्घकाल तक उनमें दिव्य प्रभाव बना रहता है। भगवान बुद्ध का एक दांत लंका में आज भी सुरक्षित रखा है। मुहम्मद साहब का सिर का एक बाल कश्मीर की एक मस्जिद में रखा हुआ है। इंग्लैण्ड के एक गिरजाघर में ईसामसीह का रखा कफन कितने ही श्रद्धालुओं की प्रेरणा का केंद्र बना हुआ है।

शरीर के अंग-अवयवों में मरणोपरांत भी वलय का प्रभाव देखा जाता है। मरघट में तांत्रिक साधनाएँ करने कापालिकों के मृतकों की खोपड़ी साफ करने, उससे जल पीने जैसी अघोर-क्रियाओं के पीछे मृतकों की अवशिष्ट वलय-ऊर्जा को संग्रहित करने का सिद्धांत ही कार्यान्वित होता है। तंत्र-साधना में तांत्रिक अपने मनोबल की वृद्धि अन्यों के शरीरों की ऊर्जा के दोहन द्वारा भी करते हैं। कभी-कभी श्मशानों में धुँधले प्रकाश की गोलियाँ, लहरें अथवा धुँध उड़ती देखी जाती है। यह मृतक या अवशिष्ट तेजोवलय ही होता है जो शरीर के जल जाने के बाद भी सूक्ष्मरूप में वहाँ विद्यमान रहता है। श्मशान में जाने पर वहाँ रुकने की इच्छा नहीं होती, अकारण भय छाया रहता है। मन विक्षुब्ध हो उठता है। यह उस वातावरण में छाये तेजोवलय का ही प्रभाव होता है।

व्यक्तित्व पर तेजोवलय की भारी छाप रहती है। प्रायः यह जन्म-जन्मांतरों के प्रयास, अभ्यास एवं संस्कार के आधार पर विनिर्मित होता है; पर मनुष्य अपनी स्वतंत्र चेतना का उपयोग करके उसे बदल सकता तथा बड़ा सकता है। सामान्य स्तर के व्यक्ति इस बने बनाए तेजोवलय के अनुरूप अपना स्वभाव और कर्म बनाए रहते हैं; पर मनस्वी साधक अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति से अभ्यस्त बाह्य एवं आंतरिक स्थिति में आश्चर्यजनक परिवर्तन कर लेते हैं। तत्पश्चात तेजोवलय भी उसी के अनुरूप बन जाता है।

सत्-तत्त्वों से ओत-प्रोत तेजोवलय में परिवर्तन ही आध्यात्मिक कायाकल्प है। साधना की तप-तितिक्षा द्वारा तेजोवलय के प्रखरीकरण का उद्देश्य पूरा होता है। कहना न होगा कि इस महती उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही तप-साधना के उच्चस्तरीय प्रयोगों, उपचारों की व्यवस्था बनायी जाती है। जिससे प्रत्येक साधक साधना के उपरांत तेजोवलय की एक बहुमूल्य आध्यात्मिक पूँजी लेकर वापिस लौटता है।


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