महाभारत का धर्मयुद्ध आरंभ होने वाला था। युद्ध को निर्णायक स्थिति में पहुँचाने के लिए ‘श्री कृष्ण’ किसी ऐसे स्थान की खोज में थे जहाँ के वातावरण में निष्ठुरता के तत्त्व अधिक हों। इसका कारण यह था कि कौरव-पांडवों के बीच युद्ध तो होते थे, पर वे भावुकतावश अपने संबंधों को स्मरण करके पुनः समझौता कर लेते थे और समस्या का समाधान नहीं निकल पाता था। धर्मयुद्ध को निर्णायक भूमिका में लाने के लिए कृष्ण ने एक दूत को भेजा कि उपयुक्त स्थान की खोज करे। दूत पता लगाकर वापिस लौटा और उसने अपनी जानकारी का एक ऐसा प्रसंग सुनाया, जिससे युद्ध के लिए उपयुक्त स्थान की समस्या हल हो गई।
दूत ने आँखों देखा वर्णन सुनाते हुए कहा— "तेज वर्षा हो रही थी। बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत पर मेंड़ बाँधकर पानी रोकने के लिए कहा, इस पर छोटा क्रोधित हो उठा। अवज्ञा भरे कटुवचन बोलने लगा। सुनते ही बड़े का आवेश चरम सीमा पर पहुँच गया। उसने तत्काल लाठी से छोटे का सिर फोड़ दिया और लाश को घसीटते हुए खेत के बहते हुए पानी को रोकने के लिए गाड़ दिया।” घटना को सुनकर श्रीकृष्ण ने जान लिया कि उस वातावरण में ऐसे तत्त्व मौजूद हैं, जिसमें स्नेह-सौजन्य की नहीं क्रूर–निष्ठुरता की ही बहुलता है। यही महाभारत युद्ध के लिए उचित क्षेत्र होगा। कुरुक्षेत्र के नाम से कुविख्यात स्थान में महाभारत युद्ध आरंभ हुआ और तभी समाप्त हुआ जब दोनों पक्षों के स्वजन संबंधी आपस में लड़कर समाप्त हो गए।
एक और घटना प्रख्यात है— श्रवण कुमार अपने अंधे माता−पिता को तीर्थयात्रा पर ले जा रहे थे। वाहन का प्रबंध नहीं था। उन्होंने काँवर बनाई। दोनों को काँवर में, दोनों ओर बिठाया और कंधे पर लादकर यात्रा कराने चले। प्रसन्नतापूर्वक यह कष्टसाध्य यात्रा करते रहे? पर एक दिन एक स्थान पर पहुँचने पर उनकी विचारधारा बदल गई। काँवर को जमीन पर रखकर श्रवण कुमार बोले— "आप लोगों की आँखें खराब हैं, पैर नहीं। अपने पैरों चलिए, मुझसे इतना बोझ लेकर चलते नहीं बनता। श्रवण कुमार के पिता इस आकस्मिक परिवर्तन को देखकर चकित रह गए। ऋषि होने के कारण उन्होंने अपनी सूक्ष्मदृष्टि से वस्तुस्थिति जान ली। पुत्र की बात पर सहमति व्यक्त कर दी और पैदल चलने के लिए तैयार हो गए; पर उन्होंने श्रवण कुमार से शीघ्रातिशीघ्र उस स्थान सेबाहर निकल चलने के लिए कहा। तेजी से वे लोग उस स्थान को पार करके आगे निकल गए।
कथा के अनुसार जैसे ही वह क्षेत्र समाप्त हुआ, श्रवण कुमार को अपनी भूल ज्ञात हुई। वे आत्मग्लानि से भर उठे और फूट−फूटकर रोने लगे। अपने कुकृत्य के लिए माता−पिता से क्षमा माँगी। पिता ने बताया— "इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं था। वह वातावरण ही ऐसा था, जिसमें पहुँचकर विचार निष्ठुरता से भर उठते हैं। बहुत समय पूर्व इस क्षेत्र में ‘मय’ नामक दानव रहता था। वह बड़ा नृशंस था। अपने ही माता−पिता को उसने मार डाला था। उसी की दुष्टता उस क्षेत्र पर किसी न किसी रूप में छाई हुई है। उसी ने तुम्हारे मन में विद्रोह का भाव भड़काया, वह क्षेत्र पीछे छूट गया। फलस्वरूप तुम्हारी सहज एवं स्वाभाविक बुद्धि वापिस लौट आई।”
मनुष्य के प्रयत्न−पुरुषार्थ का अपना महत्त्व है; पर यह भी सच है कि वातावरण का प्रभाव उस पर असाधारण रूप से पड़ता है। आकृति और प्रकृति दोनों ही गढ़ने में वातावरण का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ठंडे देशों के निवासी गोरे रंग के, सुदृढ़ और दीर्घजीवी होते हैं। जहाँ गर्मी अधिक पड़ती है, वहाँ के मनुष्य के स्वास्थ्य गिरने तथा शरीर दुर्बल एवं काले पाए जाते हैं। पशुओं के ऊपर भी यह प्रभाव देखा जाता है। कच्छ, हरियाणा, नागौर आदि क्षेत्रों के गाय कितनी दुधारू,बैल कितने परिश्रमी होते हैं, यह सर्वविदित है। बंगाल और दक्षिणी बिहार में जन्मने वाले गाय-बैल अपेक्षाकृत अधिक दुर्बल होते हैं, इसमें नस्ल का उतना श्रेय-दोष नहीं जितना कि जलवायु का होता है। उपरोक्त स्थानों के इन पशुओं के स्थान, क्षेत्र यदि बदल दिए जाएँ तो नस्ल में भी अंतर पड़ता चला जाता है।
यही बात वनस्पतियों के संबंध में भी है। जड़ी−बूटियाँ वहीं है, पर विभिन्न क्षेत्रों में उगाए जाने पर उनके गुणों में न्यूनाधिकता उत्पन्न हो जाती है। हिमालय क्षेत्र में गंगातट पर उगी ब्राह्मी की तुलना में मैदानी क्षेत्रों में नदियों के किनारे उगी मंडूकपर्णी के गुणों में भारी अंतर आ जाता है। अन्यान्य जड़ी−बूटियों के संबंध में भी यही बात है।
विभिन्न प्रकार के फल भी अपनी क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण प्रसिद्ध होते हैं। नागपुर क्षेत्र के संतरे, भुसावल के केले, लखनऊ के आस−पास के आम, खरबूजे प्रख्यात हैं। कश्मीर के सेबों की अपनी अलग विशेषता होती है। मैसूर के जंगलों में उगे चंदन वृक्ष अधिक सुगंधित होते हैं। अन्नादि के गुण स्वभावों में भी वातावरण की भिन्नता के कारण भारी अंतर देखा जाता है। पंजाब का गेहूँ अन्य प्रांतों की तुलना में कहीं अधिक उत्तम होता है।
मनुष्यों के शरीरों में ही नहीं स्वभावों में भी क्षेत्रीय विशेषता के अनुरूप अंतर पाया जाता है। यों तो मनुष्य स्वतंत्र और समर्थ है। वह अपनी संकल्पशक्ति के बल से परंपरागत सभी दबावों को बदल सकने में सैद्धांतिक दृष्टि से पूर्णतया सक्षम है; पर व्यावहारिक स्तर पर देखा यह जाता है कि वातावरण अपने प्रभाव से इस क्षेत्र के मनुष्यों को ढालता चला जाता है। व्यक्ति की मौलिक विशेषता को मान्यता देते हुए भी यह स्वीकार करना होगा कि समाज का बहुसंख्यक वर्ग विचारपूर्ण नहीं वातावरण के प्रभाव से जीवनयापन करता है। जातियों और वंशों में भी कई प्रकार की अपनी−अपनी विशेषता पाई जाती है। ब्राह्मण में धार्मिकता, क्षत्रिय में अक्खड़ता, वैश्य में अर्थदृष्टि, शिल्पकारों में क्रियाकुशलता जैसी विशेषताएँ दूसरों की अपेक्षा कुछ अधिक मात्रा में पाई जाती हैं। कायस्थ वर्ग में शिक्षा का बाहुल्य पाया जाता है। पिछड़े वर्ग में अशिक्षा, अस्वच्छता, अशिष्टता पाई जाती है। कुछ समाजों में चोरी, उठाईगिरी की आदत जातीय विशेषता के रूप में मिली होती है। कुछ कायरता और मूर्खता के लिए बदनाम हैं। स्वभावतः इन भिन्नताओं के कारणों की खोज करने पर एक यही तथ्य सामने आता है कि अमुक प्रकार के वातावरण में रहने का अवसर मिलता है, जिससे उसी के अनुरूप विशेषताएँ उनमें विकसित हो जाती हैं।
जंगली जातियों में चित्र−विचित्र रिवाज पाए जाते है। उनके स्वभाव और अभ्यास भी अपने ढंग के होते हैं। सुधारकों के सुधार-प्रयास उसमें परिवर्तन लाने में समर्थ नहीं हो पाते क्योंकि, उनके चारों ओर घिरा वातावरण उन्हें यत्किंचित् सुधार स्वीकार करने की ही छूट देता है। परिवर्तन के लिए वातावरण बदलना आवश्यक है। कितने ही अफ्रीकी नीग्रो बहुत समय से अमेरिका में बस गए हैं। उनकी प्रवृत्ति में भारी अंतर आ गया है। अब अमेरिकी नीग्रो भी प्रायः अमेरिकी गोरों के स्तर का ही जीवनयापन करते हैं। उत्तरी ध्रुव एस्किमो जाति के बहुत से व्यक्ति कनाडा में आ बसे हैं। उनमें आश्चर्यजनक अंतर आ गया है। इसी प्रकार अन्यान्य देशों में जा बसने वाले अपने मूल देश की अपेक्षा नई परिस्थितियों में— नए ढंग से बदलते देखे जाते हैं। कोई−कोई अपवाद ही ऐसे होते हैं जो वातावरण के दबाव से अपने को बनाए रखने तथा अपनी मौलिक विशेषताओं को अक्षुण्ण रखते हैं; अन्यथा अधिकांश तो परिस्थितियों के अनुरूप ढलते-बदलते रहते हैं।
सामान्य स्तर का कोई कार्य सामान्य वातावरण में भी किया जा सकता है; पर विशिष्ट स्तर का कार्य करना हो तो उपयुक्त वातावरण की ही खोज−बीन करनी पड़ती है। जहाँ फोटोग्राफिक फिल्में बनाई जाती हैं, उस फैक्ट्री में तापमान को एक निश्चित मर्यादा में ही रखना पड़ता है। यदि इसकी उपेक्षा की जाए तो सारे साधनों के रहते हुए भी अच्छी फिल्में बनाना संभव नहीं हो सकता। स्वास्थ्य के लिए कुछ पर्वतीय क्षेत्र बहुत ही उपयोगी माने जाते हैं। विशिष्ट रोगियों को, दुर्बल व्यक्तियों को, विशिष्ट सेनेटोरियमों में रहने का प्रबंध किया जाता है।
निश्चित ही साधना के उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयोगों के लिए भारत के हिमालय क्षेत्र को अद्वितीय गौरव प्राप्त है। यह क्षेत्र ऋषि, योगियों की भूमि मानी जाता रहा है। उच्च आध्यात्मिक प्रयोग इसी क्षेत्र में अनादिकाल से होते चले आ रहे है। आयुर्वेद, रसायन, विद्या, साहित्य सृजन, योगानुसंधान जैसे महत्त्वपूर्ण प्रयोग हिमालय क्षेत्र की सुविस्तृत प्रयोगशाला में समय−समय पर होते रहे हैं। सप्तऋषियों, महामनीषी, देवमानवों के कार्यक्षेत्र इसी भूमि में रहे हैं। छात्रों के लिए गुरुकुल, श्रेयार्थियों के लिए आरण्यक यहीं थे। राजतंत्रों के सूत्रसंचालक वशिष्ठ जैसे धर्माध्यक्षों और विश्वामित्र जैसे तपस्वी साधकों की तपस्थली इसी भूमि में थी। दिव्यदर्शियों का कथन है कि ब्रह्मांड की सघन अध्यात्म चेतना का धरती पर विशिष्ट अवतरण इसी क्षेत्र में होता रहा है। भौतिक शक्तियों के धरती पर अवतरण का केंद्रबिंदु विज्ञान-जगत ने ध्रुवप्रदेश को माना है। अध्यात्म-क्षेत्र में वैसी ही मान्यता हिमालय के संबंध में है। यह क्षेत्र ब्रह्मांडव्यापी विश्वचेतना का अवतरण केंद्र है, जहाँ शोध करते हुए, तप करते हुए मनीषी-साधकगण अपने को देवशक्तियों से सुसंपन्न करते थे। अभी भी इस क्षेत्र में सारी सूक्ष्म विशेषताएँ प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं जो आत्मिक-प्रगति में सहयोग के लिए आवश्यक है। आत्मसाधना के लिए यह शीत प्रदेश उपयुक्त है, साथ ही जलवायु की दृष्टि से आरोग्यवर्धक भी। गंगाजल को वैज्ञानिकों ने दिव्य औषधियों का सम्मिश्रण माना है। ऐसी मान्यता है कि मात्र गंगाजल के सेवन से कितनी ही बीमारियों का उपचार अपने आप हो जाता है।
योगियों, तपस्वियों ने उग्र तपश्चर्याएँ इस क्षेत्र में की हैं, जिसके कारण इस वातावरण में विशिष्ट अध्यात्मतत्त्वों की भरमार है। इस वातावरण में पहुँचने पर मन में अनायास ही सात्विक विचारणा, पवित्र भावनाएँ उमड़ने लगती हैं। आज के गए−गुजरे जमाने में भी इस क्षेत्र में सतयुगी वातावरण के दृश्य देखे जाते हैं। ऐसा लगता है कि चारों ओर के संव्याप्त कलुषित वातावरण से यह क्षेत्र अभी भी अछूता है।
सामान्यतया जिस वातावरण में अन्य लोग रहते हैं, उसमें विक्षोभकारी तत्त्वों का बाहुल्य है। साधना−उपासना के विधि-विधान और मर्यादाओं का परिपालन करते हुए भी अभीष्ट लाभ नहीं मिल पाता। विषाक्त वातावरण का असाधारण प्रभाव पड़ता है। साथ ही परिवार-समाज के जिस परिवेश में मनुष्य रहता है, उसके संस्कार भी बने रहते हैं। फलस्वरूप मन को जबरन उन संस्कारों से मुक्त कर पाना कठिन पड़ता है। ऐसी स्थिति में–साधना का उच्चस्तरीय लाभ उठाने की दृष्टि से आवश्यक होता है कि सदा के लिए न सही, तो कुछ समय के लिए ऐसे सात्विक वातावरण में रहकर साधना की जाए जहाँ से अभीष्ट परिमाण में आत्मिक ऊर्जा जुटाई जा सके। कहना न होगा, इस दृष्टि से हिमालय का उत्तराखंड सर्वश्रेष्ठ है।
शान्तिकुञ्ज, गायत्री नगर, ब्रह्मवर्चस् की स्थापना ऐसे ही स्थान पर हुई है जहाँ कि कभी सप्तऋषियों ने प्रचंड तप किया था। गंगा की धाराएँ पहले इन स्थानों से होकर बहती थीं। बाद में बाँध आदि बनाकर उनका प्रवाह मोड़ दिया गया। साधना के लिए गंगा की गोद, हिमालय की छाया का दिव्य लाभ साधक को मिलता है। साथ ही सबसे बड़ी बात यह है कि साधना के लिए जिस समर्थ–मार्गदर्शन और दिव्य संरक्षण की आवश्यकता पड़ती है, वह सहज ही प्राप्त है। गंगा, हिमालय और समर्थ मार्गदर्शन की त्रिवेणी में स्नान करने वाले साधक ऐसी पवित्रता एवं आत्मिक समर्थता साधना के उपरांत वापिस लेकर लौटते हैं, जिससे भौतिक एवं आत्मिक-प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है।