देख खुला है द्वार पुजारी!
बैठ गया क्यों फेंक धूल में फूलों का यह हार पुजारी!
स्वर्ग-कमल से खिले हुए हैं मंदिर के वे कलश मनोहर,
मलयानिल के मृदु अञ्चल में फहर रहा केतन पट सुंदर।
रोम-रोम, कण-कण इन तन में कल्पवृक्ष अमृत और पारस,
है आनंद भरा इस घन में उड़ते हैं आशा के सारस॥
दृग मीचे तू सोच रहा क्या देख तनिक उस पार पुजारी!
देख खुला है द्वारा पुजारी!!
क्या सहलाता इन छालों को तू पूजा का थाल उठा ले॥
देख रहा तू क्या पथ पर ये पर्वत, ये नदियाँ, ये नाले।
यह संस्कृति का क्रम न रुका है जीवन तो चलता जाएगा,
रुक जाने से तो पीछे तू अपने मन में पछताएगा॥
शीतल हो जाएँगे क्षण में ये जलते अंगार पुजारी!
देख खुला है द्वार पुजारी!!
पल में अरे समा जाएँगे तब प्रवाह में ये सब सागर,
मिल जाएँगी नदियाँ तुझमें डूबेंगे नभचुंबी गिरिवर।
अपने भीतर झाँक बटोही उसमें कितनी गहराई है,
तुझ पर करुण निर्झरी कितनी प्रभु प्रियतम की लहराई है॥
रुक न सकी है अब तक जग में शुद्ध प्रेम की धार पुजारी!
देख खुला है द्वार पुजारी!!
साज सजाए आज जा रहा तू जिसकी पूजा करने को,
आएगा वह स्वयं दौड़कर तुझसे पथ में ही मिलने को॥
भवसागर का ज्वार भले ही हो कितना दुर्दांत भयावह,
लेकर गोद लगा अंतर से अपनी नाव बिठाएगा वह॥
गूँथ हृदय के टुकड़े तुझको पहनाएगा हार पुजारी!
देख खुला है द्वार पुजारी!!
— श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी