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February 1982

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अध्यात्म का ककहरा वहाँ से प्रारंभ होता है जहाँ मनुष्य उच्चचेतन का द्वार खटखटाता है, अन्तःकरण के परिष्कार−परिमार्जन में निरत होता है। इस प्रयास में जिसे जितनी सफलता मिलती है वह उतनी ही चुंबकीय क्षमता अर्जित कर लेता है और सांसारिक सफलताओं की सिद्धि— आत्मिक-प्रगति की ऋद्धि को प्रचुर परिमाण में हस्तगत करता है। आत्मिकी इसी उच्चस्तरीय प्रगति-पथ पर बढ़ चलने और अभीष्ट सफलता प्राप्त करने का पथ-प्रशस्त करती है। इसी प्रयास में निरत रहकर देवत्व की— उसके साथ जुड़ी हुई अगणित विशिष्टताओं की उपलब्धि संभव होती है।


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