अन्न को ब्रह्म कहा गया है। शास्त्रकार इसी को प्राण कहते हैं। उपनिषद्कारों ने अन्नब्रह्म की उपासना हेतु साधक को सहमत करने के लिए अनेकानेक तर्क, तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। इनका अवगाहन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि आमतौर से आहार से क्षुधा निवृत्ति और स्वाद तृप्ति भर का जो लाभ समझा जाता है, यह मान्यता अधूरी-अविवेकपूर्ण है। आहार प्रकारांतर से जीवन है, साधक के लिए तो सफलता प्राप्ति के मार्ग का एक महत्त्वपूर्ण ‘माइलस्टोन’ है। यदि इस देवता की आराधना ठीक प्रकार से की जा सके तो शरीर को आरोग्य, मस्तिष्क को ज्ञान−विज्ञान, अंतःकरण को देवत्व का अनुदान, व्यक्तित्व को प्रतिभावान एवं भविष्य को उज्ज्वल संभावनाओं से जाज्वल्यमान बनाया जा सकता है।
अथर्ववेद में अनुपयुक्त अन्न को त्याज्य ठहराया गया है। प्राचीनकाल में मात्र पुण्यात्माओं का ही अन्न स्वीकार किया जाता था। किसी के सज्जन, धर्मपारायण होने की कसौटी भी एक ही थी— उसने किसका अन्न खाया, वह किस प्रकार उपार्जित था। पुण्यात्मा वही कहाता था, जिसका अन्न लोग ग्रहण करते थे।
“सवौ वा एष जग्ध पाप्मा यस्यान्नमश्रन्ति”।
— 9।6।24 अथर्ववेद
अर्थात— वाल्मीकि रामायण में अंतःकरण को देवता के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसी प्रकार कहा गया है—
“यदन्नं पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवताः।”
अर्थात— "मनुष्य जैसा अन्न खाता है, वैसे ही उसके देवता खाते हैं।” यदि साधक कुधान्य खाता है तो साधक का इष्ट भी भ्रष्ट हो जाता है और उससे जिस प्रतिफल की आशा की गई थी, वह प्रायः नहीं ही प्राप्त होती।
तैत्तरीयोपनिषद् में ऋषि उद्घोष करते हैं—
"अन्नाद्व प्रजाः प्रजायन्ते। काश्च पृथिवीश्रित्षः। अथो अन्ने नैव जीवन्ति। अथैन दवि−यन्त्यन्ततः। अन्ने हिभूतानां जेष्ठम्। तस्मात्स−वेर्षिधयमुच्यते। सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति येऽनं ब्रह्मोपासते।”
—द्वितीय अनुवाक
अर्थात— "इस पृथ्वी पर रहने वाले समस्त प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं। फिर अन्न से ही जीते हैं। अंत में अन्न में ही विलीन हो जाते हैं। अन्न ही सबसे श्रेष्ठ है। इसलिए वह औषधिरूप कहा जाता है। जो साधक अन्न ब्रह्म की ब्रह्मरूप में उपासना करते हैं, वे उसे प्राप्त कर लेते हैं।
आगे वे कहते हैं कि इस रसमय शरीर के भीतर जो प्राणमयपुरुष है, वह अन्न से व्याप्त है। वह प्राणमयपुरुष ही आत्मा है।
इस प्रतिपादन से अनुमान होता है कि अन्न को कितना महत्त्व हमारे ऋषिगण देते आए हैं। यह सब अकारण नहीं है। अन्न को औषधि की उपमा देते हुए कहा गया है कि यह सभी प्राणियों के क्षुधाजन्य संतापों को दूर करता है, साथ ही उनके मन की गतिविधियों, दैनंदिन जीवन की हलचलों का भी निर्धारण करता है।
‘जैसा खाये अन्न वैसा बने मन’ वाली उक्ति बहुत ही सारगर्भित है। मन को सात्विक बनाना आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से नितांत आवश्यक है। उसके लिए आहारशुद्धि को प्रथम चरण माना गया है। तमोगुणी, उत्तेजित करने वाला, अनीति उपार्जित, कुसंस्कारियों द्वारा पकाया-परोसा भोजन न केवल मनोविकार उत्पन्न करता है वरन रक्त को अशुद्ध, पाचन को विकृत करके स्वास्थ्य संकट भी उत्पन्न करता है। आत्मिक प्रगति में, साधना की सफलता में तो कुधान्य का, अभक्ष्य का विषवत् प्रभाव पड़ता है। मन की चंचलता इतनी तीव्र हो जाती है कि सामान्य क्रियाकलापों में एकचित्त होकर कुछ कर सकना कठिन हो जाता है। फिर साधना में जिस एकाग्रता की, मनोयोग की आवश्यकता है, वह अभक्ष्य एवं अधिकमात्रा में खाने पर मिल ही नहीं सकती।
पिप्पलाद ऋषि पीपलवृक्ष के फल मात्र खाकर अपना निर्वाह करते थे। कणाद ऋषि जंगली धान्य समेट कर उससे अपनी क्षुधा शांत करते थे। कृष्ण−रुक्मिणी का जंगली बेर खाकर तथा पार्वती के सूखे पत्तों पर रहकर तप करना प्रसिद्ध है। उच्चस्तरीय साधनाओं में व्रत−उपवास का अविच्छिन्न स्थान है। इसके लिए अन्न की सात्विकता पर ध्यान देना अनिवार्य हो जाता है। ऐसा न करने से वही स्थिति होती है जो भीष्म पितामह की हुई। वे शरशैय्या पर लेटे युधिष्ठिर को धर्मोपदेश दे रहे थे कि अचानक द्रौपदी हँस पड़ी। वे बोले— ”बेटी! तू इतनी शीलवती है, फिर असमय क्यों बड़ों के समक्ष तू हँसी।” द्रौपदी ने कहा— "पितामह! अपराध क्षमा करें। जब मेरे वस्त्र खींचे जा रहे थे और दुर्योधन की उस राजसभा में आप भी वहाँ विराजे हुए थे, तब आपका यह ब्रह्मज्ञान कहाँ चला गया था?” “बेटी तेरा सोचना ठीक है,” भीष्म पितामह ने गुत्थी हल करते हुए कहा—"उस समय में दुर्योधन का अन्यायपूर्वक अर्जित कुधान्य खा रहा था तो मेरी बुद्धि भी अशुद्ध थी, वह मन भी कुसंस्कार युक्त। इसी कारण मैं अन्याय के विरुद्ध बोल न सका।” कितना मार्मिक प्रेरणाप्रद प्रसंग है यह, जो प्रत्यक्षतः अन्न और चिंतन का पारस्परिक संबध बताता है।
सभी आध्यात्मिक साधनाएँ उपवास प्रधान होती हैं। कई कड़ी होती हैं, कुछ मृदु। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक क्रमशः घटाते हुए बढ़ाने वाला चांद्रायणक्रम इन अंकों में पहले ही विस्तार से समझाया जा चुका है। कुछ लोग मात्र जल या पेय पर उपवास करते हैं। प्राचीनकाल के मनोबल और शरीरगत क्षमता को दृष्टिगत रखकर यह कभी ठीक रहा होगा, पर अब बदली हुई परिस्थितियों में इस क्रम को सरल बनाया जा सकता है। पर इसमें उपवास का महत्त्व, अन्न की सात्विकता की प्रधानता अपनी जगह है। उपवास एक शरीरगत तितिक्षा है। अन्न की सात्विकता, उसका चयन तथा उसे ग्रहण की जाने वाली मात्रा का सीमा बंधन वस्तुतः चिंतन से जुड़ी हुई एक महत्त्वपूर्ण साधना है।
आरोग्य-रक्षा की दृष्टि से पेट को भी साप्ताहिक छुट्टी मिलना चाहिए। उद्योगपति जानते हैं कि श्रमिकों को अवकाश न दिया जाए, उन्हें निरंतर काम में लगाया जाए तो उनकी शारीरिक−मानसिक क्षमता घट जाती है; फलतः छुट्टी देने पर जितना काम का हर्ज होता है, उससे भी अधिक की हानि होती है। अतएव मालिक और मजदूर दोनों का ही लाभ इसमें है कि श्रम और अवकाश दोनों का तालमेल बिठाकर चला जाए। यही नीति पेट के संबंध में भी अपनानी पड़ेगी। उसे भी साप्ताहिक अवकाश चाहिए। अवकाश अर्थात उपवास। पूर्ण उपवास का तात्पर्य है, निराहार— जल का निर्वाह। इतना न बन पड़े तो रस, छाछ जैसे द्रव आहार लिए जाएँ। इतना भी संभव न हो तो शाकाहार–फलाहार पर गुजारा किया जाए। वह कठिन पड़े तो एक समय लंघन अथवा आहार का आधा भाग घटा देना चाहिये। जो खाया जाय वह सात्विक, सुपाच्य हो। इंद्रिय संयम के अभ्यास के रूप में अस्वाद भोजन सप्ताह में एक या दो बार कर लिया जाय तो वह भूख जैसी छोटी कठिनाई बर्दाश्त करने का अभ्यास कराने वाली तितिक्षा से भी अधिक फलदायी होता है। साधक का आहार सात्विकता की दृष्टि से संतुलित होता है, पुष्टाई की दृष्टि से नहीं। इस एक तथ्य को आत्मिक-पथ के हर पथिक को ध्यान में रखना होता है।
हठयोग प्रदीपिका कहती है—
अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्यो नियमग्रहः।
जन संगश्च लौल्यं च षडभिर्योगो विनश्यति॥ 1/15
अर्थात्— "अधिक आहार, अधिक परिश्रम, अनियमित दिनचर्या, अधिक लोगों के घिरा रहना, चंचलवृत्ति ये योगमार्ग में साधक के प्रमुख विघ्न हैं।” आत्मपरिष्कार की साधना में उच्चस्तरीय सोपानों से पूर्व आहारशुद्धि का ही व्रत लिया जाता है।
छांदोग्योपनिषद् में ऋषि कहते हैं कि “खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का हो जाता है। उसका स्थूलभाग मल, मध्यम भाग माँस और सूक्ष्मभाग मन बन जाता है। हे सौम्य! मन अन्नमय है! प्राण जलमय है, वाक् तेजोमय है।”
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि आत्मिक-प्रगति का मुख्य माध्यम मन है। वही बंधन और मोक्ष का कारण है। मन की चंचलता एवं कुटिलता को नियंन्रित करके ही अध्यात्म साधना के मार्ग मे प्रगति होती और तदनुसार सफलता मिलती है। इस प्रकार न केवल शरीरशुद्धि अपितु योगी के अनुरूप हलकी काया बनाने हेतु मनोनिग्रह एवं चित्तवृत्तियों के नियंत्रण के लिए भी अन्नशुद्धि अनिवार्य है। हर मार्गदर्शक साधक को अपने आहार पर ध्यान देने का निर्देश देता है। अन्न के स्तर में जितनी सात्विकता का समावेश होगा, मन उसी अनुपात से निर्मल बनता चला जाएगा।
शास्त्रकार का मत है—
अन्नं न निन्द्यात्। तद् व्रतम्। प्राणो वा अन्नम्। शरीरयन्नादम्। प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम्। शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः। तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठियतम्। स य एतदन्न मन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति। अन्न वानन्नादो भवति। महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन्। महान् कीर्त्या। –तैत्तिरीयोपनिषद् 3/7
यहाँ भावार्थ यह है कि अन्न की निंदा न की जाए। इस तथ्य को समझा जाए कि वही प्राण है और प्राण ही अन्न है, क्योंकि अन्न से ही प्राणों में बल आता है और प्राणशक्ति से ही अन्नमय शरीर में जीवनी शक्ति आती है। प्राण ही शरीर में अन्न के रस को सर्वत्र फैलाता है। यदि आज की वैज्ञानिक भाषा में इस प्राण को ‘बायोइलेक्ट्रिसिटी’ अथवा जीवकोषों में विद्यमान 'एक्शन पोटेन्शियल' मान लिया जाए तो एन्जाइम्स, पाचक रसों व सूक्ष्मस्रावों के माध्यम से उसकी सारे अवयवों में ऊर्जा— प्राणशक्ति पहुँचाने की भूमिका को स्पष्ट समझा जा सकता है। यह एक सर्वमान्य अनुभूत सत्य है कि प्राणों को आहार न मिलने पर वे शरीर की धातुओं को ही सोखने लगते हैं। शरीर की स्थिति प्राण के अधीन होने से प्राण भी अन्न ही हुआ या उसका सूक्ष्म स्वरूप हुआ। इस तत्त्वदर्शन को समझने वाला ही प्राणशक्ति का सुनियोजन बल संवर्धन, योग साधन, शक्ति-उपार्जन एवं प्रसुप्त के जागरण में कर पाता है। ऐसे व्यक्ति की, जो ब्रह्मतेजसंपन्न होता है, कीर्ति संसार भर में फैलती है और उससे यह सृष्टि भी अभिनंदित होती है।
अन्न ही नहीं जल, जो नित्य विभिन्न अवसरों पर शारीरिक आवश्यकतानुसार ग्रहण किया जाता है, आहार है। उसका भी मनःस्थिति पर प्रभाव पड़ता है। आहारशुद्धि की तरह जलशुद्धि पर भी साधक को ध्यान देना चाहिए। इसीलिए साधना प्रयोजनों में पवित्र नदी−सरोवरों के जल को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। कहा गया है—
“आपो वा अन्नम्। ज्योतिरन्नादम्। अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम्। –तैत्तिरीयोप. 3/8
आज प्राचीनकाल के योगाभ्यासी ऋषियों की भाँति अन्न शुद्धिकर आहार लेना दुष्कर कार्य लगता है। वन्य-प्रदेशों में उपलब्ध कंद-मूल, फलों से वे अपना निर्वाह करते थे। उनके निवास भी उन्हीं क्षेत्रों में होते थे। अब वैसी स्थिति तो नहीं रही, पर जितना भी संभव हो सके, आहार की सात्विकता और ग्रहण की गई मात्रा पर अधिकाधिक अंकुश रखना अन्नमयकोश से प्रारंभ होने वाली साधना-प्रक्रिया की सफलता के लिए नितांत आवश्यक माना जाय। इस संबंध में शास्त्रमतों व वर्तमान परिस्थितियों में तालमेल बैठाकर कुछ निर्धारण कर लिए जाएँ। सप्ताह में एक दिन उपवास, नियम अवधि के लिए अस्वाद व्रत का पालन, एक समय अन्नाहार–एक समय शाकाहार, दूध−छाछ−रस−द्रव्य कल्प, दलिया या अमृताशन इत्यादि में से किसी एक को अपनाकर साधनावधि इसी प्रकार व्यतीत की जाए। इस तपश्चर्या का माहात्म्य अवर्णनीय है। सामान्यजन तो इसकी फलश्रुति चर्मचक्षुओं से स्वास्थ्य में परिवर्तन देखकर ही आश्चर्यचकित हो जाते हैं। जब साधना का, सात्विक जीवनक्रम का तथा सोद्देश्य चिंतन व दिशा-निर्धारण का इसमें समावेश हो जाता है तो अगणित विभूतियों के रूप में इसके परिणाम सामने आते हैं।
साधना-पथ के हर जिज्ञासु को इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए। आहार संबंधी सतर्कता अपनाकर अपने साधना पुरुषार्थ को सफल बनाना हर किसी के लिए संभव है।