‘साधना से सिद्धि’ में बाधक संचित दुष्कर्म

February 1982

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संचित दुष्कर्मों को यथास्थान छोड़कर आत्मिक-प्रगति की साधना कर सकना किसी के लिए भी संभव नहीं, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। कक्षाएँ उत्तीर्ण करके ही विद्यार्थी स्नातक की उपाधि पाते, उच्चपदाधिकारी बनते हैं। छलांगें भौतिक जगत में कई क्षेत्रों में लगाई जाती हैं और सफल भी होती हैं; पर आत्मिक-क्षेत्र में ऐसी सुविधा नहीं है। संचित दुष्कर्मों से विनिर्मित प्रारब्ध न केवल विपत्तियों–असफलताओं का त्रास देता है; वरन उच्चस्तरीय प्रगति के पथ पर चलने में भी अनेकों विघ्न उपस्थित करता है। रास्ते में अड़ी इन चट्टानों को हटाने−सरकाने के लिए साहसपूर्ण पराक्रम करना होता है। यही है वह प्रायश्चित-प्रक्रिया जिसे तप-साधना में वरिष्ठता–प्रमुखता दी गई है।

कर्मफल की संभावना सुनिश्चित है। उसे विश्व-व्यवस्था का एक अनिवार्य एवं अविच्छिन्न अंग ही समझा जाना चाहिए। इन संचयों को स्वयं ही भुगतना होता है। देवदर्शन, नदीस्नान, पूजा, उपचार, कथावार्ता एवं छुट-पुट कर्मकांडों का प्रयोजन इतना ही है कि उनसे परिशोधन, परिमार्जन की ओर ध्यान मुड़े, महत्त्व समझने का अवसर मिले और वह साहस उभरे जिससे कर्मफल भुगतने का दूसरा विकल्प प्रायश्चित स्वेच्छापूर्वक बन पड़े। प्रायश्चित के लिए किए जाने वाले व्रत-उपवासों के सामयिक प्रतिफल भी होते हैं; किंतु वास्तविक एवं चिरस्थाई लाभ देने वाला तथ्य यह है कि दुष्कृत्यों के प्रति घृणा उभरे, भविष्य में वैसा न करने का संकल्प मचले, साथ ही जो किया गया हो उसकी क्षतिपूर्ति करने ही सदाशयता की खाई पाटने के लिए उत्साह उत्पन्न करें।

यह सारा संसार कर्म-व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। भगवान ने दुनिया बनाई और उसके सुसंचालन के लिए कर्म-विधान रच दिया। ‘जो जैसा करता है वह वैसा भोगता है,' सिद्धांत अकाट्य है। लोग भ्रम में इसलिए पड़ते हैं कि कई बार कर्मों का तत्काल फल नहीं मिलता, उसमें विलंब हो जाता है। यदि शुभ−अशुभ कर्मों का फल तत्काल मिल जाया करता तो फिर दूरदर्शिता, विवेकशीलता की आवश्यकता ही न पड़ती। आग छूते ही हाथ जल जाता है। इस प्रत्यक्ष तथ्य के कारण कोई आग में हाथ डालने की मूर्खता नहीं करता; किंतु सुकृत्यों और दुष्कृत्यों का परिणाम तत्काल नहीं मिलता। उसके परिपाक में देरी हो जाती है। इतने में ही बालबुद्धि के लोग अधीर हो जाते हैं। पुण्य के संबंध में निराश और पाप के संबंध में निर्भय हो जाते हैं। जो करणीय है उसे छोड़ बैठते हैं और जो न करना चाहिए उसे करने लगते हैं। यही वह माया है जिसके बंधनों में जकड़े हुए लोग दिग्भ्रांत होते, भूलभुलैयों में उलझते तथा भटकावों में खिन्न, उद्विग्न बने दिखाई पड़ते हैं।

आज का जमाया हुआ दूध कल दही बनता हैॆ। आज का अध्ययन व्यायाम, व्यवसाय आज ही कहाँ फल देता है? परिणाम में देर लगने पर बालक निराश हो सकते हैं; पर विचारशील लोग अपनी निष्ठा विचलित नहीं होने देते और आशा, विश्वास के साथ काम करते रहते हैं। असंयम बरतने पर उसी दिन शरीर रुग्ण नहीं हो जाता, जिस दिन चोरी की जाए, उसी दिन जेल भुगतनी पड़े, ऐसा कहाँ होता है? तो भी समझदारी सुझाती है कि कल नहीं तो परसों परिणाम मिलकर ही रहेगा। यही दूरदर्शिता सत्कर्मों-दुष्कर्मों के सुनिश्चित परिणाम को ध्यान में रखते हुए अपनाई जानी चाहिए; पर लोग भ्रमग्रस्त होकर कर्मफल के संबंध में विश्वास छोड़ बैठते हैं। इसी इनकारी को वास्तविक नास्तिकता कहना चाहिए।

दुष्कर्मों का प्रतिफल कई रूपों में भुगतना पड़ता है। लोकनिंदा होती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों की आँखों में अप्रामाणिक−अविश्वस्त ठहरते हैं। उन्हें किसी का सघन विश्वास एवं सच्चा सहयोग नहीं मिलता। श्रद्धा और सम्मान तो उसी को मिलता है, जिसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध होती है। जन−विश्वास एवं सहयोग के आधार पर कोई व्यक्ति प्रगति करता और सफल होता है। संदिग्ध चरित्र व्यक्तियों को इस लाभ से वंचित रहना पड़ता है और वे मित्रविहीन एकाकी नीरस जीवन जीते हैं। घनिष्ठता का लाभ तो उन्हें स्वजनों से भी नहीं मिलता। वे भी सदा आशंका की ही दृष्टि से देखते हैं और दिखावे का सहयोग दे पाते हैं। आत्मप्रताड़ना का दुरूह दुःख ऐसे ही लोगों को सहना पड़ता है। दूसरों को झुठलाया जा सकता है; पर अपनी ही आत्मा को कैसे बहकाया जाए? वह दुष्कर्मों से स्वयं खिन्न रहती है। आत्मधिक्कार से आत्मबल निरंतर गिरता जाता है।

समाज में तिरस्कार, असहयोग, विरोध, उपेक्षा जैसे प्रत्यक्ष हानि है। जिसके ऊपर घृणा और तिरस्कार बरसता है, उसकी अंतरात्मा को पत्थर बरसने से भी अधिक अंतःपीड़ा सहनी पड़ती है। धन छिन जाना उतनी बड़ी हानि नहीं है जितना कि विश्वास, सम्मान और सहयोग चला जाना। दुष्कर्मों का यह सामाजिक दंड हर कुमार्गगामी को भुगतना पड़ता है। पाप और पारा छिपता नहीं, वह फूट−फूटकर देर−सबेर में बाहर निकलता ही है। सत्कर्म छिप सकते हैं, दुष्कर्म नहीं। हींग की गंध कई थैलियों में बंद करके रखने पर भी फैलती है और दुष्कर्मों की दुर्गंध हवा में इस तरह उड़ती है कि किसी के छिपाए नहीं छिपती। समाज दंड— असहयोग-बहिष्कार के रूप में तो बरसता ही है; कई बार वह प्रतिशोध और प्रत्याक्रमण के रूप में भी सामने आता है। लोग अनीति के विरुद्ध उबल पड़ते हैं तो दुरात्मा का कचूमर ही निकालकर रख देते हैं। न केवल अध्यात्म-क्षेत्र में; वरन भौतिक जीवन में भी यही सिद्धांत काम करता है। रक्तविकार जैसे रोगों को दूर करने के लिए कुशल वैद्य पेट की सफाई करने के उपरान्त अन्य रक्तशोधक उपचार करते है। कायाकल्प चिकित्सा में बलवर्धक औषधियों को नहीं, संचित मलों का निष्कासन करने वाले उपायों को ही प्रधान रूप से कार्यान्वित किया जाता है। वमन, विरेचन, स्वेदन आदि क्रियाओं द्वारा मल-निष्कासन का ही प्रयास किया जाता है। इसमें जितनी सफलता मिलती जाती है। उसी अनुपात से जरा−जीर्ण रोगग्रस्त व्यक्ति भी आरोग्य लाभ करता और बलिष्ठ बनता चला जाता है। कायाकल्प चिकित्सा का विज्ञान इसी सिद्धांत पर आधारित है।

दोष−दुर्गुणों के रहते चिरस्थाई प्रगति के पथ पर चल सकना किसी के लिए भी संभव नहीं हुआ है। फूटे बर्तन में दूध दुहने से पल्ले कुछ नहीं पड़ता। पशुपालने और दुहने का श्रम निरर्थक चला जाता है। कषाय−कल्मषों से,दोष-दुर्गुणों से लड़ने के लिए जो संघर्ष-पुरुषार्थ करना पड़ता है उसी के विधि−विधानों को तप-साधना कहते हैं।

आयुर्वेद के प्रख्यात ग्रंथ 'माधव निदान' के प्रणेता माधवाचार्य अपने साधनाकाल में वृन्दावन रहकर समग्र तन्मयता के साथ गायत्री महापुरश्चरणों में संलग्न थे। उन्होंने पूर्ण विधि−विधान के साथ लगातार ग्यारह वर्षों तक अपनी साधना जारी रखी। इतने पर भी उन्हें सिद्धि का कोई लक्षण प्रकट होते दिखाई न पड़ा। इस असफलता से उन्हें निराशा भी हुई और खिन्नता भी। सो उसे आगे और चलाने का विचार छोड़कर काशी चले गए।

काशी के गंगा तट पर वे बडे दुःखी मनःस्थिति में बैठे हुए थे कि उधर से एक अघोरी कापालिक आ निकला। साधक की वेशभूषा और छाई हुई खिन्नता जानने के लिए वह रुक गया और कारण पूछने लगा, माधवाचार्य ने अपनी व्यथा कह सुनाई। कापालिक ने आश्वासन दिया कि उसे भैरव की सिद्धि का विधान आता है। एक वर्ष तक उसे नियमित रूप से करते रहने से सिद्धि निश्चित है। माधवाचार्य सहमत हो गए और कापालिक के बताए हुए विधान के साथ मणिकर्णिका घाट श्मशान भूमि की परिधि में रहकर साधना करने लगे। बीच−बीच में कई डरावनी, लुभावनी परीक्षा होती रहीं। उनका धैर्य और साहस सुदृढ़ बना रहा, एक वर्ष पूरा होते−होते ही भैरव प्रकट हुए और वरदान माँगने की बात कहने लगे।

माधवाचार्य ने आँख खोलकर चारों ओर देखा, पर बोलने वाला कहीं दिखाई न पड़ा। उन्होंने कहा— "यहाँ आए दिन भूत−पलीत ऐसी ही छेड़खानी करने आया करते हैं और ऐसी ही चित्र−विचित्र वाणियाँ बोलते हैं। यदि आप सचमुच ही भैरव हैं तो सामने प्रकट हों। आपके दर्शन करके चित्त का समाधान कर लूँ तो वरदान माँगू।” इसका उत्तर इतना ही मिला। “आप गायत्री उपासक रहे हैं। आपके मुखमंडल पर इतना ब्रह्मतेज छाया हुआ है कि सामने प्रकट होकर अपने को संकट में डालने की हिम्मत नहीं है। जो माँगना हो ऐसे ही माँग लो।” माधवाचार्य असमंजस में पड़ गए यदि गायत्री पुरश्चरणों से इतना ही ब्रह्मतेज उत्पन्न होता है तो उसकी कोई अनुभूति मुझे क्यों नहीं हुई? सिद्धि का आभास क्यों नहीं हुआ? यह प्रश्न बड़ा रहस्यमय था, जो भैरव के सम्वाद से ही उपजा था। उन्होंने समाधान भी उन्हीं से पूछा। कहा— "देव! यदि आप प्रकट नहीं हो सके और गायत्री उपासना को इतनी तेजस्वी पाते हैं तो कृपाकर यह बता दें कि मेरी इतनी निष्ठा भरी उपासना निष्फल कैसे हो गई? इतना समाधान करा देना भी आपका वरदान पर्याप्त होगा, जब आप गायत्री तेज के सम्मुख होने तक का साहस न कर सके तो आपसे अन्य वरदान क्या माँगू।"

भैरव ने उनकी इच्छापूर्ति की और पिछले ग्यारह जन्मों के दृश्य दिखाये। जिसमें अनेकों पापकृत्यों का समावेश था। भैरव ने कहा— "आपके एक−एक वर्ष के गायत्री पुरश्चरण से एक−एक जन्मों के पाप कर्मों का परिशोधन हुआ है। ग्यारह जन्मों के संचित पाप-प्रारब्धों के दुष्परिणाम इन ग्यारह वर्षों के तप-साधन से नष्ट हुए है। अब आप नए सिरे से फिर उसी उपासना को करें। संचित प्रारब्ध की निवृत्ति हो जाने से आपको अब के प्रयास में सफलता मिलेगी।"

माधवाचार्य फिर वृन्दावन लौटे और बारहवाँ पुरश्चरण करने लगे। अबकी बार उन्हें आरंभ से ही साधना की सफलता के लक्षण प्रकट होने लगे और बारहवाँ वर्ष पूरा होने पर इष्टदेव का साक्षात्कार हुआ। उन्हीं के अनुग्रह से वह प्रज्ञा प्रकट हुई, जिसके सहारे 'माधव−निदान' जैसा महान ग्रंथ लिखकर अपना यश अमर करने और असंख्यों का हित साधन कर सकने की उपलब्धि उन्हें मिली और जीवन का लक्ष्य पूरा कर सकने में सफल हुए।

इस गाथा से इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि साधना की सिद्धि में प्रधान बाधा क्या है। संचित दुष्कर्म ही उस मार्ग की सफलता में प्रधान रूप से बाधक होते हैं। यदि उनके निराकरण का उपाय संभव हो सके तो अभीष्ट सफलता सहज ही मिलती चली जाएगी। यही बात संचित पुण्यकर्मों के बहुत देर में फल देने वाली व्यवस्था में जल्दी भी हो सकती है।

द्रुतगामी वाहनों पर सवार होकर पैदल चलने से देर में संपन्न होने वाली यात्रा अपेक्षाकृत कहीं जल्दी पूरी की जा सकती है। हमारे वर्तमान प्रयत्न ही सब कुछ नहीं होते, उनमें पूर्वसंचित सत्संग्रहों का भी योगदान होता है। उनका योगदान मिलने से सफलताओं का परिणाम स्वल्प प्रयत्न से भी इतना अधिक हो सकता है कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़े।

शरीर को जीवित रखने और अवयवों के संचालन में भी जठराग्नि ही काम करती है। सूर्य से लेकर चूल्हे तक अग्नि का ही सर्वत्र साम्राज्य छाया हुआ है। पदार्थ में हलचल, प्राणी में चिंतन की जो सामर्थ्य काम करती दिखती है, उसे अग्नि का एक नाम ‘आतप’ है। अध्यात्म-क्षेत्र में उसके उत्पन्न करने की पद्धति का नाम ‘तप’ है।

बालविनोद की प्रारंभिक साधनाएँ नित्यकर्म कहलाती हैं और उनमें देव प्रतिमाओं के पूजा-उपचार को भी महत्त्व दिया व माहात्म्य बताया जाता है। उच्चस्तरीय साधनाओं का सत्परिणाम भी असाधारण होता है। उसके लिए उनका मूल्य चुकाने के लिए क्लिष्ट तप-साधनों को उपयुक्त मार्गदर्शन में अपनाते हुए ही प्रगति-पथ पर अग्रसर होना होता है।


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