परिष्कृत एवं सोद्देश्य चिंतन-साधना का अनिवार्य अंग

February 1982

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हर दिन नया जन्म और हर रात नया मरण मानकर चलने से जीवन-संपदा के सदुपयोग के लिए अन्तःप्रेरणा उभरती है। इसलिए हर साधक को इस साधना को अनिवार्य रूप से अपनाना चाहिए।

प्रातःकाल नींद खुलते ही नया जन्म होने की कल्पना जगाई जाए, भावना उभारी जाय, साथ ही यह भी सोचा जाए कि मात्र एक दिन के लिए मिले इन सुयोग-सौभाग्य का श्रेष्ठतम सदुपयोग किस प्रकार किया जाए? कुछ समय इसी सोच-विचार में समय लगाने के उपरांत बिस्तर छोड़कर उठना चाहिए और नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए जाना चाहिए।

ठीक इसी प्रकार रात्रि को सोते समय यह विचार करना चाहिए कि निद्रा एक प्रकार की मृत्यु है। अब मरण की गोद में जाया जा रहा है। मृत्यु के उपरांत प्राणी, ईश्वर के दरबार में पहुँचता है। पहुँचते ही तत्काल पूछताछ होती है। उस पूछताछ का एक ही विषय होता है— "सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जिस प्रयोजन के लिए दिया गया था, उसका उपयोग किस प्रकार किया गया, इसका विवरण दिया जाए।” इस विवरण को शानदार ढंग से सिर उठाकर दिया जा सके और उसे सुनकर परलोक के अधिष्ठाता संतोष व्यक्त कर सकें। अगली बार कुछ बड़ा पद—उत्तरदायित्व सौंपने का विचार कर सकें। यही है वह भविष्य चिंतन जिसे रात्रि को सोते समय तब तक करते ही रहना चाहिए, जब तक कि निद्रा स्वयं आकर अपने आँचल से ढक न ले।

उठते समय की उपरोक्त साधना को ‘आत्मबोध’ और सोते समय वाले चिंतन को ‘तत्वबोध’ कहा गया है। यह दोनों देखने, कहने, सुनने एवं करने में अत्यंत साधारण जैसे लगते हैं; किंतु यदि चिन्ह पूजा की तरह उनकी लकीर न पीटी जाए और गंभीरतापूर्वक उन विचारणाओं की परिणति एवं फलश्रुति पर विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि इस बीज का विकास विस्तार विशालकाय वटवृक्ष के रूप में होता है। चिनगारी तनिक-सी होती है; किंतु उसे ईंधन की सुविधा मिल सकें तो उसे प्रचंड दावानल बनते और योजनों लंबे वनप्रदेश उदरस्थ करते देर नहीं लगती। आँख से न दीख पड़ने वाला, बाल की नाक से भी कम विस्तार वाला शुक्राणु जब नौ महीने जितने स्वल्पकाल में एक अच्छा खाना शिशु बनकर प्रकट होता है तो कोई कारण नहीं कि उपरोक्त विचारद्वय समुचित परिपोषण पाने पर जीवन को देवत्व से लपेट लेने वाले वरदान— सौभाग्य के रूप में प्रकट-विकसित न हो सकें।

जन्म के उपरांत जीवन-संपदा के उपयोग का अवसर मिलता है और मरण के उपरांत ईश्वर की न्याय दीर्घा में खड़े होकर कृत्यों का परिणाम भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है। इन दोनों समस्याओं का सामना न करना पड़े, बचाव किसी भी मनुष्य शरीरधारी के लिए संभव नहीं। अस्तु उनका सामना करने के लिए मनोभूमि बनाने एवं तैयारी करने में ही बुद्धिमत्ता है। चिंतन-चेतना को इस संदर्भ में उपेक्षा नहीं बरतनी चाहिए; वरन् जो अवश्यंभावी है इसके लिए समय रहते जागरूकता बरतने एवं तत्परता अपनाने में ही दूरदर्शिता है।

इस तथ्य को जितनी गंभीरतापूर्वक समझा जाए उतना ही अच्छा है कि “उपलब्ध मनुष्य जीवन ईश्वर का सर्वोपरि उपहार है।” उसमें आत्मोत्कर्ष की समस्त संभावनाएँ भरी पड़ी है। साथ ही ईश्वर को प्रसन्न करने तथा उस अनुकंपा के आधार पर बहुत कुछ पाने का ठीक यही अवसर है। इसे महत्त्वहीन न समझा जाए, उसे भार की तरह न ढोया जाए। इस अलभ्य सौभाग्य को अस्त−व्यस्त प्रयोजनों में न गँवाया जाए। बुद्धिमत्ता इसी में है कि संयोगवश आँगन में लगे इस कल्पवृक्ष को ठीक सींचा-पोषा जाए— प्रतिकूलताओं से बचाया जाए और इस विकसित स्थिति तक पहुँचाया जाए, जिसमें उसके सुखद छाया में बैठने और अभीष्ट वरदान पाने का सौभाग्य बरसने लगे। अज्ञानग्रस्त इस अलभ्य अवसर का मूल्यांकन नही कर पाते हैं और न उसके सदुपयोग की कोई योजना-व्यवस्था बनाते हैं; फलतः अनाड़ी के हाथ पड़े हुए हीरे की हार की तरह उसके साथ खिलवाड़ हो तो धागे टूटने, मनके बिखरने जैसी विडंबना बनती रहती है। इससे बड़ी दुर्भाग्यभरी दुर्घटना और कोई हो नहीं सकती कि जीवन का महत्त्व न समझा जा सके, उसका मूल्यांकन न बन पड़े और किसी प्रकार मौत के दिन पूरे कर लेने के अतिरिक्त और कुछ पल्ले न पड़े। पेट-प्रजनन में व्यस्त रहना तो तुच्छ प्राणियों को क्रियाशील रखने वाले प्रकृति का हण्टर भर है। वह तो हर याेन में पड़ता ही रहा है, भविष्य में जन्म लेना पड़े तो उनमें भी यह सड़ासड़ बरसेगा ही। मानवी बुद्धिमत्ता की सार्थकता इसमें है कि वह इस अलभ्य अवसर का सौभाग्य-सदुपयोग मनुष्य को समझाए, उस निष्कर्ष पर पहुँचाए— उस मार्ग पर चलाए जिसके आधार पर वर्तमान को समुन्नत और भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकना संभव हो सकता है। उसके लिए उपयुक्त दिशाधारा का सुनिश्चित निर्धारण बन पड़े तो ही प्रस्तुत सौभाग्य से लाभांवित हो सकना संभव है। देखना यही है कि इस दैनंदिन जीवन की तप-साधना द्वारा जीवन को एक महान मोड़ दे सकने वाली प्रखरता से संपन्न बनाया जा सका या नहीं।

हर साधक को यही अनुभव करना चाहिए कि वे साधना की अवधि में माता के गर्भ में निवास कर रहे हैं और ऐसा आवश्यक पोषण प्राप्त कर रहे हैं, जिसके सहारे जन्म लेने के उपरांत समूचे जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सकने में समर्थ हो सके। गुरुगृह को भी माता के गर्भ सदृश्य माना गया है। साधक की इन दिनों मान्यता ऐसी ही होनी चाहिए। ऊषाकाल, रात्रि की दिखाई की विदाई और दिनमान की अगवानी करता है। साधना-अवधि में ऐसी ही अनुभूति होनी चाहिए कि पशु का स्तर त्यागने और देवस्तर में प्रवेश करने का यह ऊषाकाल है। इन्हीं क्षणों में महान परिवर्तन की संभावना बन रही है। सघन संव्याप्त तमस का पलायन और समूचे आकाश में प्रभाव का प्रकाश वितरण सच-मुच ही एक आश्चर्य है। इतने थोड़े क्षेत्रों में इतना महान परिवर्तन देखते हुए लगता है, ऊषाकाल की प्रभातबेला कितनी अद्भुत, कितनी सशक्त एवं कितनी सौभाग्यशाली है। ठीक इसी प्रकार साधना-तपश्चर्या की भूमिका भी ऐसी ही होनी चाहिए, जिसे कर्त्ता का अभिनव भाग्योदय कहकर शेष सारे जीवन सराहा और स्मरण रखा जा सके।

पर यह संभव तभी है जब साधक अपनी भाव-भूमिका को गतिशील रखें और पराक्रम की चरम सीमा तक पहुँचे। यों माता भी भ्रूण को बहुत कुछ देती है, पर उसे भ्रूण के निजी पुरुषार्थ की तुलना में नगण्य ही कहा जा सकता है। शरीरशास्त्री जानते हैं कि गर्भस्थ शिशु आत्मविकास के लिए जितना पराक्रम करता है उतना ही वह जन्म लेने के उपरांत भी जारी रख सके तो उसे देव-दानवों जैसी महानता उपलब्ध हो सकती है। भ्रूण जब परिपक्व हो जाता है तो उदरदरी से बाहर निकालने में उसी को चक्रव्यूह बेधने जैसा पराक्रम करना पड़ता है। प्रसवपीड़ा उसी व्याकुल प्रयत्नशीलता की परिणति है। यदि भ्रूण दुर्बल हो तो उसे पेट चीरकर ही बाहर निकालना पड़ेगा। स्वाभाविक प्रसव संभव न हो सकेगा। अंडे को मुर्गी सेती तो है, पर उसके भीतर भरे हुए कलल में अपना जो निजी समुद्र मंथन चलता है उसे देखकर चकित रह जाना पड़ता है। पका अंडा जब फूटने को होता है तो उसकी सारी भूमिका भीतर वाले चूजे को ही निभानी पड़ती है। फूटने के समय अंडा थरथराता है उसमें पतली दरार पड़ती है। दरार तेजी से चौड़ी होती है और बच्चा उछलकर ऊपर आ जाता है। यह पुरुषार्थ न बन पड़े तो अंडा सड़ेगा और उससे बच्चा निकलने की बात किसी भी प्रकार बनेगी नहीं। साधना-पथ के पथिक को दैवी अनुग्रह की भी कमी नहीं रहने वाली पर उतने भर से ही अभीष्ट प्रयोजन पूरा होने वाला नहीं है। भ्रूण एवं चूजे की तरह आवरण को तोड़कर बाहर निकलने के लिए पराक्रम तो उसका ही प्रमुख रहेगा। उस उक्ति में परिपूर्ण सच्चाई भरी हुई है, जिसमें कहा गया है कि “ईश्वर मात्र उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं।”

जीवन अपने आप में पूर्ण है। वह पूर्ण से उत्पन्न हुआ है और पूर्णता से परिपूर्ण है। अंगार और चिनगारी में आकार भेद तो है, पर गुण-धर्म का नहीं। परमात्मा विभु है और आत्मा लघु। यह आकार भेद हुआ, तात्त्विक दृष्टि से दोनों में समानता है। इसलिए “शिवोऽहम् –सच्चिदानंदोऽहम्’ रूप में उस तात्त्विक एकता का उद्बोधन कराया जाता है। इस तथ्य के रहते मनुष्य की दुर्गति क्यों होती है? वह दीन-दुर्बल क्यों रहता है? शोक−संताप क्यों रहता है? प्रगति-प्रक्रिया से वंचित रहने का क्या कारण है? इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है। उपलब्ध संपदा का अपव्यय-दुरुपयोग। इस दुर्गुण के रहते तो कुबेर का खजाना भी खाली हो सकता है। रावण जैसा समर्थ भी सपरिवार धराशायी हो सकता है। भस्मासुर, वृत्तासुर, हिरण्याक्ष जैसे दुर्दांत दैत्य बेमौत मारे गए, इस विनाशलीला में उनके अपने दोष−दुर्गुणों की भूमिका ही प्रधान थी।

मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु असंयम है। सामर्थ्यों का अपव्यय— दुरुपयोग ही असंयम है। शक्ति तथा संपन्नता का लाभ तभी मिलता है जब उसका सदुपयोग बन पड़े। दुरुपयोग होने पर तो अमृत भी विष बन जाता है। माचिस जैसी छोटी एवं उपयोगी वस्तु अपना तथा पड़ौसियों का घर-बार भस्म कर सकती है। ईश्वरप्रदत्त सामर्थ्यों का सदुपयोग कर सकने की सूझ−बूझ एवं संकल्पशक्ति को ही मर्यादापालन एवं संयमशीलता कहते है। इसी का अभ्यास करने के लिए कई प्रकार की तप-साधनाएँ करनी पड़ती है। साधना द्वारा उस प्रखरता को उभारना एक बड़ा उद्देश्य है, जो मानवीशक्ति को अभ्यस्त अपव्यय से बलपूर्वक बचाती और दबाव देकर उसे सत्प्रयोजनों में नियोजित करती है।


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