चांद्रायण-साधना— एक कायाकल्प उपचार

February 1982

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संचित पापकर्मों का प्रतिफल रोग, शोक, विक्षोभ, हानि, विपत्ति आदि के रूप में उपस्थित होता है। यह विपत्तियाँ भुगतनी पड़े, इसका आधार मनुष्य का भ्रष्ट चिंतन एवं दुष्ट आचरण ही होता है। पापकर्म के बीज सर्वप्रथम दुष्प्रवृत्ति बनकर अंकुर की तरह पौधे उगते हैं। इसके बाद वे पेड़-पौधे बनकर फलने-फूलने लगते हैं। जब तक वे फलने योग्य नहीं होते तब तक उनका स्वरूप पतन-पराभव के रूप में दृष्टिगोचर होने वाले दुराचरण जैसा होता है। पीछे जब वे यदि पुष्ट-परिपक्व हो जाते हैं तो आधि-व्याधि, विपत्ति, हानि, भर्त्सना के रूप में कष्ट देने लगते हैं। दुष्कर्मों के अकाट्य प्रतिफल से बचने का देवी, विपत्ति एवं समाज प्रताड़ना के अतिरिक्त दूसरा मार्ग प्रायश्चित का है। इस तप-साधना का आश्रय लेकर मनुष्य आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार का दुहरा प्रयोजन एक साथ पूरा कर सकता है।

प्रगति-पथ पर चलने के लिए आंतरिक अवरोधों से पीछा छुड़ाना और आत्मबल पर आश्रित अनुकूलताओं को अर्जित करने की आवश्यकता पड़ती है। यही है आत्मिक पुरुषार्थ का एकमात्र स्वरूप। यात्री को एक पैर उठाना दूसरा बढ़ाना पड़ता है। उठाने का तात्पर्य है कुसंस्कारों को छोड़ना, इसके लिए तप करना। बढ़ाने का अर्थ है— सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव एवं आचरण में सम्मिलित करना। कच्ची धातुओं को बहुमूल्य उपकरण के रूप में परिवर्तित करने के लिए प्रचंड ताप की भट्टी द्वारा गलाई-ढलाई करनी पड़ती है। गलाई को तप और ढलाई को योग कहते हैं। चांद्रायण में तप और योग दोनों का समावेश है। उसकी समूची प्रक्रिया में पग-पग पर परिशोधन और परिष्कार के उभयपक्षीय तत्त्व पूरी तरह गुँथे हुए हैं।

उपवास सुसंस्कारी अंत से काय-शोधन होता है और मनःक्षेत्र में प्रज्ञा का आलोक बढ़ता है। शरीरकल्प के यही दो आधार हैं। आत्मिक कायाकल्प के लिए भी शरीर की तप-तितिक्षा के आधार पर परिशोधन होता है। उपवास पर आधारित आहार-चिकित्सा को कायिक निरोगता का मूलभूत आधार माना जा सकता है। पेट का भार हलका रहने और सुसंस्कारी आहार से गुण, कर्म, स्वभाव पर उपयोगी प्रभाव पड़ने का प्रत्यक्ष लाभ स्वास्थ्य सुधार के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार इंद्रिय संयम, अर्थ संयम समय संयम और विचार संयम का अभ्यास करने से अवांछनीय दुष्प्रवृत्तियों से सहज ही छुटकारा मिलता है। अंधकार हटना और प्रकाश बढ़ना एक ही बात है। कुसंस्कार घटेंगे तो आंतरिक प्रखरता अनायास ही बढ़ती चली जाएगी। इसके अतिरिक्त उन दिनों आंतरिक परिवर्तन के लिए भावनात्मक प्रयत्न करने होते हैं और साथ-साथ योगाभ्यास सम्मत कोई अतिरिक्त प्रयत्न भी चलते हैं। यह अभ्युदय उत्कर्ष की सशक्त प्रक्रिया है।

प्रायश्चित में तीन पक्ष हैं। एक— व्रत-उपवास जैसी तितिक्षा। दूसरा— संचित कुसंस्कारों को उखाड़ने और उस स्थान पर उच्चस्तरीय शालीनता को स्थापित करने का अंतर्मुखी पुरुषार्थ। तीसरा— खोदी हुई खाई को पाटने वाली क्षतिपूर्ति के लिए पुण्य-परमार्थ का उदार साहस। इन तीनों के संयुक्त समावेश से प्रायश्चित की पूर्णप्रक्रिया सधती है। मात्र आहार में कटौती करने भर से तो चांद्रायण का एक छोटा भाग ही सधता है।

चांद्रायण को एक प्रकार से आयुर्वेदोक्त कायाकल्प उपचार के समान समूचे व्यक्तित्व को संशोधन-सम्वर्धन करने वाली प्रक्रिया कह सकते हैं। इसे आत्मिक कल्प कह सकते हैं। इतने पर भी कल्प के भौतिक सिद्धांत दोनों में ही एक जैसे हैं। एकांत सेवन, आहार संयम तथा निर्धारित चिंतन। यही तीन आधार चांद्रायण के भी हैं। रोगी अपने रोग का स्वरूप ही नहीं इतिहास भी चिकित्सक को बताता है, उसी निदान के आधार पर उपचार की व्यवस्था बनाती है। चांद्रायण में मार्गदर्शक को अपने संचित पापकर्मों का विस्तृत वर्णन–स्वभावगत दोष-दुर्गुणों का परिचय एवं भौतिक-आत्मिक अवरोधों का विवरण प्रस्तुत करना पड़ता है। इन दोनों पक्षों पर गंभीर विचार करने के उपरांत ही हर व्यक्ति के लिए कुछ विशेष परामर्श दिए जाते हैं, उपाय-उपचार बताए जाते हैं। चांद्रायण के सामान्य नियम उपचार तो एक जैसे हैं; किंतु साथ ही हर साधक की स्थिति के अनुरूप उसे कुछ अतिरिक्त उपाय-साधन भी बताए जाते हैं। इन निर्धारणों को कौतुक-कौतूहल एवं बेगार जैसी चिह्न पूजा नहीं बनाया जाता। लकीर पीटने की आधी-अधूरी, लंगड़ी-लूली-प्रक्रिया अपनाने भर से इतना बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं होता। उसमें गंभीर होना पड़ता है और निर्धारित अनुशासन का कठोरतापूर्वक परिपालन करना पड़ता है।

चांद्रायण तप घर के व्यस्त–अभ्यस्त वातावरण में नहीं हो सकता है। उपवासपूरक अनुष्ठान तो आए दिन होते रहते हैं। चांद्रायण उससे आगे की चीज है। उसके लिए तद्नुरूप तीर्थ जैसा पवित्र वातावरण, उपयुक्त साधन एवं ऋषिकृत्य मार्गदर्शन चाहिए। यह आवश्यकता शान्तिकुञ्ज गायत्री नगर में जैसी अच्छी तरह संपन्न हो सकती है, वैसी सुविधा कहीं अन्यत्र मिल सकना कठिन हैं। पूर्ण चांद्रायण एक महीने का— पूर्णिमा से पूर्णिमा तक होता है और लघु (शिशु) चांद्रायण दस दिन का। दोनों में समय का ही अंतर है। विधान-अनुशासन दोनों में एक जैसे हैं। सबसे महत्त्व की बात यह है कि शरीरगत अनुबंधों की निर्धारित दिनचर्या अपनाए रहने के अतिरिक्त मानसिक स्थिति ऐसी बनानी पड़ती है मानों किसी अन्य लोक में उन दिनों रहा जा रहा है। इन दिनों सांसारिक चिंतन एक प्रकार से विस्मृत ही कर देना चाहिए और मात्र अध्यात्म लोक की आवश्यकताओं तथा अंतःक्षेत्र की समस्याओं को हल करने में ही चित्त को पूरी तरह केंद्रित रखना चाहिए। भौतिक जीवन की समस्याएँ इतनी विकट होती हैं कि उन्हें सुलझाने वाले साधन जुटाने में प्रायः समूची जीवन अवधि खप जाती है। फिर आत्मिक जीवन तो और भी अधिक व्यापक एवं महत्त्वपूर्ण है। उसकी गुत्थियाँ सुलझाने और प्रगति के सरंजाम जुटाने के नए सिरे से, नए दृष्टिकोण तथा नया साहस जुटाना होता है। इतने बड़े काम के लिए निर्धारित साधनाकाल स्वल्प ही है। उसमें से भौतिक चिंतन एवं प्रयास के लिए तनिक भी कटौती नहीं करनी चाहिए। समय तथा मनोयोग को निर्धारित प्रयोजन में ही जुटाए रहना चाहिए, उसे अन्य किसी कार्य में रत्ती भर भी अस्त-व्यस्त नहीं करना चाहिए।

चांद्रायण साधना को ‘व्रत’, 'तप’ एवं ‘कल्प’ के नाम से जाना जाता है। ‘व्रत’ अर्थात् संयम, अनुशासन निर्धारण एवं परिपालन। 'तप' अर्थात संचित कुसंस्कारों के संघर्ष और शालीनता के अवधारणा का अभ्यास के संघर्ष और शालीनता के अवधारणा का अभ्यास-पुरुषार्थ। 'कल्प' अर्थात पिछली हेय स्थिति को उलटकर उसके स्थान पर उत्कृष्टता का प्रतिष्ठापन। यह तीनों ही प्रयास परस्पर मिलते हैं तो ज्ञान और कर्म की गंगा-यमुना मिलने से एक नई धारा भक्तिभावना की, दिव्य जीवन की सरस्वती के रूप में उद्भूत होती हैं। इस समन्वय में त्रिवेणी संगम बनता है। उसका अवगाहन करने वाले इस धरती पर स्वर्ग का आनंद लेते हैं। जीवनमुक्त बनते हैं और मनुष्य रूप में देवता कहलाते हैं। इसी परम लक्ष्य की पूर्ति करना चांद्रायण का आधारभूत उद्देश्य है।

चांद्रायण के तीन पक्ष हैं– (1) संयम साधना (2) प्रज्ञा उपासना (3) भविष्य निर्धारण की आराधना। संयम साधना में उपवास प्रमुख हैं। इस अवधि में सामान्य आहार की तुलना में आधा ही लिया जाता है। जो खाया जाए वह पूर्ण सात्विक एवं सुसंस्कारी हो, इसका ध्यान रखा जाता है। संयम को ही तप कहते हैं। सामान्य जीवन में यह तप चार प्रकार अपनाया जाता है। (1) इंद्रिय संयम के लिए ब्रह्मचर्य, मौन, अस्वाद आदि की तितिक्षा (2) अर्थ संयम के लिए मितव्ययिता परिश्रमशीलता अपनाकर सादा जीवन— उच्च विचार का अभ्यास। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह का अभ्यास। (3) समय संयम— एक घड़ी भी आलस्य-प्रमाद में बर्बाद न होने देना। दिनचर्या बनाकर उसके परिपालन में तत्परता बरतना (4) विचार संयम चिंतन की अस्त-व्यस्त उड़ानें भरने से रोकना। सौंपे हुए काम में ही मनोयोग नियोजित रखना। चांद्रायण में यह चारों ही संयम साधनाएँ तपश्चर्या के रूप में निर्धारित करनी होती हैं। तपस्वी सच्चे अर्थों में सामर्थ्यवान बनता है। उसकी ऊर्जा से प्रखरता, परिपक्वता बढ़ती हैं। तपस्वी ही शरीरगत ओजस्, मनोगत तेजस् एवं अंतःकरण वर्चस् से सुसंपन्न बनते हैं। इसी आत्मबल के सहारे ऋद्धि-सिद्धियों का द्वार खुलता हैं।

प्रज्ञा-उपासना में गायत्री पुरश्चरण मुख्य हैं। ढाई घण्टा नित्य का समय इसके लिए नियत है। इस बीच निर्धारित जप संख्या पूरी की जाए। साथ ही प्रभातकालीन सूर्य किरणों के तीनों शरीर में प्रवेश करने का ध्यान किया जाए। अनुभव किया जाए कि गायत्री के प्राण सविता देवता का दिव्य आलोक जीवनसत्ता के कण-कण में प्रवेश करके तीन अनुदान प्रदान करता है। स्थूलशरीर को सत्कर्म। सूक्ष्म शरीर को सद्ज्ञान। कारणशरीर को सद्भाव। इन्हीं तीनों को क्रमशः निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के अंतर्गत इन्हीं दिव्य अनुदानों का विवेचन किया जाता है और तृप्ति, तुष्टि, शांति की त्रिविधि विभूतियों के सहारे देवोपम जीवन जी सकने का लाभ समझाया जाता हैं। जिनको यह दिव्य संपदा जितनी मात्रा में उपलब्ध होती हैं, वह उसी अनुपात से आत्मसंतोष, जनसहयोग एवं दैवी अनुग्रह का प्रतिफल हाथों-हाथ प्राप्त करता हैं। ऋतंभरा प्रज्ञा ही गायत्री हैं। प्रज्ञा अर्थात दूरदर्शी विवेकशीलता। यही है मनुष्य का आराध्य इष्ट। इस दिशा में होने वाली प्रगति से इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति के रसास्वादन का लाभ मिलता है।

भविष्य निर्धारण को आराधना के निमित्त इस अवधि में स्वाध्याय-सत्संग और चिंतन-मनन के चार प्रयोजनों में निरत रहना पड़ता है। नित्यकर्म उपासना के अतिरिक्त जो भी समय खाली मिले उसमें इन्हीं चार प्रयोजन में मन को लगाए रहना पड़ता हैं। इन चारों का लक्ष्य एक ही हैं— आत्मपरिष्कार। उज्ज्वल भविष्य का योजनाबद्ध निर्धारण। इसके लिए आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास के चार प्रसंगों पर गंभीरतापूर्वक समुद्र-मंथन जैसा आत्मचिंतन करते रहना होता है। ताकि ईश्वरप्रदत्त अलभ्य उपहार मनुष्य जन्म का सही उपयोग संभव हो सके। इसके लिए शरीर निर्वाह एवं परिवार पोषण की तरह ही परमार्थ प्रयोजनों को महत्त्व देना होता हैं। आत्मकल्याण और लोक मंगल की समन्वित जीवनचर्या का निर्धारण एवं अभ्यास ही आराधना है।

परमात्मा को आदर्शों का समुच्चय मानकर उसके साथ तादात्म्य होना उपासना हैं। जीवन को अधिकाधिक पवित्र एवं प्रखर बनाने वाली सुसंस्कारिता की अवधारणा साधना है। लोक-मंगल का परमार्थ और उसके सहारे अपनी सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन ही आराधना है। उपासना परमात्मा की, साधना अंतरात्मा की और आराधना विश्वात्मा की की जाती है। चांद्रायणकाल में बहिर्मुखी माया-प्रपंच से अवकाश प्राप्त किया जाता है और उस अवधि में अंतर्मुखी रहकर अंतर्जगत का पर्यवेक्षण किया जाता है। इस दिशा परिवर्तन के लिए नियोजित आत्मसाधना जितनी भावपूर्ण एवं गंभीर होगी उतना ही चांद्रायण का प्रत्यक्ष वरदान उपलब्ध होगा।


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