शरीर की इंद्रियों की बनावट ही कुछ ऐसी है कि उनके माध्यम से दृश्य संसार, जो बाहर फैला पड़ा है, दिखाई पड़ता और अनुभव में आता है। जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है, उसे ही महत्त्व दिया जाता और उपयोग में लाया जाता है। इस मोटी दृष्टि के कारण सर्वत्र बिखरे पदार्थवैभव का भी मनुष्य पूरा-पूरा उपयोग नहीं कर पाता। दीर्घकाल तक तो पदार्थसत्ता की सामर्थ्य का पूरा परिचय भी नहीं मिल पाया था। एक सदी पूर्व तक यह कहाँ किसी को मालूम था कि पदार्थ का सूक्ष्मतम नगण्य घटक परमाणु प्रचंड शक्ति का स्रोत हो सकता है; पर मनुष्य की अनुसंधान प्रवृत्ति ने परमाणुसत्ता को कुरेदा; फलतः शक्ति का भांडागार हाथ लगा। आज सर्वत्र परमाणुशक्ति की गरिमा स्वीकार की जा रही है। ध्वंस और सृजन के दोनों ही प्रयोजनों में उसका उपयोग हो रहा है। परमाणु ही नहीं, इस धरती पर अभी बहुत कुछ खोजने योग्य, जानने योग्य और पाने योग्य है। मनुष्य ने बाह्यजगत में जितना प्रयास किया है, उसने उतना ही वैभव और वर्चस्व प्राप्त किया है। अनेकानेक वैज्ञानिक उपलब्धियाँ अनवरत शोध-प्रयासों का ही प्रतिफल हैं। समुद्र किसी समय निरर्थक व्यवधानमात्र समझा जाता था। उसकी खोजें हुई तो कितनी ही बहुमूल्य संपदाएँ प्राप्त हुई। शून्य और निस्तब्ध समझे जाने वाले अंतरिक्षीय क्षेत्र को शक्तियों और उपलब्धियों का केंद्र माना जा रहा है। शोधित वैज्ञानिकों की दृष्टि विशिष्ट भौतिक संपदाओं के लिए समुद्र और अंतरिक्ष में गाड़ी हुई है।
स्थूलजगत के जल, नभ और थल-क्षेत्र में जो कुछ वैभव भरा पड़ा है, उससे असंख्य गुना सूक्ष्मजगत में विद्यमान है, पर सूक्ष्म जगत इतना व्यापक है कि समूचा ब्रह्मांड ही उसकी परिधि में आ जाता है। इतने विस्तृत-क्षेत्र की खोज कैसे की जाए? तत्त्वदर्शियों ने इस प्रश्न का उत्तर हमें पिंडसत्ता में सन्निहित सूक्ष्मरूप में विद्यमान ब्रह्मतत्त्व की खोजबीन करने के रूप में दिया है। जिसके जानने से सब कुछ जाना जा सकता है। उस सत्ता का अवलंबन लेना ही श्रेयस्कर है।
हिरण्मये परे कोशे निरजं ब्रह्मनिष्कलम्।
तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विभः॥
2।2।9 (मुण्डकोप)
भावार्थ— यह कि हिरण्यमयकोश में निर्मल, सरल, शुभ्र, स्वच्छ ब्रह्म रहता है।
अपने भीतर क्या है? इसके विषय में मनुष्य की जानकारी अत्यल्प है। हाड़, माँस, रक्त, मज्जा से बने शरीर और मस्तिष्क का एक छोटा परिचय अब तक चिकित्साशास्त्री प्राप्त कर सके हैं; पर अपनी सत्ता का वास्तविक परिचय प्राप्त करने के लिए अंतर्मुखी होना पड़ता है। समुद्रतल में बिखरे मोती समेटने के लिए गहरे पानी में उतरने की, गोताखोर स्तर की प्रवीणता प्राप्त करनी पड़ती है। अंतःक्षेत्र में अपार वर्चस्व भरा पड़ा है उसे जानने के, खोजने के लिए न तो इंद्रियशक्ति काम देती है और न ही मस्तिष्क कुछ पुरुषार्थ दिखा पाता है। शरीर के भीतर क्या हो रहा है— रक्तसंचार-प्रक्रिया, पाचन-पद्धति, रोग-विकृति, मस्तिष्कीय गतिविधियों को कोई कहाँ जान पाता है। अपनी शारीरिक स्थिति का पता लगाने के लिए ‘पैथालॉजी’ विशेषज्ञ से जाँच कराते हैं। मानसिक रुग्णता का पता लगाने के लिए ‘न्यूरोलॉजिस्ट’ का दरवाजा खटखटाना पड़ता है, चारित्रिक एवं व्यक्तित्व के विश्लेषण के लिए आत्मवेत्ता गुरुजनों के सामने स्वयं को प्रस्तुत करना पड़ता है। सामान्य साधनों द्वारा अपनी सूक्ष्मस्थिति की जाँच करना संभव रहा होता तो गुत्थियों को समझने तथा सुलझाने में हम सहज ही सफल हो सकते थे, पर ईश्वर की लीला ऐसी विचित्र है कि उसने न केवल विशाल ब्रह्मांड; वरन हमारे हिस्से का पिंड भी रहस्य भरे गोरख धंधों से जकड़ दिया है, ताकि अविज्ञात को जानने के लिए विशेष प्रयत्न पुरुषार्थ का परिचय दें।
इंद्रियों के सहारे तो स्थूलशरीर की भीतरी गतिविधियों तक का परिचय नहीं मिल पाता, फिर सूक्ष्मतम आत्मसत्ता का स्वरूप उनसे कैसे जाना जा सकता है जो इंद्रियों, मन एवं बुद्धि की पकड़ सीमा के बाहर है। ऋषियों ने इसका हल साधना की ध्यान-प्रक्रिया द्वारा प्रस्तुत किया है। योग-साधना में ध्यान का महत्त्व सर्वोपरि है। विश्व के कोने-कोने में प्रचलित अनेकानेक धर्मों के साधना-विधानों में ध्यान की प्रक्रिया किसी न किसी रूप में अविच्छिन्न रूप से जुड़ी है। उसके बिना प्रगति का एक चरण भी आगे नही बढ़ता। योगशास्त्रों में ध्यान की महिमा का गुणगान अनेकों स्थानों पर किया गया है–
‘सयाध्धानं ब्रह्मेत्युपासते यावद ध्यानस्य गतंतत्रास्य यथा कामा चारों भवति,
यो ध्यानं ब्रह्मेंत्युपास्तेऽस्ति।’
–छान्दोग्य
अर्थात— जो यह मानकर उपासना करता है कि ‘ध्यान ही ब्रह्म है’ उसके ध्यान की गति इतनी विस्तृत हो जाती है, जितनी की ब्रह्म की।
‘न चक्षुषा गृह्यते नापि वाया नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणावा।
ज्ञान प्रसादेन विशुद्धसत्वस्ततस्तुतं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः।’
–मुण्डकोपनिषद्
अर्थात— वह परमात्मा न आँख से दिखता है और न वाणी से जाना जाता है, न उसे इंद्रियों के तप से या कर्म से जान सकते हैं। ज्ञान के निर्मलता से जब मनुष्य का अंतःकरण शुद्ध हो जाता है तब ध्यान द्वारा वह उस ब्रह्म को देखता है।
‘पराञ्चि खानि व्यतृण स्वयम्मूस्तस्मात्परांङ्पश्चयति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्त चक्षुरमृतत्वमिच्छन्॥’
–कठोपनिषद्
अर्थात— स्वयंभू भगवान ने इंद्रियों को विषयों की ओर जाने वाला बनाया है, इसलिए मनुष्य बाहर के विषयों को तो देखता है, किंतु आत्मा को नहीं देखता। कोई विरला ही ध्यानीपुरुष मोक्ष की ओर से अंतःकरण में रहने वाले परमात्मा को ध्यान द्वारा देखता है।
आत्मिक-प्रगति की दिशा में प्रथम चरण बढ़ाते हुए साधक को अंतर्मुखी बनना पड़ता है। कुछ समय के लिए बाहर की ओर आँखें बंद करके चित्तवृत्तियों को समेटकर भीतर क्या है, यह देखना-समझना पड़ता है। ध्यान इसी प्रक्रिया का नाम है। उसका एकमात्र प्रयोजन भीतरी सत्ता को, उसके वैभव को समझना है। साथ ही यह भी परखना होता है कि इस क्षेत्र में भरी हुई विकृतियों के दलदल में प्रगति का रथ कैसी बुरी तरह फँसा और रुका हुआ है। आंतरिक दोष-दुर्गुण ही बाह्यजीवन में शोक-संताप बनकर प्रकट होते हैं।
बोल-चाल की भाषा में किसी भूली हुई या खोई हुई वस्तु का स्मरण करने की मानसिक प्रक्रिया को ‘ध्यान करना’ कहते हैं। अध्यात्म दर्शन में भी वही तथ्य सामने आता है। हम अपने वर्चस्व को–लक्ष्य को पूरी तरह भूल बैठे हैं। मेले के आकर्षण में भटकते हुए बच्चे जैसी हमारी मनोदशा है। न गन्तव्य का पता है और न अभिभावकों का; पर भटकाव ने कुछ ऐसा जादू डाला है कि मेले की चमक-दमक ही सब कुछ दिखती है। ध्यानयोग का प्रयोजन अपने मूलस्वरूप को, अपने कण-कण में समाए हुए प्रसुप्त वैभव को, लक्ष्य को समझने के लिए अंतःक्षेत्र में प्रवेश करना है। प्रत्यक्ष से–भौतिक क्षेत्र से कुछ समय तक चित्त को पूरी तरह हटा लिया जाए और उतनी अवधि तक परोक्ष से–अभौतिक से रिश्ता जोड़ लिया जाए तो समझना चाहिए कि ध्यान का उद्देश्य समझ लिया गया।
आमतौर से ध्यान के लिए कोई दृश्य पदार्थ अथवा व्यक्तित्व को माध्यम बनाया जाता है। दृश्यों में प्रकाश-ज्योति को कल्पना-क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करना और श्रद्धासिक्त भावना से उसका अवलोकन कर सकना अधिक प्रचलित है। प्रकाश का ध्यान सार्वभौम है। विश्व के समस्त साधना-संप्रदायों ने किसी न किसी रूप में इसे मान्यता दी है। दीपक की ज्योति अथवा प्रभातकालीन सूर्यमंडल की आभा को ध्यान में लाया जाता है। सामान्य के अतिरिक्त भी ध्यान की कितनी ही असामान्य प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिसका अभ्यास समर्थ मार्गदर्शन में अपनी-अपनी मनोभूमि के अनुरूप किया जाता हैं।
साकार और निराकार दोनों ही प्रकार की ध्यान-प्रक्रियाओं में दिव्य प्रकाश-ऊर्जा के धारण करने तथा अंतःक्षेत्र के आलोकित होने की भावना अनिवार्य रूप से करनी होती है। इष्टदेव की ऊष्मा और तेजस्विता साधक के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारणशरीरों में भीतर प्रवेश करके नवचेतना का संचार कर रही है। ऐसी भावना की जाती है। प्रकाश-ऊर्जा के साधक में प्रवेश करने के साथ-साथ उसके स्थूलशरीर में ओजस्विता की वृद्धि होती अनुभव की जाती है। शक्ति, ज्ञान और भाव के संचार की आस्था जितनी प्रगाढ़ एवं परिपक्व होगी, उतनी ही ध्यान की सार्थकता मानी जाएगी।
भावरहित ध्यान से तो मात्र एकाग्रता का लाभ मिलता है, जिससे केवल भौतिक प्रयोजन पूरे हो सकते हैं। आत्मिक-प्रगति के लिए ध्यान के साथ भावनाओं का गहरा पुट होना चाहिए। इष्टदेव के साथ अपना भावनात्मक संपर्क प्रगाढ़ करना पड़ता है। प्यार-दुलार मनुहार की, श्रद्धा वात्सल्य की, घनिष्ठता और समीपता की, आंतरिक एकात्मकता, की इस प्रकार की अनुभूतियाँ अंतःक्षेत्र में उभारनी पड़ती हैं कि हम दो नहीं— दो शरीर एक प्राण हैं। दांपत्य जीवन में कभी-कभी ऐसी घनिष्ठता की बिजली कौंधती है, इस अभिन्न आत्मीयता का प्रगाढ़तम मनोभाव इष्टदेव के साथ संजोना पड़ता है। घनिष्ठता को सजीव बनाने एवं प्रत्यक्ष करने के लिए तरह-तरह के शारीरिक, मानसिक आदान-प्रदानों के कल्पना-चित्र गढ़ने पड़ते हैं। घनिष्ठ मित्रों के बीच, माता और पुत्र के बीच जो भाव भरे क्रीड़ा-विनोद संभव हैं, उनकी अनुभूतियाँ भावलोक में गढ़नी होती हैं। दृश्य की दृष्टि से इष्टदेव का बहिरंग परिकर और भाव की दृष्टि से प्रगाढ़ आत्मीयता के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली अनुभूतियाँ और संवेदनाओं की गहराई, इन दोनों स्थूल एवं सूक्ष्मतत्त्वों का समन्वय हो जाने से ध्यान की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती हैं। इससे मात्र एकाग्रता का ही लाभ नहीं मिलता वरन विश्वव्यापी दिव्यसत्ता के साथ घनिष्ठता बना लेने और उसके साथ संपर्क साध सकने वाले आत्मिक चुंबकत्व का भी विकास होता है। इस मार्ग पर चलते-चलते मनोनिग्रह और मनोलय की स्थिति प्राप्त हो सकती है तथा समाधि का, आत्मसाक्षात्कार एवं ईश्वरदर्शन का लाभ मिल सकता हैं। अस्तु, ध्यान साकार हो अथवा निराकार उसमें भाव-संवेदनाओं का गहरा पुट लगाते रहना आवश्यक है। यदि नीरस मन से उपेक्षापूर्वक प्रकाश अथवा आकृति का दर्शनमात्र किया जा रहा है तो, उस स्थिति में सरसता उत्पन्न ही न हो सकेगी और हजार प्रयत्न करने पर भी मन के बारंबार उचटने का व्यवधान दूर न हो सकेगा। मनुष्य की मूलसत्ता सरस है, वह सरसता से बँधती है। ध्यान में यदि सरसता मिली हुई होगी तो मनोनिग्रह से लेकर मनोलय के सभी चरण अनायास ही उठते चले जाएँगे और अभीष्टलक्ष्य तक पहुँचना सुगम हो जाएगा।
कायकलेवर को— शरीर के व्यायाम, संयम, पौष्टिक आहार के माध्यम से परिपुष्ट किया जाता है। अंतःचेतना को परिपुष्ट करने के लिए किए जाने वाले व्यायामों में–साधना उपचारों में ध्यान-प्रक्रिया का महत्त्व सर्वोपरि है। जप को परिशोधन और ध्यान को बीजारोपण की उपमा दी गई है। जपयोग से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से कषाय-कल्मषों के परिशोधन का प्रयोजन पूरा होता है। यह सोने को तपाकर खरा बना देने वाली बात है। अलंकार-आभूषण बनाने के लिए जो प्रयत्न करना पड़ता है, उसकी उपमा ध्यान से की जा सकती है। ध्यान के सहारे जो संकल्पशक्ति प्रखर होती है उसी के द्वारा अंतःशक्तियों के जागरण और दिव्यलोक से विभूतियों के अवतरण के दोनों लक्ष्य पूरे होते हैं। ध्यानयोगी व्यक्तित्व सम्पन्न बनता है और दिव्यशक्तियों का कृपापात्र भी। भीतर से ऋद्धियाँ उदय होती हैं और बाहर से सिद्धियाँ उपलब्ध होती हैं।
विस्मरण का निवारण–आत्मबोध की भूमिका में जागरण यही है ध्यानयोग का लक्ष्य। इस कल्पवृक्ष की छाया में बैठकर सब कुछ पाया जा सकता है। ईश्वरीय सत्ता से संपर्क, सान्निध्य, घनिष्ठता बना लेने के बाद ऐसा कुछ शेष नहीं रहता जिसे अभाव, दारिद्रय अथवा शोक-संताप कहा जा सके। ‘ध्यानयोग‘ इसी महान लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है।