आध्यात्मिक कायाकल्प की भाव–साधना

February 1982

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आध्यात्मिक भाव−कल्प को आयुर्वेदीय शरीरकल्प का समानांतर ही समझा जाना चाहिए। एक में काया की दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि अनपेक्षित परिस्थितियों से मुक्त किया जाता है, दूसरी में आस्था, आकांक्षा एवं अभ्यास पर चढ़ी हुई कुसंस्कारिता से त्राण पाने का प्रयत्न किया जाता है।

शरीर की प्रकृति-संरचना ऐसी अद्भुत है कि यदि उस पर असंयमजन्य अस्त–व्यस्तता न लादी जाए तो वह शतायु की न्यूनतम परिधि को पार करके सैकड़ों वर्ष जी सकती है। मरण तो प्रकृति धर्म है पर जीर्ण-शीर्ण होकर जीना मनुष्य का अपना उपार्जन है। आरंभ में ही में ही सुपथ पर चला जाए तब तो कहना ही क्या, अन्यथा मध्यकाल में रुख बदल दिया जाए तो भी ऐसा सुधार हो सकता है, जिसे अद्भुत-अप्रत्याशित कहा जा सके।

चेतनातंत्र की संरचना भी ऐसी ही है। ईश्वर का अंश होने के कारण मानवी चेतना में उच्चस्तरीय विभूतियाँ भरी पड़ी हैं। पिंड ब्रह्मांड का छोटा रूप ही तो है। परमात्मा की ही छोटी प्रतिकृति आत्मा है। शरीर में वे सभी तत्त्व विद्यमान हैं जो प्रकृति के अंतराल में बड़े एवं व्यापक रूप में पाए जाते हैं।

कल्प-साधना से न केवल आरोग्य लाभ मिलता है; वरन तपश्चर्या की ऊर्जा से स्वयं को पकाकर ऐसा भी बहुत कुछ पाया जा सकता है, जो प्रकृति की रहस्यमयी परतों में खोजा-पाया जाता है। सिद्धपुरुषों का प्रकृति पर आधिपत्य होता है। इनका आधारभूत कारण यह है कि काया में उन्हीं रहस्यों की बीजरूपी उपस्थिति को कृषिकार्य जैसे साधनों से विकसित कर लिया जाता है; फलतः काया समूची माया का प्रतिनिधित्व करने लगती है। काया और प्रकृति के बीच आदान−प्रदान होने लगता है। जिस प्रकार पृथ्वी के ध्रुवकेंद्र व्यापक ब्रह्मांड से अपनी आवश्यक सामग्री खींचते, उपयोग करते रहते है, उसी प्रकार सिद्धपुरुषों की काया न केवल ब्रह्मांडव्यापी माया से— प्रकृति से आदान−प्रदान करती है; वरन चेतनात्मक विशेषता के कारण कई बार उस पर आधिपत्य भी करने लगती है। तपस्वियों की अलौकिक चमत्कारी सिद्धियों का यही रहस्य है।

आत्मा के नाम से पुकारी जाने वाली ब्रह्मऊर्जा की छोटी चिनगारी का मौलिक स्वरूप भी प्रायः वैसा ही है। वह भी उतनी ही जाज्वल्यमान— प्रदीप्त है। उसकी तीव्रता में मंदता एवं ऊर्जा में कमी तो कषाय−कल्मषों के कारण आती है। पतित— पराजित तो यह आवरण करता है। दर्पण के सामने जो भी वस्तु आती है, उसका प्रतिबिंब दिखने लगता है। मूढ़ता और दुष्टता सामने हो तो आत्मा का स्वरूप भी वैसा ही दिखने लगता है। यदि पर्दा हटा दिया गया तो दृश्य बदलते देर न लगे।

पुरुष−पुरुषोत्तम की, जीव-ब्रह्म की, नर-नारायण की एकता का प्रतिपादन काल्पनिक नहीं है। योगीजनों का प्रमाण— उदाहरण सामने है। उन्हें ईश्वर नहीं तो ईश्वरवत्— ईश्वर का प्रतिनिधि तो माना ही जाता है। इस स्थिति को प्राप्त कर सकना हर किसी के लिए संभव है। मनुष्य शरीर में अनेकों देवदूत समय−समय पर आए है और ऐसे काम करते रहे हैं, जिससे उन्हें अवतार की— भगवान की मान्यता मिली। इस स्थिति को उपलब्ध करने में किसी दैवी वरदान की आवश्यकता नहीं पड़ती। मनुष्य अपने ही पराक्रम-पुरुषार्थ से कषाय−कल्मषों के आच्छादन को तोड़ना है और चक्रव्यूह बेधकर बाहर जा निकलता है। चक्रवेधन जैसी प्रक्रियाएँ भवबंधनों की जकड़न तोड़ने और चक्रव्यूह से बाहर निकलने की भावनात्मक प्रक्रिया है। उसे पूरी करने वाले योगी उस जीवनमुक्त स्थिति को प्राप्त करते हैं, जिनका सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य नामों से वर्णन−विवेचन किया जाता है।

‘योग' किसी शारीरिक या पदार्थपरक हलचल का नाम नहीं है। जैसा कि आमतौर से आसन, प्राणायाम या नेति, धोति आदि को बताया जाता है। ये तो शरीर और मन का व्यायाम भर है जो प्रकारांतर से आत्मपरिष्कार में सहायक सिद्ध होते हैं। तत्त्वतः योग अंतराल पर चढ़े हुए अवांछनीय आच्छादनों को हटाने और उनके स्थान पर उच्चस्तरीय परिधान पहनाने की भावनात्मक प्रक्रिया है। उसमें अभ्यस्त आदतों के रूप में स्वभाव का अंग बनी हुई कुसंस्कारिता की जड़ें काटनी होती हैं और उन झाड़−झंखाड़ों के स्थानों पर उच्चस्तरीय आस्थाओं को अंतराल में उगाना— परिपुष्ट करना होता है। अन्तःक्षेत्र का यह समुद्रमंथन ही ‘योग‘ है। खारे जल से युक्त सागर को मथकर किसी समय विषवारुणी को हटाया और अमृत जैसी अनेकों विभूतियों को हस्तगत किया गया था। योग व्यक्तिगत ‘समुद्रमंथन’ है जिसकी सारी प्रक्रिया अंतःक्षेत्र में चलती है। उखाड़ने और जमाने के ऊहापोह से धातुओं का ताप भट्टी में गरम होता है और गलाने–ढलाने का कायाकल्प प्रस्तुत करता है। इसी को योग-साधना कहते हैं। संक्षेप में आंतरिक परिष्कार का नाम ‘योग' और क्रिया−प्रक्रिया में संयम-अनुशासन का समावेश ‘तप’ कहा जाता है। इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ प्रत्यक्ष प्रयोगोपचार भी चलाने पड़ते हैं। योग-साधना— तपश्चर्याओं की समस्त ध्यानपरक, तितिक्षापरक क्रिया−प्रक्रिया ऐसे ही निर्धारणों से भरी पड़ी है। इतने पर भी इस तथ्य को समझ ही लेना चाहिए कि उपचारों की आवश्यकता इसीलिए पड़ती है कि व्यक्तित्व के अदृश्य स्तर का; अंतराल का, कायाकल्प संभव हो सके। दृष्टिकोण और कार्य−प्रवाह में निकृष्टता यथावत् बनी रहे और क्रिया−प्रक्रिया के रूप में चित्र−विचित्र उपचार चलते रहें तो समझना चाहिए कि जड़ की उपेक्षा करके पत्ते धोने जैसी विडंबना चल रही है।

मंथन में रई घुमाई जाती है। उसकी रस्सी एक बार आगे चलती है, दूसरी बार पीछे लौटती है। पीछे लौटना चिंतन है और आगे बढ़ना— मनन। चिंतन को आत्मसमीक्षा और आत्मसुधार कह सकते हैं। उसे वस्तुतः तपश्चर्या की, संयम-अनुशासन अपनाने की पृष्ठभूमि कहना चाहिए। मनन को आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास की पृष्ठभूमि कहना चाहिए। क्षुद्रता को, महानता के साथ जोड़ देना ही योग है। इस उद्देश्य के लिए कामना को भावना में, तुच्छ को महान में, सीमित को असीम में परिवर्तित करना होता है। यही योग है। उसमें अपनी आस्थाएँ, आकांक्षाएँ एवं चिरसंचित आदतें किस प्रकार उच्चस्तरीय बन सकें, इसका निर्धारण एवं कार्यान्वयन करना होता है। प्रगतिक्रम को व्यवहार में उतारने की, योजनाबद्ध साहसिकता की, पृष्ठभूमि मनन के माध्यम से ही बनती है।

साधनावधि में आस्था एवं विचारणा-क्षेत्र के नवनिर्माण का प्रयत्न पूरी तत्परता के साथ चलना चाहिए। शरीर तप−अनुशासन में संलग्न रहे, समय−चर्या उन्हीं अनुबंधों के शिकंजे में किसी रहे; किंतु विचार-प्रवाह को सतत भौतिक क्षेत्र से हटाकर अंतर्मुखी रहने के लिए विवश किया जाता रहे। इन दिनों भौतिक क्षेत्र की चिंता−समस्याओं से उबर ही लेना चाहिए। जो गंभीरतापूर्वक कभी विचारा ही नहीं गया, जिस उद्देश्य के लिए यह जन्म हुआ था, उस पर चिंतन ही नहीं किया गया, उसे इन दिनों सोचना चाहिए। जिस क्षेत्र में कभी बुहारी तक नहीं लगी, कभी दृष्टि ही नहीं गई, उसे इन दिनों साफ−सुथरा बनाने से लेकर सुंदर–सुसज्जित बनाने के लिए तत्परता एवं तन्मयता के साथ जुटे रहना चाहिए।

साधनाकाल में जप−अनुष्ठान के समय एकाग्रता, तल्लीनता— ईश्वरीय गुणों से तद्रूपता का, ध्यान किया जाता है। इस समय के अतिरिक्त शेष सारा ही समय ऐसा है, जिसमें-विचार मंथन सतत किया जाना चाहिए। साधना का अर्थ ही है— अनुशासन— मजबूती से विचारों को साध लेना। यह तभी संभव है, जब मनन पल−पल चले। तभी नित्य की क्रियाओं में साधना अपना चमत्कार दिखाने लगेगी। अपने क्रियाकलापों में वे सारी उपलब्धियाँ साकार होती दिखाई देने लगेंगी जिनकी चर्चा आप्त वचनों व शास्त्रों में की गयी है।

चिंतन−मनन के लिए सतत मंथन के अतिरिक्त एक घंटा नित्य अलग से निकाल लिया जाए, जिसमें मात्र आत्मसमीक्षा, सुधार, निर्माण व विकास की प्रक्रिया में ही निरत रहा जाए। इसके अतिरिक्त भी कभी भी खाली रहने या काम करते रहने की स्थिति में यह चिंतन−मनन का उपक्रम जारी रखा जा सकता है। चिंतन का विषय है—आत्मशोधन, मनन का उद्देश्य है— आत्मपरिष्कार। दोनों को एकदूसरे का पूरक कहना चाहिए। मलत्याग करने के उपरांत की पेट खाली होता है, तभी भूख लगती है और भोजन गले उतरता है। धुलाई के उपरांत रंगाई होती है। नींव खोदने पर ही दीवार चुनी जाती है। साँस छोड़ने पर नई साँस मिलती है। प्रयाण में पिछला पैर उठता और अगला बढ़ता है। आत्मपरिष्कार प्रथम और आत्मविकास द्वितीय है। जो लोग चिंतन और चरित्र से निकृष्टता हटाने की उपेक्षा करके सीधे ईश्वर तक जा पहुँचने— साक्षात्कार करने या योग सिद्धियों की बात करते हैं, उन्हें हवा में तैरने वाले— कल्पना-लोक के पखेरू ही कहा जा सकता है। ऐसे शेखचिल्ली अध्यात्म-क्षेत्र में भी कम नहीं हैं, जो जिस−तिस क्रिया−प्रक्रिया को ही सब कुछ मान बैठते हैं और बिना चिंतन सुधारे श्रम−प्रयास के आधार पर ही साधना की सफलता का स्वप्न देखते हैं।

शरीरकल्प में कुटी-प्रवेश की, आहार−विहार अपनाए रहने की, आवश्यकता पड़ती है। साथ ही चिंतन को भी कायिक परिवर्तन की परिधि में ही घुमाना पड़ता है। उस नियत क्षेत्र में चिंतन करते रहने पर ही शरीरकल्प संभव हो पाता है। यदि वैसा न बन पड़े तो कुटी-प्रवेश की स्थिति में प्रयोग की असफलता, व्यर्थता का संदेह छाया रहे, जी घबराने लगे एवं उद्विग्नता छाई रहे। ठीक इसी प्रकार साधना−अनुष्ठान की अवधि में साधक यदि मात्र आहार संयम एवं मुँह से जीभ हिलाकर जप की बेगार भुगते और आत्मचिंतन की उपेक्षा करे तो समझना चाहिए कि शरीरश्रम जितना लाभ मिल सकता है, उतना ही मिलेगा। मनोयोग के अभाव में उस उच्चस्तरीय प्रतिफल की आशा न की जा सकेगी जो शास्त्रकारों ने–अनुभवी सिद्धपुरुषों ने बताई है।

समझा जाए कि चिंतन का विषय अनुशासन है। इसी को ‘संयम’ कहा जाता है। इंद्रिय संयम, अर्थ, समय, विचार संयम के अंतर्गत विभिन्न पक्षों की चर्चा होती रही है। साधक को अपने वर्तमान स्वभाव-अभ्यास में इन प्रसंगों में कहाँ क्या त्रुटि रहती है, इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जाँच−पड़ताल करना चाहिए। आत्मपक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है। दूसरों के प्रति कठोरता— उनके दोष ढूँढ़ना और अपने छिपाना, आम लोगों की आदत होती है। कड़ाई से आत्मसमीक्षा कर सकने की क्षमता आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम चिहन है। चित्त में— गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवाँछनीयताओं को बारीकी से ढूँढ़ निकालना, उन्हें किस प्रकार निरस्त करना तथा अभ्यास हेतु दिनचर्या का ऐसा ढाँचा बनाना, जिसे अपनाकर चारों संयमों का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे, इसी में साधक का पुरुषार्थ है।

इतना बन पड़ने पर आगे का आत्मिक प्रगति−पथ सरल हो जाता है। जीवनलक्ष्य की पूर्ति पूजा उपचारों से नहीं हो सकती। वे तो मात्र आत्मजागरण भर की क्रिया पूरी करते हैं। उसके लिए आत्मा को श्रद्धा, निष्ठा एवं प्रज्ञा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अपना सुधार करने ईश्वर के विश्व-उद्यान को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाए। सृष्टा की विश्व−व्यवस्था में उत्कृष्टता बनाने−बढ़ाने से ईश्वर की इच्छा तो पूरी होती है, साथ−साथ आत्मकल्याण का, आत्मोत्कर्ष का, प्रयोजन भी पूरा होता है।


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