सहृदयता अपनाकर आप भी महान् हो सकते हैं।

March 1981

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ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने एक मित्र के साथ बंगाल के कालना गाँव जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक मजदूर सा दिखाई देने वाला व्यक्ति पड़ा हुआ दिखा। उसकी भारी गठरी एक ओर लटकी पड़ी थी तथा उसके कपड़ों से भी बदबू आ रही थी। रास्ते में अन्य लोग भी चल रहे थे, पर वे उसे देखकर भी अनदेखा करते हुए मुँह फेर-फेरकर निकलते जा रहे थे। कोई-कोई व्यक्ति उसकी रुग्ण काया की वीभत्सता देखकर घृणा से नाक भौं सिकोड़ता और थूक भी देता था।

मजदूर की दशा यह थी कि वह लगभग बेहोश की सी स्थिति में था। भूख के कारण उसमें उठने की भी सामर्थ्य नहीं थी। विद्यासागर जी ने जब उसे इस दशा में पड़ा देखा तो वे उसके पास गये, उसे सहारा देकर उठाया तथा खाने-पीने की भी व्यवस्था की। खा-पीकर जब मजदूर कुछ चैतन्य हुआ तो उन्होंने मजदूर को अपनी पीठ पर उठाया। उसकी गठरी विद्यासागर जी के मित्र ने उठाई और उसे लेकर कालना गाँव पहुँचे जहाँ मजदूर की चिकित्सा कराई और उसके चलने-फिरने योग्य होने तक उसकी देखभाल करते रहे।

सहृदयता मनुष्यत्व का प्रधान लक्षण है और महानता की पहली निशानी। ऐसे व्यक्ति सब में एक ही परमात्मा का निवास होने का सिद्धान्त तर्कों और तथ्यों के आधार पर प्रतिपादित करते हों अथवा नहीं, परन्तु अपने आचरण और व्यवहार द्वारा अवश्य सिद्ध करते हैं कि उन्होंने मनुष्य मात्र में बसने वाले परमात्मा को न केवल पहचाना है बल्कि उसे अपनाया और इस सिद्धान्त को अपने जीवन क्रम में उतारा भी था।

उदार और सहृदयता के कारण महापुरुषों के रूप में पहचाने जाने वाले व्यक्तियों का जब भी प्रसंग आता है तो महाकवि निराला का नाम उनमें चमक कर उभर उठता है। पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी, निराला यद्यपि हिन्दी साहित्य के इतिहास प्रवर्तक कवि हैं, परन्तु उन्हें उनकी सहृदयता, उदारता और करुणा के कारण देवता के रूप में उल्लेखित किया जाता है। उन्होंने अपने पास की सारी संपदा और समूचे साधन दीन-दुखियों के लिए बांट दिये थे तथा स्वयं अकिंचन होकर रहते थे। यही नहीं जब भी कभी उनके पास कहीं और से और भी कुछ मिलता तो वे उसे भी अपने पास रखने की अपेक्षा दूसरे जरूरतमंद व्यक्तियों को बांट देते थे।

एक बार की बात है। जेठ की तपती दुपहरी में वे अपने घर में विश्राम कर रहे थे। किसी काम से बाहर निकले तो देखा एक वृद्ध क्षीणकाय और दुबला-पतला आदमी जिसके शरीर में अस्थियां मात्र ही थीं, सिर पर लकड़ियों का भारी गट्ठर उठाये चला जा रहा था। उसका शरीर तो जवाब दे ही रहा था ऊपर से सूरज की गर्म किरणें और नीचे से जलती हुई धरती, वातावरण ही ऐसा था कि उसमें चलना तो क्या खड़े रह पाना भी कठिन था और तिस पर फटे, पुराने कपड़े तथा नंगे पैर। निराला की दृष्टि उस वृद्ध पर पड़ी तो वे अपना काम भूल गये और तुरंत वृद्ध के पास जा पहुंचे। उन्होंने वृद्ध को कुछ कहा तथा उसके सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर उतार कर उसे अपने घर के भीतर ले आए। उनके लिए कुछ दिनों पहले ही कुछ मित्रों ने जूते और वस्त्र आदि खरीदे थे। निराला ने सारा सामान लाकर उस वृद्ध व्यक्ति के सामने रख दिए और आग्रहपूर्वक कहा, ‘इन्हें पहन लो।’

वह वृद्ध व्यक्ति यह सब देखकर हकपका गया। उसे समझ में नहीं आया कि क्या करे, क्या न करे? न कोई जान-पहचान, न कोई परिचय। अपरिचित ही यह सब क्यों किया जा रहा है? वह बड़ी मुश्किल से साहब जुटा कर बोला, ‘बिना कुछ जान-पहचान के यह सब ........।’

वह वृद्ध अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाया था कि निराला बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोले, ‘अच्छी तरह जानता हूं बाबा तुम्हें! तुम मेरे करोड़ों भाइयों में से एक हो।’ इतना कहकर वे स्वयं अपने हाथ से उस वृद्ध को जूते पहनाने लगे।

सहृदय और उदार व्यक्तियों का अंतःकरण कष्ट पीड़ितों तथा अभावग्रस्तों को देखकर वैसे ही पसीज उठता है जैसे आग में जलने वाली लकड़ी या ईंधन की व्यथा से मोम। उनके लिए न कोई अपना होता है न पराया। यहाँ तक कि वे बैर-भाव रखने वाले व्यक्तियों को भी कष्ट कठिनाई में पड़ा देखकर उनकी सहायता के लिए तत्परतापूर्वक आगे आते हैं।

अंग्रेजी साहित्य के उपन्यास जगत में जो स्थान हेनरी जेम्स को प्राप्त है, वह शायद ही अन्य किसी उपन्यासकार को मिल सका हो। उनकी कृतियाँ पाकर आज भी बड़े चाव से पढ़ते हैं और उसका प्रभाव ग्रहण करते हैं। अपने जीवन काल में ही उन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली थी और उस समय उनसे ईर्ष्या-द्वेष रखने वालों की कमी नहीं थी। यहाँ तक उनका पड़ोसी तक उन्हें कानी आँख से देखता था। बात-बात पर वह उनसे झगड़ उठता, कुछ न बोलने पर इधर-उधर की बातें लेकर उन्हें खरी-खोटी सुनाने लगता। एक दिन उस पड़ोसी की पत्नी बुरी तरह बीमार पड़ी। पीड़ा के मारे वह बुरी तरह छटपटा और चिल्ला रही थी। पड़ोसी को सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे? तभी उसने देखा कि हेनरी जेम्स उसके मकान में प्रवेश कर रहे थे।

उस व्यक्ति ने जेम्स को देखा तो विस्मित रह गया। वह बोला, ‘जेम्स तुम! और यहाँ?’

हाँ! क्यों मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था। देखो मैंने तुम्हारी पत्नी के लिए डॉक्टर को बुलवाया है। वह आता ही होगा।

परन्तु मुझे आशा नहीं थी कि तुम इस वक्त में मेरे काम आओगे। क्योंकि मैं तुम्हें हमेशा दुश्मन की तरह देखता रहा और इसी कारण सोचता था, तुमसे किसी प्रकार की मदद के लिए कहना व्यर्थ है।

सहृदयता अथवा करुणा अहित चिन्तन करने वालों को भी अपना बना देती है। सौमनस्यता उत्पन्न करने के लिए किये गये हजारों प्रयास वह परिणाम उत्पन्न नहीं कर पाते जो करुणा उत्पन्न करती है। सब में अपने ही समान आत्मा देखने और प्राणिमात्र का दुःख-दर्द समझने वाले व्यक्ति अपने लाभ के लिए भी किसी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचा सकते। घटना सन् 1940 की है। उन दिनों महात्मा बाँधी के आश्रम सेवा ग्राम में परचुरे शास्त्री नामक एक विद्वान भी रहते थे जो कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। बापू स्वयं उनका उपचार किया करते थे। वे उनकी मालिश किया करते, घावों को धोते और दवाई लगाते।

एक दिन जब बापू शास्त्री जी की मालिश कर रहे थे आश्रम के ही एक कार्यकर्ता पंडित सुंदरलाल भी वहीं उपस्थित थे। उन्होंने गाँधी जी से कहा, बापू! कोढ़ की तो एक अचूक औषधि है। कोई जीवित काला नाग पकड़ कर मंगवाये और कोरी मिट्टी की हांडी में बंद कर उसे उपलों की आग पर इतना तपाये कि नाग जल कर भस्म हो जाए। उस भस्म को यदि शहद के साथ रोगी को खिलाया जाए तो कुष्ठ कुछ ही दिनों में दूर हो सकता है।

महात्मा गाँधी इस उपाय के संबंध में कुछ कहें इसके पहले ही शास्त्री जी ने कहा, ‘बेचारे निर्दोष साँप ने क्या बिगाड़ा है? जो उसको जला कर अपना रोग ठीक किया जाए। इससे तो मेरा स्वयं का मरना ही ठीक है क्योंकि हो सकता है पूर्व जन्म के किसी पाप के कारण मुझे यह रोग लगा हो।’

हिंसा या हानि पहुँचाना ही तो सहृदय व्यक्तियों के लिए असंभव होता है वे स्वयं घाटे में रह कर भी किसी को हानि सहने से बचाने के लिए सचेष्ट रहते हैं। हेनरी थोरो अमेरिका के सुप्रसिद्ध विचारक और अद्वितीय चिन्तक माने जाते हैं। विश्व विख्यात इस विचारक के ही एक निबंध से महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आँदोलन की प्रेरणा ली थी।

इस तरह के ढेरों प्रसंग हैं जो सिद्ध करते हैं कि दुनिया में जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं उन्होंने सहृदयता, त्याग, उदारता और करुणा केवल पर ही लोगों के हृदय में स्थान बनाया है।


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