आत्मिक प्रगति के लिए आहार शुद्धि की आवश्यकता

March 1981

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चिकित्सा शास्त्र के अनुसार मनुष्य की रुग्णता और बलिष्ठता का कारण उसके शरीर में होने वाला रासायनिक परिवर्तन है। शरीर विज्ञानी शरीर को मानते भी एक रासायनिक पिंड हैं। मल परीक्षा, मूर्त परीक्षा, रक्त परीक्षा आदि के द्वारा यही देखा जाता है कि शरीर के भीतर कौन से रसायन घट या बढ़ रहे हैं। उनका कारण क्या है? कारण में निदान क्या है तथा उनका उपचार किस प्रकार किया जा सकता है? औषधियाँ क्या है? विशुद्ध रूप से औषधियाँ रसायन ही हैं जो शरीर के भीतर घटने बढ़ने वाले रसायनों को संतुलित करने के लिए दी जाती हैं और उनके माध्यम से विभिन्न प्रकार के खनिज, क्षार, विटामिन आदि पदार्थ पहुँचाये जाते हैं। ईंट चूने से बने मकान में आई टूट-फूट की मरम्मत के लिए ईंट चूने का ही प्रयोग किया जाता है। शरीर को जब एक रासायनिक पिंड मान लिया गया है तो उसमें होने वाली टूट-फूट और उत्पन्न गड़बड़ियों का निराकरण भी तो रसायनों के माध्यम से ही संभव है। चिकित्सा शास्त्र विशुद्ध रूप से इसी आधार पर खड़ा है।

यह कोई गलत भी नहीं है कि शरीर को एक रासायनिक पिंड कहा जाता है। मुख की लार से लेकर पाचन संस्थान में स्रवित होने वाले रसों और हारमोनों तक विविध स्राव रासायनिक स्राव ही उत्पन्न करते हैं। स्नायु संस्थान, तंत्रिका जाल और कोशिका समूह में जहाँ विद्युत धराएं अपना काम करती हैं वहाँ रासायनिक प्रक्रियाएं भी चलती रहती हैं। अन्न को रक्त के रूप में और रक्त को माँस मज्जा के रूप में बदलने का काम यही रासायनिक पद्धति करती है, जिसके आधार पर जीवन क्रम में अन्यान्य सभी क्रिया-कलाप निर्भर करते हैं, श्वास के माध्यम से ऑक्सीजन का शरीर में प्रवेश, रक्त में उसका घुलना और ऊर्जा उत्पन्न करना रासायनिक प्रक्रिया नहीं तो और क्या है? इसलिए रसायनों के माध्यम से शरीर स्वास्थ्य की साज, सम्हाल और गड़बड़ियों का सुधार किसी भी दृष्टि से गलत नहीं कहा जा सकता। वह उचित और संगत ही है।

अध्यात्म शास्त्र भी मानवी चेतना को परिष्कृत करने के लिए रसायनों का प्रयोग करता है। उसकी मान्यता है कि वस्तुओं में स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीन शक्तियाँ होती हैं। अन्न का स्थूल, स्वरूप रक्त माँस बनाता है। उसके सूक्ष्म रूप से मस्तिष्क एवं विचार बनते हैं और अन्न के कारण शक्ति भावनाओं का निर्माण करती है। यदि सड़ा गला, बासी-खुसी और मैला कुचैला अन्न आहार के रूप में लिया जाएगा तो उससे पोषण मिलना तो दूर रहा उलटे रोग और गड़बड़ियां ही उत्पन्न होंगी। अनीति पूर्वक कमाया हुआ और दुष्ट मनुष्यों के हाथों बना, परोसा अन्न मस्तिष्क में दुर्बुद्धि ही उत्पन्न करेगा। यदि आहार को प्रसाद भावना से पकाया और औषधि भावना से ग्रहण किया गया होगा, बनाने और खिलाने वाले की स्नेहशील सद्भावनाओं का उसमें समन्वय होगा तो उससे न केवल खाने वाले का अंतःकरण विकसित होगा वरन् उसकी भावनाओं में भी उच्चस्तरीय विस्तार होगा। आहार केवल स्थूल दृष्टि से पौष्टिक एवं स्वस्थ ही नहीं होना चाहिए वरन् उसके पीछे न्यायानुकूल उपार्जन और सद्भावनाओं के समन्वय का तारतम्य भी जुड़ा होना चाहिए। तभी वह अन्न मनुष्य के तीनों आवरणों का समुचित पोषण कर सकेगा और उस आधार पर शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वांगीण विकास का अवसर प्राप्त हो सकेगा।

भारतीय मनीषियों ने आहार शुद्धि, पर प्रथम जोर इसीलिए दिया है कि उसके साथ जुड़े हुए तत्व शरीर भूमिका से आगे बढ़ कर मनःक्षेत्र को प्रभावित करते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि नित्य स्नान, अन्न-पान द्वारा सब स्थानों को शुद्ध रखना चाहिए क्योंकि इनके शुद्ध होने पर ही चित्त की शुद्धि होती है और आरोग्यता प्राप्त होकर पुरुषार्थ बढ़ता है। ‘वर्जयेन्मधु मांस च’ तथा ‘बुद्धि लुब्धति यद् द्रव्यं मदकारी तदुच्यते’ आदि सूक्तियों द्वारा मद्य माँस का निषेध और बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थों को मदकारी बताने के पीछे यही प्रयोजन है कि उनका प्रभाव शरीर पर तो सो पड़ता है तो पड़ता है उससे भी अधिक अंतरंग स्थिति प्रभावित होती है।

शरीर से आगे बढ़ कर मनःक्षेत्र का आहार किस प्रकार प्रभावित करता है, इसका प्रमाण वे वस्तुएं देती हैं जिन्हें नशीली कहा जाता है। नशा पदार्थ का सूक्ष्म गुण है। वह रक्त माँस पर तो प्रभाव डालता ही है साथ ही मस्तिष्क को, मन बुद्धि-चित्त अहंकार को भी प्रभावित करता है। नशे का प्रभाव होते ही मस्तिष्क पर से नियन्त्रण हट जाता है और वह कुछ का कुछ सोचने-समझने तथा कुछ का कुछ देखने समझने लगता है। इतना ही नहीं धीरे-धीरे उस नशेबाजी का प्रभाव सेवनकर्त्ता के गुण, कर्म, स्वभाव पर पड़ता चला जाता है और उसका चरित्र, दृष्टिकोण, स्वभाव आदि का स्तर निरन्तर गिरता चला जाता है। यह तथ्य बताते हैं कि आहार का प्रभाव केवल शरीर तक ही सीमित नहीं है, यह केवल भूख मिटाने, स्वाद देने और रक्तमाँस बनाने की स्थूल शारीरिक क्रिया तक ही सीमित नहीं रहता वरन् उसके सूक्ष्म प्रभाव मस्तिष्क के साथ-साथ अंतःकरण को भी प्रभावित करते हैं।

आत्म-विद्या के ज्ञाता सदा से यह कहते आए हैं कि आत्मोन्नति की साधनात्मक प्रक्रिया में आहार शुद्धि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कई पदार्थों के संबंध में जो साधकों के लिए वर्जित हैं, कुछ समय पहले तक सीमित जानकारी थी। समझा जाता था कि नशीले पदार्थों का गुण खुमारी मस्ती तक ही सीमित है। इसलिए लोग थकान मिटाने गम गलत करने के लिए उनका सेवन करते थे। भांग, गांजा, चरस, अफीम, शराब जैसे नशीले पदार्थ इसी प्रयोजन के लिए पिए जाते थे, पर अब उनमें अन्य अनेक विशेषताएं नवीनताएं पाई गई हैं और देखा गया है कि वे ऐसी अनुभूतियाँ कराते हैं जो सामान्य चिन्तन से अलग बिल्कुल भिन्न प्रकार की होती है। कुछ रसायन ऐसे हैं जो मस्तिष्कीय कणों को वर्तमान परिस्थिति एवं उपस्थिति से सर्वथा भिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ सामने उपस्थित करते हैं, मस्तिष्कीय कणों की चिंतनधारा को सामने प्रस्तुत पदार्थों से सर्वथा असम्बद्ध करके किसी ऐसे कल्पना लोक में उड़ा ले जाते हैं जिनका वास्तविकता से दूर का भी संबंध नहीं है। पुराने नशे वर्तमान स्थिति से किसी न किसी रूप में जोड़े तो भी रहते थे पर अभी नये प्रकाश में आए इन नशीले पदार्थों का प्रभाव तो ऐसा होता है कि वर्तमान के साथ मस्तिष्क का तारतम्य बिल्कुल टूट जाता है और आँखें वह देखने लगती हैं जो सामने प्रस्तुत यथार्थता से सर्वथा भिन्न होता है।

यों आहार के रासायनिक तत्त्वों का विश्लेषण बहुत पहले से होता रहा है। खाद्य पदार्थों में कौन-सा तत्त्व कितनी मात्रा में होना चाहिए? इस संबंध में ढेरों पुस्तकें लिखी गई हैं और सैकड़ों तालिकाएं प्रकाशित हुई हैं। जहाँ तक माँस रक्त और बलिष्ठ देह का प्रश्न है वहाँ तक वे तालिकाएं उपयुक्त भी हैं किन्तु शरीर केवल माँसपिंड ही तो नहीं है, उसमें बौद्धिक और भाव चेतनाएं भी मिलती हैं। आहार में उनके सुपोषण का समावेश भी होना चाहिए।

इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए प्राचीन काल में भारतीय मनीषियों ने सादा, सरल और सुपाच्य भोजन ही प्रयोज्य बताते हुए आहार की सात्विकता पर अधिक जोर दिया था, न कि शरीर की माँसलता बढ़ाने वाले भोजन पर। कहा जा चुका है कि आत्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली साधनाओं में आहार शुद्धि का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि उस ओर ध्यान न दिया जाए और प्राणायाम, प्रत्याहार, नेति, धोति आदि आगे के क्रिया-कलाप में उलझा जाए तो वह समय पूर्व की बात की है। अक्षर ज्ञान सीखे बिना किसी बच्चे से कोई पुस्तक पढ़ने के लिए कहा जाना जितना नासमझी का काम है उतनी ही नासमझी आहार शुद्धि के बिना आत्मिक प्रगति की अपेक्षा रखने में है। आहार में मस्तिष्क और हृदय को, बुद्धि और भावनाओं को सात्विकता तथा शुद्धि की दिशा में अग्रगामी बनाने वाले तत्त्वों का समावेश न किया जा सके तो वह भूखे पेट फुटबाल खेलने जैसा ही उपहासास्पद होगा। आज आत्मिक प्रगति के लिए आहार शुद्धि पर पूरा-पूरा ध्यान देना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इस अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति किये बिना आत्मिक प्रगति की दिशा में एक कदम भी चल पाना संभव नहीं है।


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