सुसंस्कृत मन-दिव्य क्षमताओं का अजस्र भांडागार

March 1981

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मन की तीन प्रकार की अतींद्रिय क्षमताएं बतायी गयी हैं। प्रथम वह पदार्थों के रहस्यमय स्वरूप की जानकारी प्राप्त कर सकता है। द्वितीय चर्मचक्षुओं से परे दूरवर्ती स्थानों की जानकारी प्राप्त कर सकता है। तृतीय इसके अंदर भूत और भविष्य को जानने की क्षमता भी विद्यमान है। प्रत्येक मनुष्य के मन के अंदर ये तीनों क्षमताएं सुषुप्तावस्था में विद्यमान हैं। न्यूनाधिक रूप से इसकी जानकारी समय-समय पर आकस्मिक अनुभूतियों अथवा स्वप्नों के माध्यम से मिलती रहती हैं। मन की इन सभी क्षमताओं को कौन कितने अनुपात में विकसित कर सकता है यह प्रत्येक मनुष्य के अपने स्तर एवं प्रयास पर निर्भर करता है।

सामान्य मनुष्य की मनःशक्ति का क्षेत्र बहुत सीमित होता है। उसके मन की ये तीनों क्षमताएं संकीर्ण व उथली होती हैं। पर जैसे-जैसे मानसिक क्षमता बढ़ती जाती है-अन्तरंग जगत विकसित होता जाता है-वैसे-वैसे मन की सामर्थ्य भी बढ़ती है।

मनुष्य के स्वयं के अंदर ही ऐसी विलक्षण क्षमता विद्यमान है जिसे सर्वसाधारण नहीं जान पाते और वे मन की क्षमता को अन्य प्राणियों की तरह उदरपूर्ति और वंश वृद्धि में प्रयुक्त करते हुए जीवन गंवा देते हैं। इसके विपरीत ऋषि, ज्ञानी, योगी अंतरंग जगत में प्रसुप्त पड़ी हुई क्षमताओं को जगाकर स्वयं तो प्रखर और तेजस्वी जीवन जीते हैं तथा जन सामान्य को भी इससे लाभान्वित करते हैं। वे अपनी अतीन्द्रिय क्षमताओं के आधार पर स्थान और काल की दूरी को कुछ ही क्षणों में पार कर लेते हैं। काल की सीमा पारकर भूत और भविष्य का ज्ञान प्राप्तकर लेते हैं। यजुर्वेद में भी मन की इस सामर्थ्य का वर्णन इस प्रकार आता है- ‘‘ओऽम् येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीताममृतेन सर्वम्॥’’ -यजु.

‘‘जिस अमृत रूप मन ने इन संपूर्ण भूत, वर्तमान और भविष्य को सब प्रकार से चारों और से ग्रहण किया हुआ है।’’ अर्थात् सुसंस्कृत और सुनियोजित मन भौतिक एवं आत्मिक ऋद्धि-सिद्धियों का उत्पादक क्षेत्र होता है।

मन पर जन्म जन्मान्तरों के संस्कार जमे रहते हैं। पूर्व जन्मों में साधा हुआ मन अगले जन्मों में भी उन्हीं क्षमताओं से परिपूर्ण होता है। यही कारण है कि कई बच्चों में जन्म से ही विलक्षणताएं पायी जाती हैं जो कुछ भी बौद्धिक क्षमता और आँतरिक प्रखरता प्राप्त है जरूरी नहीं कि वे इसी जन्म की हों। यहाँ न केवल पुनर्जन्म की ही बात कही जा रही वरन् यह भी सुनिश्चित है कि पूर्व संस्कारों के प्रतिफल अगले जीवन में देखे जा सकते हैं। मन को निकृष्ट बनाना या उत्कृष्ट बनाना यह हर व्यक्ति पर निर्भर करता है। उसी के अनुरूप वह जीवन में आँतरिक और बाह्य दोनों उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकता है।

मन जागृत अवस्था में जिस प्रकार इन्द्रिय सामर्थ्य से कई गुना अधिक काम कर दिखाता है उससे भी अधिक विलक्षण, चमत्कारपूर्ण कार्य निद्रितावस्था में कर सकता है। जागृतावस्था में इन्द्रियों के माध्यम से मन का संबंध बाह्य जगत से होता है। निद्रा की स्थिति में इन्द्रिय क्षमता का कोई उपयोग नहीं होता फिर भी मन ऐसी दौड़ लगाता है कि स्थान और काल की दूरी का कोई महत्व नहीं रहता। यहाँ तक कि इस सृष्टि में ऐसी कोई सीमा रेखा नहीं जहाँ मन की पहुँच न हो। यजुर्वेद 34-9 में भी मन की इस सामर्थ्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है-

“वह कौनसा वन है? वह कौनसा वृक्ष है जिससे इस पृथ्वी का निर्माण हुआ है। हे मनीषियों इस प्रश्न का उत्तर अपने ‘मन’ से ही पूछो।” वही इस धरती को वर्तमान स्वरूप देने का श्रेयाधिकारी है।

मन की शक्ति अपरिमित है। जिसका कोई ओर-छोर नहीं। सृष्टि के आरम्भकाल से लेकर जन्म-जन्मांतरों के अनुभव जिस पर अंकित होते आये हैं। उन्हीं पूर्व संस्कारों के आधार पर भावी सम्भावनाओं को भी सरलतापूर्वक जाना जा सकता है। विगत जन्मों के सभी भले-बुरे संस्कार मन पर अंकित होते हैं लेकिन वे याद नहीं रहते, इसका कारण यह है कि मन वर्तमान परिस्थितियों में ही उलझता रहता है। मन स्थूल जगत से इतना अधिक संबद्ध होता है कि रात-दिन में ऐसा कोई क्षण शेष नहीं रहता जिसमें वाह्य जगत से सम्बन्ध विच्छेद हो जाये। स्थूल जगत के प्रभाव से ही वह हर क्षण प्रभावित रहता है और इस दृश्य जगत को ही सब कुछ मान बैठता है। सूक्ष्म की ओर उसका ध्यान जाता ही नहीं। अपने अन्तस् में झाँकने का अवसर उसे मिलता ही नहीं।

योगियों को विगत जन्मों की कई बातें याद रहती हैं। इसका कारण यह है कि उनका बाह्य जगत से सम्बन्ध उस सीमा तक ही होता है जितना कि उचित है। उनकी संसार में स्थिति “पद्मपत्रमिवाम्भज्ञा” जल में कमल की भाँति होती है। मन पर उनका पूरा नियन्त्रण होता है वे मन को स्थूल जगत में लिप्त होने का अवसर ही नहीं देते। बाह्य प्रभाव उनके मन पर अंकित नहीं हो पाते। अंतर्जगत में वह विचरण करता उसकी गहराई में प्रवेश करता और मनःसमुद्र से ऐसे अमूल्य रत्न खोज लाता है कि सामान्य बुद्धि जिस पर आश्चर्य किये बिना नहीं रहती।

महर्षि पातंजलि ने योग-दर्शन में इसी रहस्य की चर्चा की है-

“संस्कार साक्षात्कारकणणात् पूर्वजातिज्ञानम्”

अर्थात् संस्कारों से साक्षात्कार होने पर पूर्व जन्मों का ज्ञान हो जाता है।

स्पष्ट है, मन पड़े हुए संस्कार कभी विनष्ट नहीं होते। अपनी सामर्थ्य के अनुरूप मनुष्य उन्हें पुनः जागृत कर सकता है। स्वप्नावस्था इनके प्रकटीकरण का एक सरल माध्यम है। योगी मनीषी तो जागृत अवस्था में भी पूर्वस्मृतियों का लाभ उठा सकते हैं किन्तु सामान्य मनुष्यों को स्वप्नों के माध्यम से ही इसकी अनुभूति होती है। योगी का मन पर इतना नियन्त्रण होता है कि वह इच्छानुसार मनःशक्ति को नियोजित कर सकता है, पूर्व संस्कारों को जागृत कर सकता है। विचित्र स्वरूप प्रकट करते हैं। स्वप्नों में ही निरर्थक उछल-कूद मचाते रहने वाला व्यक्ति स्वयं इसका महत्व समझ नहीं पाता, मात्र आश्चर्यान्वित होता रहता है। यदि मन को थोड़ा भी साध लिया जाये तो ये स्वप्न भी हमारे लिए बहुत उपयोगी बन सकते हैं। अन्तस्तल की प्रसुप्त शक्तियों के जागरण का आधार बन सकते हैं।

ग्रन्थों में तो यहाँ तक कहा गया है कि मनुष्य अपनी मनःशक्ति को विकसित करके अन्य प्राणियों की भाषा, स्वभाव, कार्य आदि का भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है, क्योंकि इस जीवन से पूर्व मनुष्य प्रायः सभी प्राणियों की योनि में जन्म ले चुका होता है। इतना ही नहीं अंतर्मुखी होकर सम्पूर्ण ब्रह्मांड का ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि जीव कभी न कभी सारे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर चुका है और उसकी मनः चेतना में उस जानकारी का बहुत कुछ पूर्व ज्ञान बना होता है।

मन की तीन अवस्थाएं होती हैं- 1. स्वप्नावस्था 2. जागृतावस्था 3. सुषुप्तावस्था। जागृत और सुषुप्तावस्था के बीच की अवस्था स्वप्न की होती है। वृहदाण्यकोपनिषद में इसका उदाहरण इस प्रकार दिया गया है कि जिस प्रकार एक बड़ा मगरमच्छ नदी के एक तट से दूसरे तट की ओर आता जाता है उसी प्रकार मनुष्य भी स्वप्नावस्था में पड़ा हुआ नदी के दोनों किनारों की तरह जागृत और सुषुप्ति के सिरों का स्पर्श करता रहता है। जीवन रूपी प्रवाह के जागृत और सुषुप्ति दो किनारे हैं। स्वप्नावस्था को मध्य धारा कहा जा सकता है। इस दृष्टि से भी स्वप्नावस्था का महत्व असामान्य है।

सामान्यतः स्वप्न में दो क्रियाएं होती हैं। एक तो बुद्धि व इन्द्रियों का बाह्य जगत् से सम्बन्ध विच्छेद होना तथा दूसरा मन का अंतर्जगत् में विचरण करना। स्वप्न व मन की एक विशेष अवस्था है जिसमें ये दोनों क्रियाएं अनिवार्य रूप से होती हैं। मन की अनेकों क्रियाओं में स्वप्न भी एक महत्वपूर्ण क्रिया है।

एक तो स्वप्न प्राकृतिक होते हैं, दूसरे प्रयत्नपूर्वक उत्पादित। दिवास्वप्न-कल्पनाओं के साथ तन्मय हो जाने पर दिखाई पड़ते हैं। अचेतन को तांत्रिक करके भी हिप्नोटिज्म पद्धति से स्वप्निल स्थिति उत्पन्न ही जा सकती है। किन्तु उच्चस्तरीय मनःसाधना में यह कार्य ध्यान धारणा द्वारा एकाग्रता उत्पन्न करके भी किया जा सकता है। समाधि इस विज्ञान की चरम परिणित है। उसमें जो दिव्य-दर्शन होता है उसे सत्य का साक्षात्कार एवं ईश्वर सान्निध्य स्तर का समझा जा सकता है। उस स्थिति में विराट् ब्रह्मांड के सभी रहस्य अपने आप प्रकट होने लगते हैं। चेतना जगत की ब्रह्म सत्ता अपना अन्तराल उस स्थिति में साधक के सामने खोलकर रख देती है। कहने वाले तो इस स्थिति को भी एक विशेष प्रकार का स्वप्न ही कहते, समझते देखे गये हैं।

तत्त्वदर्शियों के मन के दो भेद बताये हैं। एक समष्टिगत मन और दूसरा व्यष्टिगत मन। ब्रह्म का मन समष्टिगत है और समस्त प्राणियों का मन व्यष्टिगत। ब्रह्म के मन के आधार पर ही सृष्टि के सम्पूर्ण क्रियाकलाप निर्धारित होते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति भी ब्रह्म की इच्छा से हुई। ऋग्वेद में कहा गया है-

“कामास्तदग्ते समबर्तताधि मनसोरेतः प्रथमं यदासीत्”

जब सृष्टि बनने लगी तो सबसे पहले काम की उत्पत्ति हुई। यह काम मन का रेतस् अर्थात् वीर्य है।

ब्रह्म ही सृष्टि का निर्माता नियन्ता है। समर्पण सृष्टि ब्रह्म की इच्छा से उत्पन्न हुई। सृष्टि की गतिशीलता ब्रह्म के मन द्वारा ही संचालित है। ब्रह्म के इस समष्टिगत मन से ही व्यष्टिगत मन की उत्पत्ति हुई है। समुद्र की असंख्य लहरों के समान, सूर्य की अनेकानेक किरणों के समान ही समष्टिगत मन और व्यष्टिगत मन एक दूसरे के जुड़े हुए हैं। ब्रह्म के मन का अंश ही व्यष्टिगत मन है। जो सामर्थ्य समष्टिगत मन में है वही व्यष्टिगत मन में भी बीज रूप में विद्यमान है।

सामान्यजनों का मन भ्रान्तियों के जाल-जंजाल में उलझा हुआ और लिप्साओं में भटकता हुआ देखा जाता है। अवास्तविक और अनुपयोगी उड़ाने उड़ने में ही प्रायः उसकी क्षमता नष्ट होती रहती है। यह अनगढ़ मनः स्थिति है। यदि उसे सुधारा बदला जा सके और निग्रहित एवं सुसंस्कृत बनाया जा सके तो निश्चय ही साधा हुआ मन कल्प वृक्ष की तरह सब कुछ प्रदान करने वाला और परम लक्ष्य अमृतत्व की प्राप्ति तक पहुँच सकने में सहायक हो सकता है।


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