सार्वभौम सर्वजनीन-माँ की उपासना

March 1981

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दुनिया में जितने धर्म, सम्प्रदाय, देवता और भगवानों के प्रकार हैं उन्हें कुछ दिन मौन हो जाना चाहिए और एक नई उपासना पद्धति का प्रचलन करना चाहिए जिसमें केवल “माँ” की ही पूजा हो, माँ को ही भेंट चढ़ाई जाये?

माँ बच्चे को दूध ही नहीं पिलाती, पहले वह उसका रस, रक्त और हाड़-माँस से निर्माण भी करती है, पीछे उसके विकास, उसकी सुख-समृद्धि और समुन्नति के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती है। उसकी एक ही कामना रहती है, मेरे सब बच्चे परस्पर प्रेमपूर्वक रहें, मित्रता का आचरण करें, न्यायपूर्वक सम्पत्तियों का उपभोग करें, परस्पर ईर्ष्या-द्वेष का कारण न बनें। चिरशान्ति, विश्व-मैत्री और ‘‘सर्वे भवंतु सुखिनः” वह आदर्श है, जिनके कारण माँ सब देवताओं से बड़ी है।

हमारी धरती ही हमारी माता है यह मानकर उसकी उपासना करें। संसार भर के प्राणी उसकी सन्तान-हमारे भाई हैं। यदि हमने माँ की उपासना न की होती तो छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, दम्भ, हिंसा, पाशविकता, युद्ध को प्रश्रय न देते। स्वर्ग और है भी क्या, जहाँ यह बुराइयाँ न हों वहीं तो स्वर्ग है। माँ की उपासना से स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति इसीलिए यहीं प्रत्यक्ष रूप से अभी मिलती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि कुछ दिन और सब उपासना पद्धति बन्द कर केवल “माँ” की “मातृ-भावना” की उपासना करनी चाहिए।

-स्वामी विवेकानन्द


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