युग परिवर्तन का ठीक यही समय

March 1981

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युग अर्थात् समष्टिगत वातावरण। काल गणना में मास सप्ताह की तरह समय का गणित विभाजन करना हो तो बात दूसरी है अन्यथा भले-बुरे समय के संदर्भ में यदि युग की चर्चा अभीष्ट हो तो समष्टि चेतना की दिशाधारा के साथ ही उसका सम्बन्ध जोड़ना पड़ेगा।

सत युग की श्रेष्ठता का ग्रहों के परिभ्रमण पर निर्भर काल-गणना का कोई सम्बन्ध नहीं है। सतयुग की श्रेष्ठता काल-प्रवाह के बीच-बीच में भी अनेक बार उभरती रहती है। रामराज्य त्रेता में और परीक्षित राज्य द्वापर में गिना जाता है तो उन दिनों सतयुगी वातावरण ने प्राणियों और परिस्थितियों को उत्साहवर्धक अनुदान दिये थे।

फिर भी यदि काल-गणना के अनुरूप कलियुग, सतयुग का विवेचन करना है और कलियुग को बुरे समय का प्रतीक मानने का हठ हो तो भी ऐसे प्रमाण मौजूद हैं कि युग बदलने का समय आ गया। कलयुग अब विदा हो रहा है और उसके स्थान पर ऐसा समय आ रहा है जिसे सतयुग कहा जा सके।

मनुस्मृति, लिंग पुराण तथा भागवत में दी गई गणनाओं के अनुसार हिसाब फैलाने से पता चलता है कि वर्तमान समय संक्रामण काल है। प्राचीन ग्रन्थों में हमारे इतिहास को पाँच कल्पों में बांटा गया है। (1) महत् कल्प-1 लाख 98 सौ वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 85800 वर्ष पूर्व तक। (2) हिरण्य गर्भ कल्प 85800 विक्रम पूर्व से 61900 पूर्व तक (3) ब्राह्म कल्प 61800 विक्रम पूर्व से 37800 वर्ष पूर्व तक (4) पाद्म कल्प 37800 विक्रम पूर्व से 13800 वर्ष पूर्व तक (5) वाराह कल्प 13800 वर्ष विक्रम पूर्व से आरम्भ होकर अब तक चल रहा है।

अब तक वाराह कल्प के स्वायंभुव मनु, स्वारोचिष मनु, उत्तम मनु, तामस मनु, रैवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वन्तर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतर्दशा चल रही है। कल्कि पुराण में वाराह कल्प में सावर्णि मनु के दक्ष, ब्रह्म, और इन्द्र सावर्णियों के मन्वन्तर बीत जाने तक ‘कल्कि’ अवतार होने तथा धरती में कलियुग की संध्या समाप्त होकर सतयुग आरम्भ होने का उल्लेख आता है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रम सम्वत् आरम्भ होने के 4730 वर्ष पूर्व हुआ था। इन्द्र सावर्णियों के मन्वन्तर के बाद ही कल्कि के प्राकट्य और कल्कि सम्वत् प्रचलित होने की बात लिखी है, कलि के जन्म से प्रारम्भ होता है और वि. सं. 1970 के आस पास तक पाया जाता है।

कलियुग सम्वत् की जानकारी के लिए राजा पुलकेशिन ने विद्वान ज्योतिषियों से गणना कराई थी। दक्षिण भारत के ‘इहोल’ नामक स्थान पर प्राप्त हुए शिला लेख में जो उल्लेख आता है उससे यही सिद्ध होता है कि बौद्ध प्रभाव को निरस्त करने वाले कल्कि का प्राकट्य इन दिनों होना चाहिए। भारत के ‘पुरातन इतिहास शोध संस्थान’ मथुरा के शोधकर्ताओं ने इसी तथ्य की पुष्टि की है और ज्योतिष के आधार पर यह सिद्ध किया है इस समय ब्राह्मरात्र का तमोमय संधिकाल है। कुछ पंडितों की मान्यता है कि युग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होता है। इस हिसाब से तो नया युग आने में 3 लाख 24 हजार वर्ष की देरी है। लेकिन वस्तुस्थिति यह नहीं है। शास्त्रीय प्रतिपादन की गवेषणाओं, तथ्यों और ज्योतिष शास्त्र के प्रमाणों के संदर्भ में देखते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि ये प्रतिपादन भ्रामक ही हैं।

4 लाख 32 हजार वर्ष के एक युग की कल्पना सूर्य के वृहद चक्र से की गई है। सूर्य जितने समय में अपने ब्रह्मांड की पूरी परिक्रमा कर लेता है, उसी अवधि को इस प्रकार चार बड़े भागों में बाँट कर, उसके चार युग बनाने और प्रत्येक युग की अवधि लाखों वर्ष की बतला कर प्रचलित युग गणना के साथ तालमेल बैठाने के लिए छोटे युगों को अंतर्दशा की संज्ञा दी गई है। इसी से लोगों को समझाने में भ्रम हुआ अन्यथा कई शास्त्रों में युग गणना के सम्बन्ध में स्पष्ट बताया गया है।

मनुस्मृति में युगों की अवधि के सम्बन्ध में कहा गया है-

ब्राह्मस्यतु क्षपाहस्य यत्प्राणं समासतः। एक कशो युगानान्तु क्रमशस्तन्निबोधतः॥ चत्वार्या हु सहस्त्राणि वर्षाणान्तु कृतयुग। तस्यतावत् शती संध्या संध्याशश्च तथा विधः॥ इतरेषु सं संध्येषु स संध्याशेषु च त्रिषु। एकोपायेन वर्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च॥ अध्या. 1।67-70

अर्थात्- ब्रह्माजी के अहोरात्र में सृष्टि के पैदा होने और नाश होने में जो युग माने जाते हैं, वह इस प्रकार हैं- 4 हजार वर्ष और उतने ही शत अर्थात् 4 सौ वर्ष की पूर्व संध्या तथा 400 सौ की उत्तर संध्या कुल 4800 वर्ष का सतयुग। इसी प्रकार 3600 वर्ष का त्रेता, 2400 वर्ष का द्वापर और कलियुग 1200 वर्ष की आयु का होता है।

हरिवंश पुराण, लिंग पुराण तथा श्रीमद्भागवत की युग गणनाएँ भी ठीक मनुस्मृति की गणना से मिलती हैं।

चत्वारि सहस्त्राणि मानुषाणि शिलासन। आयुः कृतयुगेविद्धि प्रजानानि हसु व्रत॥ ततः कृतयुगे तस्मिन संध्याश्चेगते तुवै। पादावशिष्यो भवति युगधर्म्म सुसुव्रत। चतृर्भागै कहनिन्तु त्रेतायुग मनुतमम्॥ कृतार्द्धम् द्वापरम् विद्धितदर्द्धम् तिष्यमुच्यते। त्रिशती द्विशती संध्या तथाचैक शतीमुने। सध्यांश कथिताऽप्येवं कल्पेष्वेवं युगे युगे॥ -लिंग पुराण

अर्थात्- सतयुग चार हजार मानवी वर्षों का होता है। त्रेतायुग तीन हजार वर्ष का होता है। द्वापर युग दो हजार वर्ष का होता है। सतयुग की संध्या चार सौ वर्ष की होती है और संध्यांश भी चार सौ वर्षों का होता है। इस प्रकार सतयुग कुल मिलाकर चार हजार आठ सौ वर्षों का होता है। त्रेता कुल मिलाकर तीन हजार छह सौ वर्षों का होता है। द्वापर युग दो हजार चार सौ वर्षों का तथा कलियुग एक हजार दो सौ वर्षों का होता है।

हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व में भी इसी प्रकार का युगानुमान बताया गया है।

यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्य बृहस्पतिः। एक राशौ समेष्यन्ति प्रपत्स्यति तदाकृतम्॥ -महाभारत वन पर्व 190

अर्थात्- हे अर्जुन! उस समय जब चन्द्रमा सूर्य पुष्प नक्षत्र तथा बृहस्पति एक राशि में समान अंशों में हो जायेंगे तब फिर नये युग की परिस्थितियाँ तेजी से प्रादुर्भूत होंगी।

इन समस्त गणना आधारों को देखते हुए वह समय ठीक इन्हीं दिनों है जिसमें युग बदलना चाहिए। अनय को निरस्त करने और सृजन को समुन्नत बनाने वाली दिव्य शक्तियों का प्रबल पुरुषार्थ इस युग सन्धि में प्रकट होगा। जो सन् 80 से 2000 तक बीस वर्षों की है।


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