चमत्कारी सिद्धियों का यथार्थ

March 1981

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मनुष्य का निर्माण करते समय परमात्मा ने उसमें इतनी सम्भावनाएं भर दी हैं कि उनकी कोई सीमा नहीं है। वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से अध्ययन और विश्लेषण करने पर भी यह नहीं जाना जा सका है कि मनुष्य के विकास की अन्तिम सीमा क्या है? इतना ही कहा जा सकता है कि ईश्वर के संबंध में, उसकी शक्तियों और विशेषताओं को लेकर जो कल्पनाएं की जाती हैं वे सभी मनुष्य में बीज रूप से विद्यमान हैं। वह चाहे तो इन शक्तियों को बड़े मजे से विकसित कर सकता है और सृष्टि की प्रत्येक कृति में जो चमत्कार दिख पड़ता है, उसी प्रकार वह अपने व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य को बढ़ चढ़ कर सराहनीय, अभिनंदनीय तथा अनुकरणीय बना सकता है। ऋषि, योगी, तपस्वी और महामानव इसी चमत्कारी स्तर के हुए हैं। उनका जीवन क्रम इतनी उच्चकोटि का रहा है कि वे सामान्य मनुष्यों की तुलना में बहुत उच्चकोटि के कहे जा सकते हैं।

मानव जाति को उन्होंने अपने अनुदानों से जिस प्रकार उपकृत किया उसका स्मरण कर, उनके सामने श्रद्धा से नतमस्तक ही होना पड़ता है। जिन परिस्थितियों में रहते हुए उन्होंने उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अपनाये रखा उसे एक चमत्कार ही कहा जा सकता है। परन्तु आजकल चमत्कारों की दूसरी ही परिभाषा की जाती है। इस शब्द का और ही अर्थ लगाया जाता है, जिसकी न आवश्यकता है और न उपयोगिता।

मनुष्य का या सिद्ध, सन्तों का सबसे बड़ा चमत्कार है उनका आत्मबल, जो उन्हें कठिन से कठिन और प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आदर्शों तथा सिद्धांतों पर दृढ़ बनाये रहता है। यही चमत्कारी क्षमता, जिसे आत्मबल कहा जा सकता है। सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध, एक छोटे से राज्य के राजकुमार को महावीर, गड़रिये के बेटे को ईसा, सामान्य साधु को समर्थ रामदास, वासना में लिप्त कामुक व्यक्ति को तुलसीदास, एक पुजारी को रामकृष्ण परमहंस, घर से भागे हुए नवयुवक को ऋषि दयानंद, साधारण वकील को विश्व-वंद्य महात्मा गाँधी, एक अध्यापक को महायोगी अरविन्द बनाता है। सामान्य परिस्थितियों में रहते हुए ऊपर उठ कर महामानवों की और देवपुरुषों की पंक्ति में जा विराजना क्या कम बड़ा चमत्कार है? किन्तु लोगों की चमत्कारी की परिभाषा ही भिन्न है और वे बाजीगर के से करतबों को चमत्कार मान बैठते हैं, जिससे न किसी को लाभ मिलता है न किसी को कोई प्रेरणा या प्रकाश। इस तरह के करतब जादूगर भी बता सकते हैं, परन्तु लोग उन्हें बाजीगर कहते हैं, तथा वही करतब कोई धर्मध्वजी साधु वेशधारी व्यक्ति बताता है तो उसे सिद्ध पुरुष, चमत्कारी महामानव कहने लगते हैं और उसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं।

यदि जरा भी समझ और विवेक से काम लिया जाए तो आसानी से समझा जा सकता है कि उस तरह का चमत्कार बताने की किसे फुरसत है? और उसका क्या उद्देश्य हो सकता है? जिनमें आत्मबल होता है, वे उसका भौंड़ा प्रदर्शन नहीं करते। उन्हें न लौंग-इलाइची हवा में से निकाल कर उछालते रहने की फुरसत है तथा न ही बालों में से बालू निकाल कर दिखाने की जरूरत है कि आओ देखो, मेरे पास कितनी ऋद्धि-सिद्धि है? सम्पन्न व्यक्ति अपने धन को सुरक्षित रखते हैं तथा उसे मजबूत तिजोरियों में बंद कर किसी को बताते नहीं। पूछने पर चुप हो जाते हैं या टाल जाते हैं। कारण स्पष्ट है कि बहुमूल्य उपलब्धियाँ यदि खुली पड़ी रहें तो उनके चोरी होने, खोजाने का पूरा खतरा रहता है। वास्तव में जिन्होंने कोई आध्यात्मिक सम्पदा कमाई है, उन्हें इस तरह का चमत्कार प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं है।

ऐसी बात नहीं है कि वे चमत्कारों का प्रदर्शन करने में असमर्थ होते हैं। आत्मबल संपन्न व्यक्ति किसी भी असंभव काम को संभव कर दिखाता है। सृष्टा के सृष्टि नियमों को नियन्त्रित करने की उसमें सामर्थ्य होती है। परन्तु वह अपनी सामर्थ्य का दुरुपयोग नहीं करता। जहाँ कहीं आवश्यकता होती है वहाँ केवल दूसरों के कल्याण और लोकमंगल के लिए ही वह अपनी शक्तियों का उपयोग करता है। इसलिए जहाँ अलौकिक चमत्कारों का विज्ञापन और प्रदर्शन किया जा रहा हो, वहाँ समझना चाहिए कि खतरा है। ऐसे प्रसंगों में हाथ की सफाई-चालाकी के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता जो इस तरह के चमत्कारों से प्रभावित होकर तथाकथित अलौकिक महापुरुषों के फेर में पड़ेगा उसे अन्ततः पछताने के सिवा कुछ भी हाथ न लगेगा। अक्सर ठग और धूर्त किस्म के लोग ही इस तरह के चमत्कारी वेश बना कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए भोले, सीधे और नासमझ लोगों को ठगते रहते हैं।

इस तथाकथित अलौकिक चमत्कारी सिद्धि सम्पन्न समझे जाने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा तो बाजीगर ही अधिक ईमानदार होते हैं। वे संत बाबाओं की तरह किसी को अपने चंगुल में तो नहीं फंसाते, न उनकी तरह के अनैतिक प्रतिपादन करते हैं। प्रदर्शन के समय वे स्पष्ट रूप से अपनी चतुरता, कलाकारिता और हाथ की सफाई होने की बात कह देते हैं और इन प्रदर्शनों का उद्देश्य लोगों का मनोरंजन कर अपना गुजारा करना बता देते हैं। लोग भी जादूगरों के संबंध में यही धारणा बना कर काम चला लेते हैं कि यह मनोरंजक व्यवसाय है किन्तु तथाकथित अलौकिक बाबाओं के दावों से तो वे इतना प्रभावित होते हैं कि उनके आज्ञा इच्छानुवर्ती दास बन जाते हैं।

कहना नहीं होगा कि इस तरह के दावे और साधु बाबाओं द्वारा किये जाने वाले चमत्कारी प्रदर्शन लोगों को अन्धविश्वासी ही बनाते हैं। बहुतों के मन में वैसी सिद्धियों प्राप्त करने की ललक भी उत्पन्न होती है और इस ललक के कारण वे वास्तविक अध्यात्म से हजारों मील दूर हट जाते हैं। इस संबंध में यह स्पष्ट जान लेना चाहिए कि अध्यात्म का चमत्कारों से कोई संबंध नहीं। अध्यात्म की चमत्कारी उपलब्धि कुछ होती है तो वह केवल आत्मबल ही है। इस बढ़े हुए आत्मबल के कारण कई व्यक्तियों में अतीन्द्रिय शक्तियाँ भी विकसित हो जाती हैं। उनका विकास साधक की मनःस्थिति और प्रकृति में वैसा परिष्कार आने पर ही होता है, जब वह उसकी निष्ठा इनके उपयोग और प्रयोग की सीमाएं जान लेती हैं तथा उन मर्यादाओं के प्रति दृढ़ हो जाती हैं। फिर वह व्यक्ति सामान्य नहीं रह जाता उसकी चेतना उच्चस्तरीय कक्षा में पहुँच जाती है, जो अपने आत्मबल का, सिद्धियों का उपयोग केवल महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए ही कर पाते हैं।

कभी-कभी किन्हीं साधनों में साधना करते हुए भी कुछ विशेष क्षमताएं जागृत हो जाती हैं। मनीषियों ने उन क्षमताओं को कौतूहल वश प्रयोग में लाने के लिए कड़ाई के साथ मना किया है। भगवान बुद्ध के संबंध में प्रसिद्ध है कि उन्होंने अपने एक शिष्य का स्वर्ण कमंडल तुड़वाकर नदी में फिंकवा दिया था, जो उसने अपनी अतीन्द्रिय क्षमता से लोगों को चमत्कृत करने के लिए प्राप्त किया था। इस से भगवान बुद्ध ने बड़ा रोष व्यक्त किया था और अपने सभी शिष्यों को एकत्रित करके यह प्रतिबंध लगा दिया था कि उनमें से कभी कोई आलौलिक चमत्कार न दिखाए। तान्त्रिक साधनाएं कर जल पर चलने की सिद्धि प्राप्त करने वाले एक अन्य योगी को उन्होंने यह कह कर निरुत्साहित किया था कि यह छोटी सी सफलता प्राप्त करने के लिए बारह वर्ष तक व्यर्थ श्रम किया। नदी पार करने के लिए तो मल्लाह को कुछ पैसे दे कर नाव में बैठना ही पर्याप्त है।

आध्यात्मिक साधनाओं से साधक की आत्म चेतना परिष्कृत होती है और उसमें कई विलक्षणताएं उत्पन्न हो जाती हैं परन्तु ऋषि मुनियों ने इन विलक्षणताओं पर गर्व करने से तो मना किया ही है, इनकी उपेक्षा का भी निर्देश किया है। योग साधना के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाली सिद्धियों का उल्लेख करते हुए महर्षि पतंजलि ने कहा “ते समधाबुपसर्गा ....” (योग दर्शन 3।37) अर्थात् ये सिद्धियाँ यदि प्राप्त हों तो साधन को इनका त्याग कर देना चाहिए क्योंकि इससे साधना में विघ्न उत्पन्न होता है। सिद्धियों के आकर्षण में उलझ कर व्यक्ति अपने लक्ष्य को भूल जाता है तथा आत्मोद्धार के लिए प्रयत्न करना छोड़ देता है।

यही कारण है कि आत्मोद्धार के लिए साधना कर परमहंस स्थिति में पहुँचे जाने वाले महापुरुषों ने इस तरह की क्षमताओं का परिचय देने से सदैव इन्कार ही किया है। इस युग के महान संत और परम सिद्ध संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस के संबंध में विख्यात है, कि किसी व्यक्ति ने उनके पास जा कर पूछा था, ‘‘यदि आपने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है और ईश्वर का सिद्ध होना मानते हैं तो ऐसा कोई प्रमाण दीजिये जिससे उसके अस्तित्व का पता लगे।’’ प्रश्नकर्ता ने सहज जिज्ञासा के भाव से यह पूछा था। इसलिए रामकृष्ण ने उसका समाधान करते हुए कहा था कि इससे बड़ा चमत्कार क्या हो सकता है कि ‘‘इतना विराट् और विशाल जगत सुव्यवस्थित रीति से चल रहा है। चाँद है, सूरज है, तारे हैं, मैं हूँ, तुम हो, पशु पक्षी हैं, कीड़े-मकोड़े हैं यह कोई कम बड़ा चमत्कार है?’’ रामकृष्ण के पास स्वयं कई अलौकिक सिद्धियाँ थीं। चाहते तो वे कोई भी चमत्कार बताकर प्रश्नकर्ता को चमत्कृत और प्रभावित कर सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि वे जानते थे कि ऐसे प्रदर्शन प्रश्नकर्ता के मन में आत्मोत्कर्ष की आकांक्षा उत्पन्न करने के स्थान पर इन सिद्धियों को प्राप्त करने की ललक उत्पन्न करेगा और वह साधन मार्ग से विचलित हो जायेगा।

अलौकिक शक्तियाँ हैं, उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। उनको प्राप्त करने को सुसंगत विज्ञान है परन्तु व्यक्ति और समाज का कल्याण करने वाले अध्यात्म से उनका कोई संबंध नहीं है। न ही उनकी कोई उपयोगिता है। इसलिए ईश्वरीय विधान के अनुसार उन्हें अविज्ञात एवं रहस्य के आवरण में छिपा रहने दिया जाए, यह उचित है। परमात्मा ने मनुष्य की सहज क्षमताओं को जान बूझ कर उतना ही सीमित रखा है जिससे कि जीवन क्रम सामान्य ढंग से चलता रहे। कल्पना कीजिए अतीन्द्रिय क्षमताएं उपलब्ध होती तो मनुष्य का क्या हाल होता? पूर्वाभास हर किसी को होने लगे तो स्वाभाविक ही मृत्यु का समय सब को मालूम हो जाएगा और वह काफी समय पहले से ही उदास, खिन्न भयभीत और छुब्ध रहने लगेगा। अतीन्द्रिय दर्शन या श्रवण की शक्ति सहज उपलब्ध होती तो किसी भी व्यक्ति के लिए अपना निजी जीवन निज तक सीमित रखना ही संभव नहीं होता। सब दूसरों की व्यक्तिगत बातों को जानते और कान लगाते कि कौन क्या मंत्रणा कर रहा है? इस जानकारी के आधार पर वह दूसरों के हितों पर कुठाराघात करने की चेष्टा भी करता और सभी लोग ऐसा करने लगते तो सृष्टि व्यवस्था का क्या स्वरूप बनता?

परमात्मा ने इन्हीं कारणों से मनुष्य को उतनी ही इन्द्रिय क्षमता दी है कि उसका अपना निजी जीवन भी सरलतापूर्वक चलता रहे और सृष्टिक्रम में भी कोई व्यवधान न आये। इससे न्यूनाधिक देने में मनुष्य का लाभ कम और हानि ही अधिक होती। इसीलिए अतीन्द्रिय क्षमताएं सर्वसुलभ नहीं है और न ही उनकी आवश्यकता है। जो जितना आवश्यक है वह उतना ही सुलभ है। हवा, पानी, आहार, वस्त्र, निवास आदि आवश्यकताएं क्रमशः कम अनिवार्य होती गई है इसलिए इनकी सरल सुलभता भी क्रमशः जटिल और श्रम साध्य होती चली गई है।

अस्तु न तो सिद्धियों के लिए लालायित होने और उन्हें प्राप्त करने के लिए ललक उठने की आवश्यकता है तथा न ही किन्हीं में वैसी शक्तियाँ देख कर प्रभावित होनी चाहिए। इस तथ्य को भली-भाँति समझ लेना चाहिए और गाँठ बाँध लेना चाहिए कि चमत्कारों का अध्यात्म से कोई संबंध नहीं है। अध्यात्म की सबसे बड़ी चमत्कारी सिद्धि आत्मबल है जो व्यक्ति के उत्कर्ष में तो सहायक है ही, उसके बल पर वह असंख्य व्यक्तियों के लिए भी प्रकाश व प्रेरणाएं प्रदान कर सकता है। उस सिद्धि को प्राप्त करने और उसी क्षमता का अधिकाधिक अभिवर्धन करने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।


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