नयी सभ्यता के जन्म की प्रसव पीड़ा

March 1981

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“बीसवीं शताब्दी की अन्तिम दो दशाब्दियां विश्व के लिए भयंकर रूप से अशान्तिकारक होंगी। इतनी अशान्ति और उपद्रव विश्व इतिहास में आज तक कभी भी उत्पन्न नहीं हुआ। अब तक के तमाम उपद्रवों और प्राकृतिक विपदाओं को सन् 1980 से लेकर सन् 2000 के बीच होने वाले उपद्रव तथा प्राकृतिक विपदाएं मात कर देंगी। इन दिनों मानवकृत उत्पातों के साथ-साथ दैवी प्रकोप तथा प्राकृतिक विपत्तियां भी विश्व को संत्रस्त रखेंगी। 1980 के बाद विश्वयुद्ध की पूरी संभावना बनी है जो निश्चित रूप से 1985 के पहले ही प्रारम्भ हो जाएगा। इस युद्ध में इतना व्यापक संहार होगा कि अब तक के इतिहास में जितने भी युद्ध हुए हैं और उनमें जितना विनाश हुआ है वह सब मिलाकर तीसरे विश्व-युद्ध की तुलना में कम ही बैठेगा।”

यह शब्द हैं इस शताब्दी के महानतम भविष्यवक्ता और अंतर्द्रष्टा पीटर हटफौस के, जिन्हें भविष्यदर्शन की क्षमता ईश्वरीय वरदान के रूप में प्राप्त हुई है। उन्होंने इस विनाश के बाद एक नई मानव सभ्यता के विकास की भविष्यवाणी भी की है। उनकी भविष्यवाणी से मिलता-जुलता ही भविष्य कथन है, फ्राँस के रेने ड्यूमा और बर्नार्ड रोजियार। उल्लेखनीय है कि न रेने ड्यूमा कोई ज्योतिषी या भविष्यवक्ता हैं और न ही बर्नार्ड रोजियार, बल्कि दोनों ही विश्व विख्यात वैज्ञानिक हैं और उन्होंने कहा है, ‘‘शीघ्र ही वह समय आने वाला है, जब वर्तमान मानव सभ्यता का अंत हो जाएगा और एक नई विश्व-व्यवस्था जन्म लेगी। यह अंत या तो तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या और भुखमरी के कारण होगा अथवा पृथ्वी सहित और मण्डल के नौ ग्रहों के एक सीध में सूर्य के एक ओर एक पंक्ति में आ जाने से धरती पर आने वाले भूकम्पों के कारण। जो भी हो सन् 1982 से लेकर सन् 2000. तक यह भयावह कल्पना साकार होकर रहेगी। इस विनाश का सिलसिला 1980 के बाद ही आरम्भ हो जाएगा।’’

दो वैज्ञानिकों और एक भविष्यवक्ता द्वारा की गई एक समान भविष्यवाणी केवल इन्हीं व्यक्तियों ने नहीं की है बल्कि संसार के अन्य व्यक्तियों ने भी, जो अपने क्षेत्र की मूर्धन्य प्रतिभाएं मानी जाती हैं। इन संभावनाओं पर सहमति की मोहर लगाई है ब्रिटेन की विज्ञान पत्रिका साइंस के सम्पादक जॉन ग्रिविन तथा नासा अंतरिक्ष केन्द्र के निर्देशक स्टीफन प्लंगमेन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘जूपिटर इफेक्ट’ तो इन दिनों खासी चर्चा का विषय रही है, जिसमें सौर मण्डल के नौ ग्रहों के एक सीध में आ जाने से पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रभावित होने और परिणाम स्वरूप भूकम्प, ज्वालामुखियों के विस्फोट तथा ऋतुओं में आश्चर्यजनक, अप्रत्याशित किन्तु भयंकर परिवर्तन होने की संभावनाओं पर सप्रमाण, वैज्ञानिक ढंग से प्रकाश डाला गया है।

वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगते हैं कि पृथ्वी का जीवन अन्य ग्रहों की स्थिति से प्रभावित होता है। इसी सिद्धान्त के आधार पर भारत में ज्योतिष विद्या का जन्म हुआ था और नक्षत्रों के वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया था कि पृथ्वी पर जीवन के साथ जो कुछ भी घटता है, वह नक्षत्रों से सीधे रूप में प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए सूर्य पर प्रति 11 वे वर्ष उत्पन्न होने वाले धब्बों को ही लिया जाए। इन धब्बों का अध्ययन कर वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर घटने वाली घटनाओं के संबंध में यह संगति पाई है कि युद्ध, महामारी और प्राकृतिक उत्पातों का इन सौर कलंकों से संबंध है।

प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक चिजोवस्की ने पिछले 400 वर्षों में जितनी भी महामारियाँ फैली उन सबका अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि ये सौर कलंक उत्पन्न होने के तीन वर्ष बाद पूरी गति से उभरती हैं और प्रति ग्यारहवें वर्ष इनका उभार तीव्र होता है। संयोग से इस बार सौर-कलंकों का वर्ष भी 1982 है। इस वर्ष सूर्य पर पड़ने वाले धब्बों की संख्या चरम सीमा पर होगी। उनमें और अधिक वृद्धि इसलिए भी हो सकती है कि इन्हीं दिनों सूर्य के एक ओर एक सीध में नौ ग्रह इकट्ठे होंगे। सूर्य उन ग्रहों की गति और स्थिति को ही प्रभावित नहीं करता है बल्कि स्वयं भी उनसे प्रभावित होता है। इसलिए इस वर्ष सौर-कलंक पिछले कलंक वर्षों की अपेक्षा अधिक तीव्र होंगे तथा उनका परिणाम भी अधिक भयावह होगा।

सौर कलंकों का वर्ष सन् 1980-81 का मध्यवर्ती समय आता है। वैज्ञानिकों के अनुसार दो अधिकतम सूर्य कलंकों की संख्या के बीच औसतन 11 वर्ष 40 दिन के करीब का अंतर रहता है। यों सूर्य कलंकों की संख्या नियमित रूप से घटती-बढ़ती है, परन्तु उनके समूहों की अधिकतम संख्या इसी अंतर के बाद चरम स्थिति में पहुँचती है और जिस वर्ष सूर्य कलंक अधिकतम संख्या में होते हैं उस वर्ष को ‘सूर्य कलंक का परम वर्ष’ कहा जाता है। इन दिनों पुनः सूर्य कलंक का चक्र अपनी चरम स्थिति की ओर अग्रसर है। सन् 80-81 इनके बढ़ने, आरम्भ होने के वर्ष हैं और सम्भवतः सन् 83 तक ये कलंक बढ़ते रहेंगे।

सर्वविदित है कि सूर्य जलती हुई गैसों का एक धधकता हुआ वायु पिंड है। जिस प्रकार तेज प्रवाह से बहती हुई नदियों में पानी के भंवर पड़ते हैं, उसी प्रकार सूर्य के गरम द्रव्य में भी भंवर पड़ते हैं। ये भंवर ही सूर्य कलंक के रूप में दिखाई देते हैं। सामान्यतः ये धब्बे बनते बिगड़ते और घटते-बढ़ते हैं, परन्तु इनकी संख्या प्रति ग्यारहवें वर्ष सर्वाधिक हो जाती है और पृथ्वी ही नहीं अन्यान्य ग्रहों को भी प्रभावित करती है।

सर्वप्रथम इन सौर-कलंकों को गैलीलियो ने सन् 1610 में देखा और इनकी प्रतिक्रियाओं का प्रतिपादन किया। तब से लेकर अब तक वैज्ञानिक नित, निरन्तर इन सौर कलंकों का अध्ययन करते आ रहे हैं और हर बार ताजी जानकारियां हासिल करते हैं। अलेक्जेन्डर मारशेक ने अपनी पुस्तक ‘अर्थ एण्ड होराइजन’ में लिखा है कि जब-जब भी इस प्रकार सौर कलंकों की संख्या अपनी चरम स्थिति में होती है तो पृथ्वी पर जलवायु तथा मौसम में कई गड़बड़ियां उत्पन्न हो जाती हैं। कहीं बहुत अधिक वर्षा होती है तो कहीं बिल्कुल कम या एक बूँद भी पानी नहीं बरसता, आँधी तूफानों का वेग बढ़ जाता है। इसी प्रकार गर्मी और शीत भी बढ़ जाती है।

इसके अतिरिक्त इन दिनों भीषण भू-चुम्बकीय उत्पात भी होते हैं अर्थात् भूकम्प, भू-स्खलन, ज्वालामुखियों के विस्फोट आदि होते हैं। इतना ही नहीं मेरु प्रकाश की असामान्य चमक भी इन दिनों देखने में आती है अर्थात् उत्तरी और दक्षिणी दोनों ध्रुवों की जलवायु इन दिनों असाधारण रूप से बदल जाती है।

खगोलविदों के अनुसार ये कलंक सूर्य सतह पर होने वाले विस्फोटों के कारण उत्पन्न होते हैं। 24 फरवरी 1952 को सूर्य की सतह पर हुए एक असामान्य विस्फोट का अध्ययन किया गया था और उसके बाद देखा गया कि पराबैगनी किरणों की एक विराट् सेना पृथ्वी की ओर चल पड़ी है। इन किरणों के आक्रमण की वजह से ग्रीनलैंड, कनाडा, अटलाँटिक तथा वर्लिन में दो सप्ताह तक तूफानों का गतिचक्र तेजी से घूमता रहा। सन् 1955 में अमरीकी वैज्ञानिक डा. वाल्टर तथा डा. राबर्टस ने भी एक सामान्य विस्फोट का अध्ययन किया और लिखा कि इस विस्फोट के तेरहवें दिन ऋतु परिवर्तन का क्रम सामान्य से असामान्य हो गया। कुछ समय तक रेडियो प्रसारणों में व्यवधान उत्पन्न होता रहा, तेज वर्षा, अंधड़ और तूफान आने लगे तथा कई दिनों तक छोटी प्रलय के से दृश्य उपस्थित होते रहे।

सूर्य की सतह पर होने वाले विस्फोटों के कारण जो धब्बे बनते हैं, उनके बनने से प्रक्रिया में उत्पन्न हुआ रेडियो विकिरण तेज गति से पृथ्वी की ओर दौड़ पड़ता है। निश्चित ही यह अन्य ग्रहों को भी लक्ष्य करता होगा, पर उस संबंध में अभी कोई अध्ययन नहीं किया गया है। पृथ्वी के आयन मण्डल को बेधता हुआ यह विकिरण धरती के गर्भ में मीलों तक प्रवेश कर जाता है और उसकी चुम्बकीय व्यवस्था से छेड़छाड़ करता है। इसके अतिरिक्त सूर्यकलंकों के आसपास वाले क्षेत्रों से भी कई प्रकार के कण धीमे एवं तेज गति से निकलते हैं। जो पृथ्वी के साथ छेड़छाड़ करते हैं। नौ-ग्रहों का संयोग और सौर-कलंकों का वर्ष, दोनों मिलकर पृथ्वी को कितना और किस रूप में प्रभावित करेंगे, कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।

डाक्टर वुडाय ने लम्बे समय तक अनुसंधान और प्रयोगों द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है कि अमावस्या तथा पूर्णिमा के समीपवर्ती दिन स्वास्थ्य को विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। उन्होंने अपने अनुसंधान प्रयोगों के दौरान यह पाया कि इन दिनों मृगी, कामुकता, उन्माद और पागलपन जैसे रोग आश्चर्यजनक ढंग से उभरते हैं तथा इन्हीं दिनों समुद्र में ज्वार-भाटे, भूकम्प आदि विशेष रूप से आते हैं। ब्रिटेन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आरनाल्ड और डा. केलिस्को ने भी अपने प्रयोग अनुसंधानों के आधार पर यह प्रामाणित किया है कि परिवर्तनशील अवस्थाओं मानव जीवन और वनस्पतियों पर विशेष प्रभाव पड़ता है।

स्वीडिश वैज्ञानिक सेवन्ती अर्हेनियस ने 25000 निरीक्षण प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है कि चन्द्रमा की स्थिति जन-जीवन, वायुमण्डल और स्त्रियों के मासिक धर्म को प्रभावित करते हैं। सूर्य और चन्द्र की स्थिति ही नहीं धूमकेतुओं का उदय भी पृथ्वी पर कई उत्पातों को जन्म देने का कारण माना जाता है। ऐसा क्यों होता है? वैज्ञानिकों के पास इसका कोई स्तर नहीं है, परन्तु वे इतना तो स्वीकार करते हैं कि जब-जब धूमकेतु उदित होते हैं या आकाश में दिखाई देते हैं, तब-तब भूकम्प, बाढ़, अनावृष्टि तथा ज्वालामुखियों के विस्फोट जैसी घटनाएं अपेक्षाकृत अधिक होने लगती हैं।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जॉन हेनरी नेल्सन ने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी अपने सौर परिवार के अन्य ग्रहों से, विशेषतः शुक्र, गुरु, शनि और मंगल पर होने वाले कम्पनों से प्रभावित होती है। जॉन हेनरी के अनुसार इन ग्रहों की विशिष्ट स्थितियाँ पृथ्वी पर चुम्बकीय तूफानों की श्रृंखला उत्पन्न कर देती हैं और मानवी चेतना को भी कुछ इस प्रकार प्रभावित करती है कि वह अनेकानेक कार्यों में अनजाने और अनचाहे ही प्रभावित होता है।

अगले दिनों सौर परिवार में जो विशिष्ट घटनाएं घटने जा रही हैं यथा सौर-कलंकों की अभिवृद्धि ग्रहण, सूर्य के एक-सीध में नौ-ग्रहों का इकट्ठा होना, ये घटनाएं पृथ्वी के जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित करेंगी। यह तो हुए भावी संभावनाओं के वैज्ञानिक कारण। सूक्ष्मदर्शी और ईश्वर विश्वासी जानते हैं कि अनीति, अन्याय और अधर्म बढ़ जाने पर सृष्टि संतुलन स्थापित करने के लिए परमात्मा कुछ ऐसी व्यवस्था करता है जिसमें अवाँछनीय तत्वों का सफाया हो जाए तथा वाँछनीय और उपयोगी तत्वों का ही अस्तित्व बचा रहे। हालीवुड के मेडीटेशन एण्ड लाइफ सेंटर के अध्यक्ष डब्ल्यू. एस. फांसले ने इन्हीं घड़ियों के संबंध में कहा है कि 1982 में होने वाली इस चमत्कारिक घटना के परिणाम स्वरूप पृथ्वी के वातावरण में विभीषिका उत्पन्न करने वाले परिवर्तन प्रस्तुत होंगे। चुम्बकीय क्षेत्रों में परिवर्तन आएगा और वायुमण्डल में उत्पन्न होने वाले असन्तुलन के कारण विश्व के अनेक स्थानों में विनाशकारी भूकम्प आयेंगे जिनके कारण अपार जन सम्पत्ति का नाश होगा। ऐसा भीषण युद्ध भी संभव है जिसमें परमाणीय अस्त्रों का खुलकर प्रयोग होगा और उसके दूरगामी परिणाम होंगे, जो दो तिहाई आबादी को नष्ट करने का कारण बन सकती है। इस विनाशलीला के पश्चात् जो लोग शेष रह जायेंगे, वे प्रकृति के अज्ञात रहस्यों का पता लगा कर एक उन्नत सभ्यता का विकास करेंगे।

सभी क्षेत्रों के मूर्धन्य प्रभृति विद्वान इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं कि मनुष्य का अस्तित्व इस समय एक निर्णायक संक्रमण बेला से गुजर रहा है। और आने वाले संकट नई सभ्यता के जन्म की प्रसव वेदना है।


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