उस परम ज्योति को किससे जानें

March 1981

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आज के वैज्ञानिकों की यह मान्यता है कि विश्व की मूल सत्ता अज्ञेय है और यह दुनिया ऐसी अज्ञेय अव्याख्येय, अविश्लेष्य ‘अपरीक्ष्य तरंगों का संघात है, जिनके बारे में हमारी जानकारी सीमित है। वैज्ञानिकों के अनुसार यथार्थ जगत क्या है? वह रंगरहित, ध्वनिरहित, अव्याख्येय “कास्मास” है। प्रतीकों का एक विशाल कंकाल मनुष्य खड़ा करता है, और उनके ही प्रक्षेपण को यथार्थ जगत नाम दे देता है।

‘गाइड टू फिलासफी’ के लेखक दार्शनिक जोड़ के अनुसार- ‘‘मैटर’ दिक् तथा काल में, स्पेस एण्ड टाइम में विस्तृत एक रस्सी की ऐंठन की तरह है। वह एक इलेक्ट्रॉनी कुकुरमुत्ता है। अनन्त सम्भावनाओं की एक तरंगावली है, जो कुछ नहीं जैसी है। पदार्थ वस्तुतः दिक्−काल में घट रही घटनाओं की एक व्यवस्था है, जिसकी विशेषताएँ मात्र गणितीय प्रतीकों में संकेतित की जा सकती हैं।”

इसीलिए तो महान गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता सर जेम्स जीन्स ने कहा है- ‘‘यह जगत महान यंत्र नहीं, महान ‘विचार’ ही है, ऐसा अब लगता है। सापेक्षतावाद, निरंतरता, न्यूनतम अवकाश, वक्र, आकाश यानी कर्ब्ड स्पेस, संभावना-तरंगें, अनिश्चितता आदि वैज्ञानिक अवधारणाएं वस्तुतः मन की सृष्टि अधिक है। मन और पदार्थ का पुराना द्वंद्व हो चला है।’’

भौतिकी के समस्त प्रेक्षण एवं अन्वेषण दिक्-काल की टाइम एण्ड स्पेस की ही सीमारेखा के भीतर संभव है और ये टाइम और ‘स्पेस’ क्या है? भौतिकविद् वाट्सन के शब्दों में ‘‘टाइम एण्ड स्पेस एण्ड मेनी अदर क्वान्टिटीज सच एज नंबर, वेलॉसिटी, पोजीशन, टेंपरेचर एट्सेट्रा आरनॉट थिंग्ज’’ अर्थात् ‘काल, दिक् और दूसरे परिणाम जैसे संख्या, वेग, स्थिति, तापमान आदि वस्तुएं।डडडडड डडडडड डड डड डड।

कार्वेथ रीड ने अपनी किताब ‘लॉजिक डिडक्टिव एण्ड इंडक्टिव’ में कहा है- ‘‘वी हेव कांसेप्ट्स रिप्रजेन्टिंग नाथिंग, व्हिच हेव परहेप्स बीन जनरेटेड बाय द मिअर फोर्स आफ ग्रामेटिकल निगेशन।’’

अर्थात् हमारे पास ऐसी अवधारणाएं जो वस्तुतः किसी भी वस्तु सत्ता की प्रतीक-प्रतिनिधि नहीं है, जो संभवत गणितीय निषेधों की शक्ति से निष्पन्न हुई हैं।

डा. डब्लू कार ने कहा है- ‘टाइम’ और ‘स्पेस’ न तो ‘कंटेनर’ हैं, न ही ‘कंटेन्ट’ वे तो मात्र ‘वेरिएन्ट’ हैं। इसी बात को मिन्कोवस्की ने अधिक स्पष्टता से कहा है- दिक् तथा काल की स्वयं में कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वे मात्र छायाएं हैं।

आज ‘सापेक्षता’ का सिद्धांत विज्ञान में सर्वाधिक प्रतिष्ठित है। उसके अनुसार सब परिदृश्यमान एवं अनुभूयमान जागतिक सत्य मात्र आपेक्षिक सत्य है। आकार, गति आदि के अवस्था- भेद से बाह्य वस्तु का ज्ञान प्रत्येक दर्शक के निकट भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है और हो सकता है। तत्व जो सबके लिए सत्य होना चाहिए। इसका निरूपण कैसे हो?

स्पष्ट है कि इस स्थिति में पहुंचकर जब मूर्धन्य विज्ञान-मनीषियों की ही वाणी लड़खड़ाने लगती है और वे गोल-गोल पहेलियां जैसी बुझाने लगते हैं, तब साधारण अध्येता तो इन सबका कोई अर्थ ही नहीं समझ सकता।

भौतिक-विज्ञान की सत्यशोधन की क्षमता सीमित है। एक स्तर तक सूक्ष्म-सूक्ष्मतर प्रेरणा करते चले जाने के बाद वह यह बताने लगता है कि इससे आगे की सूक्ष्मता की पकड़ वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा सम्भव नहीं। समस्त विज्ञान-अन्वेषण वस्तुतः ज्योति-साधना कहा जा सकता है। विचारों की ज्योति की सीमा आपे नहीं है। डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडड पेज छूटा हुआ है। डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडड

क्षिकता सिद्धान्त एवं अनुभूति तक है। विचार भी उपकरण ही हैं। द्रव्य-उपकरणों की ज्योति प्रकाशन-सीमा सूक्ष्मतम तरंगों या रश्मियों तक है। दोनों ही प्रकार की सत्यानुभूतियाँ मानवी-चेतना में सन्निहित ज्योति द्वारा अनुभव-गम्य हैं, जिन्हें 1. गणितीय-ज्योति या विज्ञान-ज्योति एवं 2. विचार-ज्योति कहा जाता सकता है। किन्तु परम सत्य तो ज्योतियों की भी ज्योति है। उसे किस ज्योति द्वारा जाना जाय? समस्त ज्ञान विज्ञाता कौने होते हैं। किंतु स्वयं विज्ञाता, को किसके द्वारा जाना जाय? अणु और महत्, सूक्ष्म और वृहत् दोनों ही दिशाओं में मानवीय ज्ञान सीमित है, जबकि परम सत्य की दोनों में से किसी ओर सीमा नहीं। श्वेताश्वतर उपनिषद् (3।20) के अनुसार वह ‘अणोरणीयान्महतो महीयान्’ है-

“न तत्र सूर्यो भाति, न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽममग्निः।’’

(श्वेता. उप. 6।14)

अर्थात्- वहाँ ने सूर्य प्रकाश की पहुँच है न चन्द्र और तारोँ की न विद्युत की, तब अग्नि या मानवीय सामर्थ्य की उत्पादित ज्योति रश्मि उस तक कैसे पहुँचेगी?

वृहदारण्यक उपनिषद् में जनक याज्ञवल्क्य से पूछते हैं- हे याज्ञवल्क्य, आदित्य, चन्द्रमा, अग्नि और वाक् के भी परे मनुष्य किस ज्योति से ज्योतित रहता है?

याज्ञवल्क्य ने कहा है-

“आत्मनैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते, कर्मकुरुतो बिपल्येतीति।’’ (वृह. उ. 4।3।6)

अर्थात्- आत्मा ही वह ज्योति है, उसी के द्वारा व्यक्ति स्थित होता, गतिशील रहता, क्रियाशील रहता एवं वापस लौट जाता है।

यह आत्मा कौन है?

“योग्यं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः रुत्रः से समानः सन्नुभौ लोकावनुसंचरति, ध्यायतीब, लेलायतीव स हि स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्राति मृत्यो रूपाणि।’’ (वृहदा. 4।3।7)

अर्थात्- यह जो प्राणों में बुद्धि वृत्तियों के भीत रहने वाला विज्ञानमय ज्योतिः स्वरूप पुरुष है, वह समान रूप से लोक-परलोक में संचार में समर्थ है। वही मानो चिन्तन एवं चेष्टा करता है। वही लोक का अतिक्रमण करता है और मृत्यु के रूपों का भी वह अतिक्रमण करता है।

मुण्डकोपनिषद् में स्पष्ट कहा गया है कि वह आत्मा ज्योतियों की भी ज्योति है-

“तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्यदात्मविदो विदुः॥” (मुण्डकोप. 2।2।9)

अर्थात्- वह शुभ ज्योतियों की भी ज्योति ही आत्मवेत्ताओं द्वारा जानने योग्य है।

वह ज्योति ही शेष समस्त बोध की, प्रकाश की, विज्ञाता है। उसे किस विज्ञान से जानें-

“विज्ञातारमरे केन विजानीयात्।” (वृह. उप. 2।4।14)

अर्थात्- भला उस विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जाय?

भौतिकी की साधनभूत ज्योति उस ज्योतियों की ज्योति चेतना को जानने में असमर्थ है। कोई भी अन्य ज्योति उसका दर्शन नहीं करा सकती। तपः शुद्ध चेतना में वह ज्योति स्वतः ही प्रकट होती है। यों, वह विद्यमान तो सदैव है। किन्तु जब तक बुद्धि तत्व की क्रियाओं को ही आत्मानुभूति समझा जाता है, तब तक वह अप्रकट ही रहता है। बुद्धितत्त्व को उस मूल चेतना से ही जोड़ देने पर, उसके समझ समर्पण कर देने पर, उससे पूर्ण तादात्म्य स्थापित करने पर ही वह चेतना बुद्धि को अपने आलोक से प्रकाशित कर देती है, स्वयं को प्रकट कर देती है। यह स्थिति सहसा नहीं आती। उस हेतु निरन्तर साधना करनी होती है। उसी साधना का नाम योग-साधना है। उचित उपाय करने से ही परम सत्य का साक्षात्कार संभव होता है।


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