दिव्य अग्नि का प्रज्वलन कुण्डलिनी साधना से

March 1981

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गायत्री को भारतीय संस्कृति की माता और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। यज्ञ की परम पवित्र श्रेष्ठ सत्कर्मों में गणना होती है और गायत्री का सद्विचारणा, सद्भावना की अधिष्ठात्री ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में उल्लेख किया जाता है। यज्ञ की श्रेष्ठ सत्कर्मों में गणना करने के अतिरिक्त उससे वायु शुद्धि, रोग निवृत्ति, मनोबल की वृद्धि, प्राण वर्षा, वातावरण में सत्तत्व प्रवाह आदि अनेकों लाभ गिनाये जाते है।

जिस ज्वलन्त अग्नि का हवन कुण्डों में पूजन किया जाता है उसे प्रतीकात्मक प्रक्रिया ही समझना चाहिए। यह मानवी पिण्ड में वैश्वानर के रूप में विद्यमान है, उसका केन्द्र मूलाधार स्थित कुण्डलिनी शक्ति है। यही अग्नि शरीर में प्राण रूप से संव्याप्त होकर जीवन का संचार करती है। अग्नि पूजा का आध्यात्मिक स्वरूप इसी दिव्य अग्नि की साधना अर्चना कहा जा सकता है।

सृष्टि का कण-कण अद्भुत और अपार शक्ति से सम्पन्न है। यह ब्रह्मांड शक्ति का विराट् रूप है तो अणु उसकी इकाई। लेकिन अणु भी अनेक खण्डों में बंटा हुआ है और अपने आप में अपरिमित शक्ति समाहित किये हुये है। वह अपने इलेक्ट्रान, प्रोट्रान, न्यूट्रान आदि सहयोगियों के साथ अपना सामूहिक क्रिया-कलाप चला रहा है। इलेक्ट्रान सिद्धान्त के अनुसार अणु भी एक छोटे आकार का ब्रह्मांड है। जिसकी तुलना बड़े रूप में सौर मण्डल से की जा सकती है। इस परमाणु पद्धति (ऐटमिक सिस्टम) के केन्द्र से धनात्मक बिजली (पाजेटिव इलेक्ट्रिसिटी) चार्ज होती रहती है। जिसमें चारों तरफ ऋणात्मक बादल समूह की शक्ति मिलती रहती है। इसे ‘इलेक्ट्रान रिवाल्व’ कहते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी एक धनात्मक चार्ज केन्द्र में स्थिर रहता है और ऋणात्मक चार्ज उस केन्द्र के चारों और गतिशील रहते हैं। जो बात अणु के ऊपर लागू होती है वही सारे ब्रह्मांड और समष्टि पद्धति पर भी लागू होती है। विश्व पद्धति के सारे ग्रह नक्षत्र सूर्य के चारों और चक्कर लगाते हैं और यह पूर्ण सौर मण्डल किसी दूसरे महाकेन्द्र का चक्कर काटता होगा। अंत में सारे असंख्य सौर मण्डल किसी एक महा-महान स्थिर केन्द्र का चक्कर काट रहे होंगे। वही समस्त ब ब्रह्मांडों का केन्द्र ब्रह्म बिंदु इस सारे महा प्रसार को बाँधे हुए है और अनुशासन में रख रहा है। इसी प्रकार इस समस्त शरीर के समस्त जीव कोषों को एक केन्द्र बिंदु साधे संभाले हुए है। उसे महाप्राण कह सकते हैं। इस महाप्राण के दो ध्रुव हैं- 1. एना वोलिक 2. केटा वोलिक। इन्हें आध्यात्मिक भाषा में सहस्रार चक्र और मूलाधार चक्र कह सकते हैं। इसी के आधार पर हमारी गतिशीलता और चेतना टिकी हुई है। इन दोनों को उपासनात्मक प्रयोजन के लिए शिव और शक्ति भी कहा जाता है। इन दोनों का समन्वय जिस सूत्र द्वारा होता है उसे ही कुण्डलिनी समझना चाहिए।

महाप्राण का एक नाम दिव्य अग्नि भी है ब्रह्म अग्नि को पूरे ब्रह्मांड में संव्याप्त शक्ति ऊर्जा का प्रतीक भी बताया गया है। ब्रह्मरंध्र में अवस्थित सहस्रार चक्र को ब्रह्माग्नि कहा गया है। कहीं-कहीं इसी की चन्द्रमा के रूप में भी चर्चा है। सूर्य या चन्द्र दोनों ही प्रकाश के प्रतीक हैं। दोनों ही ऊर्जा प्रदान करते हैं। सूर्य इसलिए कहते हैं कि इसमें प्रचण्ड ऊर्जा विद्यमान है। चन्द्र इसलिये कहते है कि उसमें शाँति और शीलता का अमृत भरा है। इसे शिव कहते हैं और कुण्डलिनी को शक्ति। कुण्डलिनी साधना को इसीलिए शिव शक्ति की संयोग प्रक्रिया कहा गया है।

पौराणिक भाषा में जिस तत्व को शिव और शक्ति कहते हैं, उसी को वैदिक भाषा में सोम और अग्नि कहते हैं। शिव का दूसरा नाम सोम और शक्ति का ही दूसरा नाम अग्नि है। आगम और निगम दोनों ही शास्त्रपक्ष इसी प्रकार का प्रतिपादन करते हैं। यज्ञ का सूक्ष्म स्वरूप कुण्डलिनी अग्नि और सोम रूपी ब्रह्म का समन्वय, लय, समर्पण ही आत्म यज्ञ है। उसी में मानवी महत्ता का विस्तार एवं जीवन लक्ष्य की पूर्ति सन्निहित है। मानवी काया में स्थित कुण्डलिनी रूपी अग्नि और ब्रह्मरंध्र अवस्थित सोम का वर्णन शास्त्रकारों ने इस प्रकार किया है-

द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति। आर्द्रचैव शुष्कं च यदार्द्रं तत् सौम्यं यच्छुष्कं तदाग्नेयम्। -शतपथ

यह संसार दो पदार्थों से मिलकर बना है 1. अग्नि, 2. सोम। इनके अतिरिक्त तीसरा कुछ नहीं है।

अग्निर्वा अहः सोमोरास्थि यदन्तरेण तद् विष्णु। श. प. 3।4।4।15

अग्नि और सोम के मिलन को विष्णु कहते हैं।

इमौ तै पक्षावजरौ पतत्रिणौ याभ्यां रक्षांस्यपहंस्यग्ने। ताभ्यां पतेम सुकृतामु लोकं यत्र ऋषयो जग्मुः प्रथमजाः पुराणाः। यजु. 18।52

हे अग्नि! तेरे दोनों पंख फड़फड़ाते हैं। उनसे पाप और तम का हनन होता है। इन्हीं पंखों के सहारे हम उस पुण्य लोक तक पहुँचते हैं जहाँ पूर्ववर्ती ऋषि पहुँचे थे।

इन्दुर्दक्षः श्येन ऋतावा हिरण्य पक्षः शकुनो भुरण्युः। महान्तसधस्ये ध्रुव आ निषतो नम ते अस्तु मा मा हिंसी। -यजु. 18।53

हे अग्नि! तू सोम रस से परिपूर्ण है। तू दक्ष है। तू ही ऋत युक्त है। तेरे अमृत सिक्त पंख हैं। तू शक्तिशाली है। पोषक है। तू मस्तिष्क में ध्रुव केन्द्र बनकर विराजमान है। तुझे नमस्कार। तू हमें जलाना मत।

अग्निर्ललाटं यमः कृकाटम्। अथर्व 9।7।1

तुम्हारे ललाट में वह अग्नि उत्पन्न हो जो शिव रूप बनकर काम विकृतियों को भस्म कर सके।

पुरुषो यज्ञः। पुरुषसंमितो यज्ञः। शत. 3।1।4।23

मनुष्य ही यज्ञ है। यज्ञ का स्वरूप मनुष्य पर निर्भर होता है।

एक एवाग्निबहुधा समिद्धः।

उस एक ही अग्नि में अनेक प्रकार से हवन किया जाता है।

शिरोवा एतद् यज्ञस्य यदातिथ्यम्। -तैतरेय ब्रा. 3।6

इस यज्ञ का आतिथ्य स्थल सिर है।

सोम एवं शिव को प्रकरण विशेष से इन्द्र भी कहा गया है। यह इन्द्र और अग्नि संयोग का तात्पर्य भी वही है-

ता हि मध्यम्भराणाणामिन्द्राग्नी अधिक्षितः। ता उ कबित्वना कवी पृच्छयमाना सखीयते संधीतमश्नुतं नरा नभन्तामन्येके समे॥ ऋ. 8।40।3

यह इन्द्र और अग्नि संघर्ष बनकर साथ-साथ निवास करते हैं। यह दोनों ही भावुकता भरे कवि हैं। यह सखा बन कर कर्म में प्रवृत्त होते हैं।

या नु श्वेताववो दिव उच्चरात उपद्य भिः। इन्द्राग्न्योरनुव्रतमुहाना यन्ति सिन्धावो यान्त्सीं बन्धादमुंचतां नभन्तामन्यके समे। ऋ. 8।40।8

इंद्र और अग्नि दोनों शुभ्र वर्ण हैं। यह दीप्ति बनकर नीचे से ऊपर को चढ़ते हैं। इनके प्रताप से ही शक्ति नदियाँ गतिशील हैं। द्युलोक में पहुँचकर फिर नीचे को चलते हैं। उन्हें यह दोनों ही असीम बनाते हैं।

शरीर व्यापी अग्नि- विश्व व्यापी महाअग्नि का ही एक स्फुल्लिंग है। इसलिए उसे ब्रह्म का अंश ही कहा जाता है। जीव को ईश्वर का अंश ही कहा जाता है। इस ब्रह्माग्नि- आत्माग्नि की प्रार्थना, उपासना, आराधना करने से साधक वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है जो इस विश्व में पाने योग्य है। इन्हीं तथ्यों के निम्नांकित संकेत ध्यान देने योग्य है-

अयमग्नि ब्रह्म। यजु. 17।14

ब्रह्म ह्यग्निः। शतपथ 1।5।1।11

अग्नियो ब्राह्मणः। ता. ब्रा. 15।4।8 तैत. 2।7।3।1

ब्रह्म ह्यग्नि स्तस्मादाह ब्राह्मणेति। शतपथ. 1।4।2।8

मनुष्य शरीर में विद्यमान यह आत्मा रूपी अग्नि ब्रह्म ही है।

येन ऋषयस्तपसा सत्रमायन्निन्धाना अग्निं स्वराभरन्तः। तस्मिन्नहं निदधे नाके अग्निं यमाहुर्मनवस्तीर्णवर्हिषम्। यजु. 15।49

इस आंतरिक अग्नि को ऋषि लोग अपने तप बल से प्रदीप्त करते हैं और उसे स्वर्गलोक तक पहुँचाकर मस्तिष्क को प्रकाश से भरते हैं। यही दिव्य अग्नि है।

अग्निः पूर्वेभि ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत। स देवां एह वक्षति॥ ऋ. 1।1।2

प्राचीन और अर्वाचीन सभी ऋषि अग्नि का आश्रय लेते हैं क्योंकि वही देवताओं को धारण करती है।

अग्निऋषिः पवमानः पांचजन्यः पुरोहितः। तमीमहे महागयम्। ऋ. 9।66।20

यह अग्नि- ऋषि है। पवित्र करने वाली है। पंच कोशों का मार्ग दर्शक है। इस महाप्राण की हम शरण जाते हैं।

तामग्ने अस्मे इषमेरयस्व वैश्वानर द्यमतीं जातवेदः। यया राधः पिन्वसि विश्ववार पृथुश्रवो दाशुषे-मर्त्याय। ऋ. 9।5।8

हे अग्नि, हमारे भीतर वे उदात्त आकाँक्षाएं पैदा करो जिनसे प्रभावित होकर तुम प्रसन्न होते हो और कीर्ति एवं सिद्धियाँ प्रदान करते हो।

अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य। आ दाशुषे जातवेदो वहात्वमद्या देवां उषर्बुधः॥ ऋ. 1।44।1

हे अग्नि मेरे जीवन की ऊषा बनकर प्रकटो। अज्ञान के अंधकार को दूर करो। ऐसा आत्मबल प्रदान करो जिससे देवों का अनुग्रह खिंचा चला आवे।

त्वदग्ने काव्यास्त्वन्मनीषास्त्वदुक्था जायंते राध्यानि। त्वदेति द्रविणं वीरपेशा इत्थाध्रिये दाशुषे मर्त्याय॥ ऋ. 4।11।3

हे अग्नि! आप सत्य को धारण करने वाले उदार व्यक्ति के अन्तःकरण में कवित्व जैसी करुणा भर देती हो। तुम्हारी ऊष्मा से ही साहसी लोग सिद्धियाँ और सफलताएं प्राप्त करते हैं।

इदं वर्चो अग्निना दत्तमागन्, भर्गो यशः सहः ओजो क्यो वलम्। त्रयस्त्रिंशद्यानि च वीर्याणि, तान्यग्निः प्र ददातु मे॥ अथर्व. 19।30।1

मुझे अग्नि द्वारा क्या कुछ नहीं मिल रहा? प्रकाश, तेज, यश, प्रभाव, पराक्रम और बल- सभी मेरे अंदर आ रहे हैं। मुझ पर अग्नि की कृपा बनी रहे और मुझे तैंतीस प्रकार के सभी वीर्य प्राप्त होते रहें।

अग्नेऽभ्यावर्तिन्नभि मा निवर्तस्वायुषा वर्चसा प्रजया धनेन सन्या मेधया रय्या पोषेण। यजु. 12।7

हे अग्नि तू आयु, वर्चस, प्रजा, धन, दान, मेधा, रयि, पुष्ट बन कर अपना अनुग्रह हमें प्रदान करें।

यह आत्माग्नि जैसे-जैसे प्रखर होती जाती है, वैसे-वैसे ही उसका स्तर और पद बढ़ता जाता है। चार वर्ण चार आश्रम क्रमिक प्रगति के आधार पर ही विकसित होते हैं। यह उन्नति, ऋषि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि के रूप में होती है। देव वर्ग में गणना करते समय इसी को वरुण, मित्र, विश्वेदेवा और इन्द्र के नाम से पुकारते हैं। ब्रह्म अग्नि के भी चार स्तर हैं जो पदार्थों, जीवों और व्यक्तियों को उनकी पात्रता के अनुरूप उपलब्ध होते रहते हैं। अपनी स्वार्थपरता, अहंता, संकीर्णता एवं पशुता को जो व्यक्ति इस दिव्य अग्नि में होम देता है, वह इतना कुछ उपलब्ध कर लेता है नर से नारायण बन जाता है। कुण्डलिनी साधना व्यक्तिक चेतना को ब्रह्मांड चेतना से जोड़ने की प्रक्रिया है। उसी के संसर्ग संपर्क से उस दिव्य अग्नि का अभिवर्धन होता है जिसे साधना की सफलता और सिद्धि कहा जाता है।


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