एक नियम व्यवस्था में बंधे हम सब

March 1981

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प्रकृति के आँगन में रहने और पलने वाले सभी प्राणियों की स्वतन्त्र सत्ता दिखाई देती और प्रतीत होती है। यहाँ तक कि एक परिवार में रहने वाले मनुष्य भी अपनी-अपनी जिन्दगी जीते हैं, आपस में थोड़े बहुत काम चलाऊ घनिष्ठ संबंध रखते हैं और शेष जीवन स्वतन्त्र रूप से व्यतीत करते हैं परन्तु ऐसा है नहीं। जड़-चेतन सभी विराट् चेतना के अभिन्न अंग हैं और एक नियति चक्र में बंधे एक-दूसरे पर इस निर्भर हैं कि उनमें से प्रत्येक ने केवल एक दूसरे से प्रभावित होता है वरन् दूसरों को प्रभावित भी करता है। यों इस प्रभाव को वातावरण का प्रभाव भी कहा जाता है। युद्ध के दिनों में जिन देशों के बीच युद्ध होता है, वहाँ के नागरिकों में ऐसा जोश उत्पन्न होता है कि शान्तिकाल में वह कहीं नहीं दिखाई देता। उन दिनों देशवासी अपनी व्यक्तिगत या सामुदायिक समस्याओं को भूल कर राष्ट्रीय एकता के ऐसे भावना प्रवाह में बहने लगते हैं कि वैसी एकता अन्य अवसरों पर कदाचित ही देखने में आती है। दंगों, हिंसात्मक घटनाओं और अन्य विपदाओं के समय आतंक की व्यापक भावना फैल जाती है। कहने को इसे सामूहिक मनोवैज्ञानिक भी कहा जाता सकता है, परन्तु पिछले दिनों हुए वैज्ञानिक प्रयोगों और अध्ययनों से यह निष्कर्ष सामने आया है कि न केवल मनुष्य ही इस तरह सामूहिक स्थितियों से प्रभावित होता बल्कि जीव जन्तु भी प्रभावित होते हैं और मात्र बाह्य घटनाएं ही प्राणियों को प्रभावित नहीं करती वरन् प्रकृति जगत में, ब्रह्मांड के किसी भी घटक में होने वाले परिवर्तनों से प्राणिमात्र प्रभावित होते हैं।

जिन्हें हम अज्ञ या अल्पज्ञ समझते हैं, वे छोटे-छोटे जीव-जन्तु तक साधारण से प्रकृति परिवर्तनों से प्रभावित होते हैं और उन्हें पहचानते हैं। इन जन्तुओं को पहचानने की क्षमता या संवेदनशीलता किस प्रकार काम करती है। यह जानने के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के जीव वेत्ता डा. जैनट हार्कर ने तिलचट्टों पर कुछ प्रयोग किये। तिलचट्टे रात के अंधेरे में ही अपनी दिनचर्या आरम्भ करते हैं और सूरज अस्त हो जाने के बाद ही अपने घरों से निकलते हैं। सूर्य अस्त हो जाने और अंधेरा घिर आने का संकेत देने वाला केन्द्र इनके सिर में होता है। इस तथ्य को जाँचने के लिए डा. हार्कर ने एक तिलचट्टे का सिर काट दिया और धड़ से अलग कर दिया। इस स्थिति में तिलचट्टे को निश्चित ही मर जाना चाहिए था, परन्तु आश्चर्य की बात थी कि वह जीवित था। उस सिरकटे तिलचट्टे की पीठ पर एक पैर कटा तिलचट्टा बाँधा गया, जिसका सिर सही सलामत था और उन दोनों के शरीर में छेद कर दोनों की काया को एक नली द्वारा जोड़ दिया गया, जिससे ऊपर वाले तिलचट्टे का रक्त नीचे वाले, सिरकटे तिलचट्टे के शरीर में जाने लगा।

ऐसा इसलिए किया गया था ताकि पता लगाया जा सके कि क्या सूरज डूबने और अंधेरा होने का संबंध परिचय केवल मस्तिष्कीय केन्द्र को ही मिलता है अथवा शरीर के अन्य अंग अवयव भी इस तरह की सूचना देते या परिवर्तनों को पहचानते हैं। एक आश्चर्य तो यही था कि तिलचट्टा जीवित था, दूसरा आश्चर्य यह था कि सिर कटे हुए तिलचट्टे को भी सूरज डूबने पर पता चल गया कि सूरज अस्त हो चुका है और वह अपनी दैनिक दिनचर्या की तरह घोषणा करने के लिए कस-मसाने लगा।

ऐसा कैसे संभव हुआ? यह जानने के लिए किए गए अनुसंधानों से पता चला कि तिलचट्टे के सिर में एक विशेष प्रकार का हारमोन होता है जो उसे इस बात की सूचना देता है कि सूरज अस्त हो गया है। आगे के शोध प्रयोग जारी रखते हुए श्रीमती हार्कर ने तिलचट्टे को दो समूहों में बाँट दिया। एक समूह के तिलचट्टे को तो सामान्य परिस्थितियों में रखा गया, किन्तु दूसरे समूह के तिलचट्टों को दिन भर कृत्रिम अंधकार पैदा कर तथा रात्रि में कृत्रिम रोशनी के बीच रखा गया। देखने में आया कि उससे तिलचट्टों के क्रिया-कलापों में यह अंतर आया है कि वे कृत्रिम रोशनी को दिन समझ कर रात में भी दिन की तरह रहते थे तथा दिन में पैदा किये गए कृत्रिम अंधकार में रात की तरह हरकतें करने लगते। इन तिलचट्टों के सिर की वे गुच्छिकाएं निकालकर सामान्य तिलचट्टों के सिर में फिट कर दी गईं। उनके सिर की सामान्य गुच्छिका संकेत देती कि दिन है तो भ्रम में रखे गए तिलचट्टों की गुच्छिका रात का संकेत देती। इस व्यतिक्रम को सामान्य तिलचट्टे अधिक न सह पाए और थोड़े ही दिनों में मर गए।

इन प्रयोगों के आधार पर डा. जैनर ने प्रतिपादित किया है कि प्रकृति के किसी भी कार्य में हस्तक्षेप करना संकटों को आमन्त्रण देना है। प्रकृति ने सभी प्राणियों को नियति चक्र पहचानने और उनके अनुसार अपना जीवन व्यतीत करने की सुविधा दे रखी है। उनमें कोई हस्तक्षेप करता है या व्यवधान आता है तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से अनिष्ट कर होता है।

प्रकृति परिवर्तनों का बोध मस्तिष्क वाले अर्थात् तन्त्रिका संस्थान युत शरीर रचना प्राणियों को ही होता है और तन्त्रिका विहीनों को नहीं होता हो सो ऐसी बात भी नहीं है। पृथ्वी पर विद्यमान सबसे लघुकाय प्राणियों एवं कोशीय जीवों तक को इसका पता चल जाता है। ‘यूग्लीना’ नामक एक कोशीय जीव जिसे अमीबा का तरह न वनस्पति वर्ग में रखा जा सकता है और न ही जन्तु वर्ग पर प्रयोग करने में। यही तथ्य सामने आया है यूग्लीना की एक कोशीय काया में भरा द्रव्य सूरज की धूप से ऊर्जाकर्षित कर अपना काम चलाता है। ऊर्जा को खींचते समय उसकी एक अति सूक्ष्म चाबुक जैसी पूँछ जिसे कशामिका कहा जाता है, इधर-उधर घूमती है। दिन में वह सूरज से ऊर्जा प्राप्त करता है और रात्रि में अपने आसपास के अन्य एक कोशीय जीवों को अपना आहार बनाता है।

यूग्लीना की कशामिका प्रकाश के प्रति अति संवेदी होती है। जैसे ही प्रकाश होता है यह एक सेकेंड में बारह बार फड़कती है और सूर्यास्त होते ही निष्क्रिय हो जाती है। सूर्य प्रकाश हो पहचानने की अद्भुत क्षमता इस जीव में होती है। आँखों में न दिखाई देने वाले इस नन्हें से जीव को जब कृत्रिम रोशनी में रखा गया तो उसमें कोई हलचल नहीं हुई और जब दिन के समय अंधेरे में रखा गया तो कशामिका उसी प्रकार घूमने फड़कने लगी जैसे कि वह सूर्य प्रकाश के समय फड़कती थी।

एक बटा दस इंच के लगभग आकार वाली वोल्वोक्स वनस्पति समुद्र में होती है। इसमें भी यूग्लीना की तरह कशामिकाएं या पूँछ होती है लेकिन यह शैवाल अपनी पूछों से दूसरा ही काम लेता है, वह है समुद्र में तैरने का। इन कशामिकाओं को दाएं-बाएं फेंककर वह पानी में तैरता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जे. डी. पालमर इनका अध्ययन कर रहे थे तो अचानक उनके दिमाग में यह बात आई कि क्या इन पर पृथ्वी के चुम्बकीय बलों का कोई प्रभाव होता है? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए उन्होंने कुछ वोल्वाक्सों को परीक्षण के लिए चुना। उनमें से एक तिहाई को तो सामान्य स्थिति में रखा गया और एक तिहाई को उत्तर दक्षिण दिशा में झूलती हुई चुम्बकीय छड़ के नीचे रखा गया। शेष एक-तिहाई को ऐसी छड़ के सामने रखा गया जो पूर्व पश्चिम दिशा में झूल रही थी। इस छड़ का चुम्बकीय बल पृथ्वी के चुम्बकीय बल से तीस गुना अधिक था। जिन वोल्वाक्सों को पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के बराबर वाली छड़ के नीचे रखा गया था वे तो सामान्य क्रम में उसी दिशा में मुड़े परन्तु जिन्हें प्रतिकूल दिशा में रखी गई चुम्बकीय छड़ के नीचे रखा गया था उनमें आधे भी उस छड़ की दिशा में नहीं गये थे। इस तरह के अनेक प्रयोगों द्वारा पालमर ने यह निष्कर्ष निकाला कि ये छोटे-छोटे जीव-जन्तु न केवल पृथ्वी की चुम्बकीय क्षमता से प्रभावित होते हैं बल्कि उन्हें पहचानते भी हैं।

प्रकृति नियमों का पालन सूक्ष्म जीवों से लेकर बड़े जन्तु और वनस्पति तक बड़ी कड़ाई के साथ पालन करते हैं। इसे यों भी कहा जा सकता है कि जीव-जन्तु और वृक्ष वनस्पति तक प्रकृति के सामान्य से सामान्य नियमों से प्रभावित होते हैं। डा. फ्रेंक ब्राउन ने पिछले बत्तीस वर्षों से इन दिशा में गहन शोध अध्ययन किया है और पाया है कि प्रकृति परिवार का प्रत्येक सदस्य एक नियति चक्र में बंधा अपने क्रिया-कलाप सम्पन्न करता है।

सूरजमुखी का फूल तो सूरज की ओर ताकना, निहारता ही रहता है। कीचड़ में पैदा होने और पलने वाला एक घोंघा ‘नासारिअम ओब्सोलिश’ भी सूर्य के साथ-साथ चलता है। डा. ब्राउन ने इंग्लैण्ड के समुद्री तट पर कोई 34000 घोंघों का अध्ययन निरीक्षण किया तथा पाया कि ये घोंघे सुबह से शाम तक पूर्व से पश्चिम की ओर ही अपनी गति दिशा रखते हैं। उन्हें ऐसी स्थिति में भी रखा गया जहाँ कि उन्हें सूर्य के उगने और दिन दोपहर में आकाश के बीचों बीच आने तथा बाद में पश्चिम दिशा में ढलने का पता ही नहीं चले। इस प्रकार की व्यवस्था द्वारा उत्पन्न किये गए अवरोध से वे अप्रभावित ही रहे। रात में जब कभी उन्हें चलना होता है तो वे चन्द्रमा से प्रभावित होकर उसी दिशा में बढ़ते हैं। अमावस्या के दिन तो वे एक तरह से छुट्टी ही मनाते हैं।

ग्रुनिअन नामक एक समुद्री मछली तो पूरी तरह चन्द्रमा के साथ अपनी जीवनचर्या व्यतीत करती है। पूर्णिमा के दिन जब समुद्र में ज्वार आता है या पानी की लहरें अपेक्षाकृत अधिक दूरी तक जमीन पर पहुँचती हैं तो ये मछलियाँ उन लहरों के साथ अपने अण्डे लेकर तट पर आतीं तथा बालू पर छोड़ जाती हैं। अटलाँटिक महासागर में पाई जाने वाली सीपियाँ केवल पूर्णमासी के दि नहीं अपना मुँह खोलती हैं। कहीं ऐसा समुद्र में उठने वाले ज्वार के प्रभाव से तो नहीं होता? यह सोच कर डा. ब्राउन ने कुछ सीपियाँ प्रयोगशाला में टब के भीतर पानी भर कर उनमें रखीं। वहाँ भी उन्होंने पूर्णमासी के दिन ही अपना मुँह खोला जबकि टब में ज्वार आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।

सूर्य और चन्द्रमा के मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों के आधार पर डा. एडसन एण्ड्रूज ने कहा है कि मनुष्य भले ही अपने आपको स्वतन्त्र समझे परन्तु उनका शरीर जिन पंचतत्त्वों से बना है वे पंचतत्त्व ब्रह्मांडीय हलचलों में प्रभावित होते हैं तथा उनका असर मनुष्य के जीवन पर भी पड़ता है। पृथ्वी और मनुष्य शरीर की संरचना में साम्य दर्शाते हुए उन्होंने लिखा है कि हमारी नसों में बहने वाला रक्त समुद्री जल से अद्भुत साम्य रखता है और जब पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार उठता है तो हमारी शिराओं में भी ज्वार उठने लगता है। उन्होंने डाक्टरों को सलाह भी दी है कि वे जहाँ तक संभव हो पूर्णिमा के दिन कोई आपरेशन न किया करें क्योंकि उस दिन अधिक रक्त बहने की संभावना रहती है। स्वयं अपने संबंध में उन्होंने लिखा है कि भले ही मुझे कोई अंधविश्वासी क्यों न समझे? पर मैं केवल अमावस्या की रात या दिन को ही आपरेशन के लिए चुनता हूं। यदि कोई आपरेशन कुछ समय के लिए भी स्थगित नहीं किया जा सकता तो ही उसे बिना यह विचार किये करना चाहिए अन्यथा अमावस का दिन आपरेशन के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है।

मनुष्य शरीर और समुद्र आदि तो दूर की बात रही अब तो एक प्याली में भरे हुए पानी पर भी चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण बल को मापा जाने लगा है। चन्द्रमा और वर्षा के पारस्परिक संबंधों को लेकर भी वैज्ञानिक विचित्र निष्कर्षों पर पहुँचे हैं। उनके अनुसार पूर्णिमा के समय तक अर्थात् शुक्लपक्ष में बादलों पर ब्रह्मांडीय धूल की अधिक वर्षा होनी है और उन दिनों कृष्ण पक्ष की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है।

इस प्रकार अनेक प्रतिपादनों और प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया जाने लगा है कि समूचा विश्वब्रह्मांड एक व्यवस्था के अंतर्गत चल रहा है। सबके लिए एक से नियम हैं, एक सा नियति चक्र है और सभी अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार उनमें प्रभावित होते हैं। यह अंतर्संबंध अनायास ही इस अध्यात्म मान्यता की पुष्टि कर देता है कि समूचा विश्व-ब्रह्मांड एक ही विराट् चेतना का अंग है और भिन्न-भिन्न दिखाई देने वाले घटक केवल उस अग्नि के अलग-अलग स्फुल्लिंग मात्र हैं।


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