मानव-शरीर को परमात्मा की सर्वोत्कृष्ट कृति कहा गया है। यहाँ तक कि उसे पंच-तत्वों से निर्मित परमात्मा का निवास स्थान माना जाता है। इसीलिए इसे देव-मन्दिर भी कहा गया है। परमात्मा के निवास गृह देह रूपी देव मन्दिर को पवित्रता, निर्मलता और शोभा सुषमा-सौंदर्य से भरा रहना चाहिए। ईश्वर के इस दुर्लभ, अनोखे एवं सुँदर देह रूपी उपहार की उपेक्षा-अवहेलना तिरस्कार करके उसे रोगी, शक्तिहीन एवं कुरूप बनाना महान पाप अर्जित करना है। इसको सुन्दर, स्वस्थ और रोग मुक्त रखना ही सर्वोपरि कर्त्तव्य है।
“शरीमाद्यम् खलुधर्मसाधनम्” यह शरीर ही धर्मादि को प्राप्त करने का साधन है। कोई भी भौतिक अथवा आध्यात्मिक उपलब्धि बिना स्वस्थ एवं नीरोग-सशक्त, शरीर के संभव नहीं। इस संसार में जीवन का आधार यह शरीर ही है।
इस देव-मन्दिर देह की जब इतनी महत्ता शास्त्रों में प्रतिपादित की गई, तो प्रश्न उठता है कि इसे निरोग स्वस्थ एवं सशक्त कैसे रखा जाय? यह तो सभी जानते हैं कि इस मानव देह का निर्माण अवनि, अम्बु, अनल, अनिल और आकाश के पंच तत्त्वों से हुआ है। शरीर में यदि इन तत्त्वों का संतुलन साम्य बना रहे तो उसमें निरोगता एवं सशक्तता बनी रहती है और उनमें असन्तुलन, विकृति अथवा कुपित हो जाने के कारण रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। ये पंच तत्त्व प्राकृतिक हैं। इनके असन्तुलन, न्यूनता अधिकता से उत्पन्न रुग्णता, दुर्बलता आदि को प्रकृति के सामीप्य-सान्निध्य में रहकर ही दूर किया जा सकता है। जीवन को भौतिक कृत्रिमता से अधिकाधिक दूर रखकर रोगमुक्त, शक्तियुक्त रखना पंच तत्त्वों की साधना-प्राकृतिक जीवन से संभव है।
मनुष्य प्रकृति विरोधों का आचरण करके अपनी भूल, प्रमाद या अज्ञानवश रोगों को आमन्त्रित कर लेता है और अपने इस पंचतत्त्व के कलेवर का उपचार तीव्र एवं विषैली औषधियों से इन्जेक्शनों या शल्य क्रिया से करता है जिसके दूरगामी परिणाम हानिप्रद ही होते हैं। यद्यपि क्षणिक राहत इन उपायों से जान पड़ती है। कालान्तर में अन्य जीर्ण-असाध्य व्याधियां प्रकट हो जाती हैं जो शरीर का अन्त करके ही छोड़ती हैं। प्रकृति माता बड़ी उदार है। जब भी मानव अपने को प्रकृति के आँचल में छोड़ पंच-तत्त्वों का उपचार प्रारम्भ करता है वह करुणा-मयी अपना वरद्हस्त उनके सिर पर रखकर स्वास्थ्य, निरोगता एवं सशक्तता का अनुदान-वरदान देना प्रारम्भ कर देती है। उसकी अनन्त अनुकम्पा से मनुष्य देह-रूपी देव मन्दिर रोग युक्त, शक्तियुक्त हो जाता है। अस्तु अधिक से अधिक प्राकृतिक आहार-विहार के अनुरूप जीवनचर्या बनाकर, तद्नुरूप पालन कर इस देह को स्वस्थ और सशक्त रखा जाय और देव-मन्दिर की सार्थकता को पूर्ण किया जाय।
जहाँ तक मृत्यु का प्रश्न है संसार का कोई प्राणी इससे बचा नहीं है। जिसने जन्म लिया है उसे निश्चित रूप से मरना है। शास्त्रकारों ने मृत्यु को सुखद नींद और दिव्यलोक कहा है। अथर्ववेद में कहा गया है-
“अयं लोकः प्रियतमो देवानाम पराजितः। यस्मै त्वमिह मृत्यवे दिष्टः पुरुष जज्ञिषे। सच त्वाऽनुह्वयामसि मा पुरा जरसो मृथाः॥ (अ. 5। 30। 27)
अर्थात्- ‘‘यह देवताओं का प्यारा लोक है। यहाँ पराजय का क्या काम? तुम सोचते हो कि तुम मौत के प्रति संकल्पित किये हुए हो। बात ऐसी नहीं है, हम तुम्हें वापिस बुलाते, बुढ़ापे से पहले कभी मरने की न सोचो।”
वस्तुतः मृत्यु से कोई बचा नहीं, वह तो अवश्यंभावी है। जन्म मृत्यु का चक्र निरंतर गतिशील है। जहां जन्म है वहां मृत्यु भी एक न एक दिन अवश्य होती है परन्तु मौत को उत्कृष्ट विचारों की शक्ति एवं सद्भाव सम्पन्न मनःस्थिति द्वारा आनन्ददायक अवश्य बनाया जा सकता है। उससे संघर्ष करते हुए आगे को टाला जा सकता है। वेदों में इसी तथ्य का उद्घोष किया गया है-
“वर्च प्रा धेहि में तन्वांऽसह ओजोवयं बलम्। इन्द्रियाय त्वा कर्मणे वीर्याय प्रतिगृहणामि शत शारदाय॥ (अ. 19। 37। 2)
अर्थात्- मेरे शरीर में तेज, शक्ति, ओज, पराक्रम पौरुष सदा बना रहे। मैं सौ वर्षों तक अपनी समस्त इन्द्रियों से कम करता हूं।
मानव-जीवन की सार्थकता इसी में है कि मनुष्य अपने जीवन पर्यन्त पूर्ण स्वस्थ, पुरुषार्थी, शक्तिवान एवं वीर्यवान बना रहे।
रूस के एक ‘मखमूद इवाजोव’ नामक किसान 158 वर्ष के हुए हैं। उनके कार्य, स्वास्थ्य एवं सक्रियता की बड़ी सराहना की गई। सोवियत सरकार ने उन्हें “ऑनर ऑफ रेड बैनर ऑफ लेबर” से 1947 ई. में विभूषित किया था।
रूस में ओसेतिया निवासी एक महिला ‘तिपो आब्जीव’ ने दीर्घायु का विशेष रिकार्ड स्थापित कर दिया। सन् 58 में एक सौ अस्सी वर्ष की लम्बी आयु में देहान्त हुआ था। उनका कथन है कि लम्बी आयु में देहान्त हुआ था। उनका कथन है कि मात्र मन को सन्तुलित एवं शांत रखकर जीवन यापन करने से शरीर रूपी यंत्र बड़े लम्बे समय तक काम करता रह सकता है।
अथर्ववेद के शब्दों ने दीर्घ जीवन के रहस्यों का उद्घाटन कर दिया है-
“अनुहृतः पुनरेहि विदवानुदयनं पथः। आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतोऽयनम्॥’’ (अ. 5। 30। 9)
अर्थात्- हे मनुष्यों! तुम मृत्यु की ओर क्यों जा रहे हो? मैं तुम्हें जीवन, उल्लास, यौवन, उत्साह की ओर बुला रहा हूँ, वापिस आओ।”
अथर्ववेद के इन शब्दों में जीवन के प्रगति उत्साह और उमंग भरी प्रेरणा दी गई है। अहितकर एवं निराशापूर्ण निषेधात्मक चिन्तन मौत से अधिक कष्ट कारक होता है। जीवन का सच्चा मार्ग उत्कृष्ट विचारों एवं आदेश कर्त्तव्यों से ही मनुष्य जान पाता है।
मृत्यु निश्चित है और स्वाभाविक है। वह प्रकृति की ही एक व्यवस्था या प्रक्रिया है। उससे बचा नहीं जा सकता, किन्तु रोगी बीमारी अप्राकृतिक है और उसके कारण अकाल मृत्यु के मुख में पहुँचना भी अप्राकृतिक है। दीर्घायुष्य प्राप्त करना सामान्यतः हर किसी के लिए संभव है। आवश्यक इतना भर है कि प्राकृतिक नियमों का पालन किया जाए।