गायत्री उपासक नियमित रूप से, नियमपूर्वक, श्रद्धा-विश्वास सहित जैसे-जैसे साधना प्रक्रिया चलाने लगता है, उसकी साधना में क्रमबद्धता और पूर्णता आने लगती है वैसे-वैसे साधना की दिव्य-ज्योति अधिकाधिक प्रकाशित होती चलती है और अन्तरात्मा की ग्राह्य शक्ति बढ़ती चलती है। रेडियो यंत्र के भीतर बल्ब लगे होते हैं, बिजली का संचार होने से वे जलने लगते हैं। प्रकाश होते ही यंत्र की ध्वनि पकड़ने वाला भाग जागृत हो जाता है और ईथर तत्व में भ्रमण करती हुई सूक्ष्म शब्द तरंगों को पकड़ने लगता है, इसी क्रिया को ‘रेडियो बजाना’ कहते हैं। साधना एक बिजली है, जिससे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के बल्ब दिव्य-ज्योति से जगमगाने लगते हैं। इस प्रकाश का सीधा प्रभाव अन्तरात्मा पर पड़ता है, जिससे उसकी सूक्ष्म चेतना जागृत हो जाती है और दिव्य संदेशों को, ईश्वरीय आदेशों को, प्रकृति के गुप्त रहस्यों को समझने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार साधक का अन्तःकरण रेडियो का उदाहरण बन जाता है और उसके द्वारा सूक्ष्म जगत की बड़ी-बड़ी रहस्यमय बातों का प्रकटीकरण होने लगता है।
गायत्री संहिता में इस प्रकार की अनेकों सिद्धियों का उल्लेख किया गया है, पर उसके साथ ही यह भी बताया गया है कि गायत्री की इन दिव्य शक्तियों का अवतरण उसी अन्तःकरण में होता है जो परिष्कृत, स्वच्छ और निर्मल बन जाता है। विमान हर कहीं नहीं उतर सकते उन्हें उतारने के लिये उपयुक्त एयरपोर्ट- हवाई अड्डे चाहिए। गायत्री की दिव्य शक्तियाँ भी उपयुक्त परिष्कृत और निर्मल व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्तियों में होती हैं। इस तथ्य को गायत्री संहिता में इस प्रकार व्यक्त किया गया है-
वाह्यं चाभ्यन्तरं त्वस्य नित्यं सन्मार्गगामिनः। उन्नतैरुभयं द्वारा यात्युन्मुक्तकपाटताम्॥19॥
सर्वदा सन्मार्ग पर चलने वाले इस व्यक्ति के बाह्य और भीतरी दोनों उन्नति के द्वार खुल जाते हैं।
अतः स्वस्थेन चित्तेन श्रद्धया निष्ठया तथा। कर्त्तव्याविरतं काले गायत्र्या समुपासना॥20॥
श्रद्धा से, निष्ठा से तथा स्वस्थ चित्त से प्रतिदिन गायत्री की उपासना करनी चाहिए।
अपने व्यक्तित्व को सुसंस्कारित और चरित्र को परिष्कृत बनाने वाले व्यक्ति को गायत्री महाशक्ति मातृवत् संरक्षण प्रदान करती है। जिस प्रकार दयालु, समर्थ और बुद्धियुक्त माता प्रेम से अपने बालक का कल्याण ही करती है, उसी प्रकार भक्तों पर स्नेह रखने वाली गायत्री अपने भक्तों का सदैव कल्याण ही करती है-
दयालुः शक्तिः सम्पन्ना माता बुद्धिमती यथा। कल्याण करुते ह्यैव प्रेम्णा बालस्य चात्मनः॥21॥
तथैव माता लोकनां गायत्री भक्तवत्सला। विदधाति हितं नित्यं भक्तानां ध्रुवमात्मनः॥।22॥
गायत्री साधकों की मनोभूमि इतनी निर्मल हो जाती है कि उसमें फिर सदिच्छाएं ही उत्पन्न होती हैं। साधक के अन्तःकरण में उत्पन्न हुईं सदिच्छाएं और साधक का अपना साधन बल उन इच्छाओं की पूर्ति में आश्चर्यजनक रूप से सहायक सिद्ध होता है-
गायत्र्युपासकस्वान्ते सत्कामा उद्भवन्ति हि। तत्पूर्तयेऽभिजायन्ते सहज साधनान्यपि॥17॥
निश्चय ही गायत्री के उपासक के हृदय में सदिच्छाएं पैदा होती हैं। उनकी पूर्ति के लिए सहज में साधन भी मिल जाते हैं।
त्रुटयः सर्वथा दोषा विघ्ना यान्ति यदान्तताम्। मानवो निर्भयं याति पूर्णोन्नति पथं तथा॥18॥
जब सर्व प्रकार के दोष, भूलें और विघ्न विनाश को प्राप्त हो जाते हैं तब मनुष्य निर्भय होकर पूर्ण उन्नति के मार्ग पर चलता है।
उच्च संस्कारों से अपनी मनोभूमि को सुसंस्कृत करने वाले साधक यद्यपि कोई गंभीर या अनैतिक भूलें नहीं करते। फिर भी मानवीय दुर्बलताओं के कारण उनसे यत्किंचित् त्रुटियाँ हो भी जाती हैं तो उनका वैसा दुष्परिणाम नहीं होता। गायत्री संहिता में कहा गया है-
कुर्वन्नाति त्रुटीर्लोके बालको मातरं प्रति। यथा भवति कश्चिन्न तस्या अप्रीतिभाजनः॥23॥
कुर्वन्नपि त्रुटीर्भवतः क्वचित् गायत्र्युपासने। न तथा फलमाप्नोति विपरीतं कदाचनः॥24॥
जिस प्रकार संसार में माता के प्रति भूलें करता हुआ भी कोई बालक उस माता का शत्रु नहीं होता, उसी प्रकार गायत्री की उपासना करने में भूल करने पर कोई भक्त कभी भी विपरीत फल को नहीं प्राप्त होता।
साधना करते-करते जब साधक का हृदय दिव्य पवित्रता से परिपूर्ण हो जाता है तो सूक्ष्म दैवी शक्ति जो व्यष्टि अन्तरात्मा और समष्टि परमात्मा में समान रूप से व्याप्त है, उस पवित्र हृदय पटल पर अपना कार्य आरम्भ कर देती है और साधक में कई दिव्य शक्तियों का जागरण होने लगता है।
धारयन् हृदि गायत्री साधको धौतकिल्विषः। शक्तिरनुभवत्युग्राः स्वमिन्ने वात्मलौकिकाः॥89॥
पाप रहित साधक हृदय में गायत्री को धारण करता हुआ अपनी आत्मा में अलौकिक तीव्र शक्तियों का अनुभव करता है।
एतादृश्यस्तस्य वार्ता भासन्तेऽल्प्रयासतः। यास्तु साधारणो लोको ज्ञातुमर्हति नैव हि॥90॥
उसको थोड़े ही प्रयास से ऐसी-ऐसी बातें विदित हो जाती हैं, जिन बातों को सामान्य लोग जानने को समर्थ नहीं होते।
एतादृश्यस्तु जायन्ते ता मनस्यनुभूतयः। यादृश्यो न हि दृश्यन्ते मानवेष कदाचनः॥91॥
उसके मन में इस प्रकार के अनुभव होते हैं, जैसे अनुभव साधारण मनुष्यों में कभी भी नहीं देखते जाते।
इन शक्तियों का जागरण मंत्र शक्ति का ही चमत्कार कहा जाना चाहिए। मंत्रों में शक्ति कहाँ से आती और कैसे उत्पन्न होती है यह एक अलग विषय है। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि मंत्रों में प्रयुक्त किये गये शब्द शरीर के विभिन्न अंगों पर अपना प्रभाव उत्पन्न करते हैं और उन्हें सक्रिय सचेतन बनाते हैं। गायत्री संहिता में कहा गया है कि इस मंत्र के अक्षरों का गुंथन इस प्रकार हुआ है कि उसके कारण समस्त गुह्य ग्रन्थियाँ जागृत हो जाती हैं। इनका महत्त्व बताते हुए कहा गया है-
जागृता ग्रन्थयस्त्वेताः सूक्ष्माः साध च मानसे। दिव्यशक्तिसमुद्भूति क्षिप्रं कुर्वन्त्यसंशयम्॥26॥
जागृत हुई ये सूक्ष्म यौगिक ग्रंथियाँ साधक के मन में निःसंदेह शीघ्र ही दिव्य शक्तियों को पैदा कर देती हैं।
जनयन्ति कृते पुंसामेता वै दिव्यशक्तयः। विविधान् वै परिणामान् भव्यान् मंगलपूरितान्॥27॥
ये दिव्य शक्तियाँ मनुष्यों के लिये नाना प्रकार के मंगलमय परिणामों को उत्पन्न करती हैं।
परन्तु साधक को इन शक्तियों के उपयोग में सावधान रहने के लिए कहा गया है। शक्तियों का संचय और उनका सदुपयोग ही उपलब्धियों को सार्थक बनाता है अन्यथा अर्जित की गई शक्तियाँ व्यर्थ ही नष्ट होती हैं।
तदनुष्ठान-काले तु स्वशक्तिं नियमेज्जनः। निम्नकर्मसु ताः धीमान् न व्ययेद्धि कदाचनः॥72॥
मनुष्य को चाहिए कि वह गायत्री साधना से प्राप्त हुई अपनी शक्ति को संचित रखे। बुद्धिमान मनुष्य कभी उन शक्तियों को छोटे कार्यों में खर्च नहीं करते।
नैवानावश्यकं कार्यमात्मोद्धार स्थितेन च। आत्मशक्तेस्तु प्राप्तायाः यत्र-तत्र प्रदर्शनम्॥73॥
आत्मोद्धार के अभिलाषी मनुष्य को प्राप्त हुई अपनी शक्ति का जहाँ-तहाँ अनावश्यक प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
शक्तियों का संचय करने और उपयोगी प्रयोजनों में ही उन्हें नियोजित करने के साथ-साथ साधक को यह भी ध्यान में रखना पड़ता है कि वह इन शक्तियों को निजी प्रयोजनों के लिए उपयोग में न लावे। उसे अपने गन्तव्य लक्ष्य को स्मरण रखना चाहिए और उसकी प्राप्ति तक बड़ी से बड़ी सिद्धियों के भी उपयोग की ललक से बचना चाहिए।