विचार शक्ति सन्मार्गगामी हो

March 1981

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अनगढ़ मनुष्य को सुगढ़ एवं नर पशु को नर-नारायण बना देने की क्षमता अगर किसी में है तो वह मन में है। उत्थान और पतन इसी पर निर्भर करता है। वह शक्तियों का पुंज है। महामानवों के गढ़ने एवं नर-पिशाचों को पैदा करने की सामर्थ्य मन में है। उसी ने ईसा, बुद्ध, कृष्ण को भगवान बनाया। अधोगामी होकर रावण, कंस, सिकन्दर, नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी पैदा किए। इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाएं मन के ही उत्थान पतन की कहानियाँ हैं।

विचारणा उसकी अभिव्यक्ति है। यों तो उथले अस्त-व्यस्त विचार मन में उठते रहते और कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाते। सूर्य की बिखरी किरणों के समान पीने-खाने के सामान्य प्रयोजन ही पूरे कर पाते हैं। पर वे भी निग्रहित दिशा विशेष में नियोजित होकर असाधारण सामर्थ्य प्राप्त कर लेते हैं। आतिशी शीशे पर केन्द्रित सूर्य किरणों की ध्वंसकारी सामर्थ्य के समान चमत्कारी प्रभाव दिखाते हैं। बिखराव कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं करने देता और उससे मन की शक्तियाँ ही नष्ट होती रहती हैं। एकाग्रता के अभाव में प्रचण्ड शक्ति का स्त्रोत होते हुए भी उसकी क्षमताओं का लाभ नहीं मिल पाता। वैज्ञानिक, कवि, कलाकार, साहित्यकार, विचारक, मनीषी मन की एकाग्रता की ही परिणति है। मन जब ऊर्ध्वगामी बनता है तो मनुष्य महात्मा, सन्त, देवात्मा बनता है। निम्नगामी होने पर नर से नरपशु और नर-पिशाच बन जाता है।

संकल्प विकल्प पर ही उत्थान पतन का क्रम निर्भर करता है। संकल्प की असीम सामर्थ्य को जानते हुए ही शास्त्रों में अनेकों स्थान पर उसकी स्तुति की गई है। शिवत्व से युक्त संकल्प की कामना की गई है। ऋषियों ने प्रार्थना की है ‘मन का संकल्प शिव हो, रौद्र न हो विधायक ही विनाशक न हो। कल्याण का सृष्टा हो-विनाश का रचयिता नहीं। रचनात्मक श्रेष्ठ कार्यों की सत्प्रेरणाएं शिवत्व से भरे-पूरे संकल्प ही जागरूक रहते।

शास्त्रों में मन की दो प्रकार की शक्तियों का उल्लेख मिलता है। नयन और नियमन। एक मंत्र में वर्णन है।

“सुषारधिर खानिव यन्मनुष्यान, नेनीयतेऽभीर्वाजिन इव। हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मेमनः, शिव संकल्प मस्तु॥’’

मंत्र में सारथी की उपमा मन से तथा इन्द्रियों की घोड़े से दी गई है। ‘अश्व’ तथा ‘बागी’ शब्द घोड़े के लिए ही प्रयुक्त होता है। किन्तु इन दोनों में भी अंतर है। अश्व उस घोड़े को कहते हैं जो धीरे-धीरे दौड़ता है। ‘बागी’ तीव्र गति से चलने वाले घोड़े को कहते हैं। यदि उसे रोका न जाय तो दुर्घटना कर बैठेगा। सुयोग्य सारथी प्रथम प्रकार के घोड़े को चाबुक मार कर सही मार्ग पर आगे बढ़ने को बाध्य करता है। किन्तु बागी को सदा लगाम खींचकर गलत मार्ग पर जाने से रोकता है। एक को ‘नयन’ करता ‘दूसरे पर नियमन’। मन में भी दोनों ही प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं। शिथिलता को सक्रियता में बदलना तथा उद्धत आचरण से बचाये रखने से ही मन समर्थ बनता है।

शरीर एवं इन्द्रियाँ तो आयु के साथ क्षीण हो जाते हैं। पर मन आयु के बंधनों से परे होता तथा सदा युवा बना रहता है। वह कभी बूढ़ा नहीं होता। उसकी गति से तीव्र चलने वाली किसी भी वस्तु का अब तक पता नहीं लग सका है। उसकी शक्ति जिस भी दिशा में बढ़ जाय क्रान्ति ला सकती है। ‘गीता’ कहती है ‘योमच्छ्रद्धः स एवं सः’ मनुष्य श्रद्धा का पुंज है। संकल्प का खजाना है। संकल्पों में शिवत्व का समावेश है। इसकी प्रार्थना बार-बार की गई है।

इच्छा शक्ति के अनेकानेक चमत्कार देखने को मिलते हैं। यह मानसिक शुद्धि, पवित्रता एवं एकाग्रता पर आधारित है। जिसका मन जितना पवित्र और शुद्ध होगा उसके संकल्प उतने ही बलवान एवं प्रभावशाली होंगे। संत महात्माओं के शाप, वरदान की चमत्कारी घटनाएं उनकी मन की पवित्रता एवं एकाग्रता के ही परिणाम हैं। इस तथ्य से सारे विश्व के सभी धर्म शास्त्रों ने मन को पवित्र बनाने पर जोर दिया है।

बिखराव से कमजोरी आती है। मन की अधिकाँश शक्ति लोभ, मोह के भौतिक आकर्षणों में यों ही नष्ट होती रहती है और क्रमशः क्षीण पड़ती जाती है। मन के बिखराव से चंचलता को रोकने के लिए दृढ अवलम्बन की आवश्यकता पड़ती है। उसकी चंचलता तो विषयों के साथ जुड़कर और भी बढ़ जाती है। एकाग्रता का लक्ष्य पूरा हो सकना तो दूर की बात है।

ऋषियों ने इस तथ्य को समझा। मन को नियन्त्रित, दृढ एवं एकाग्र बनाने पर जोर दिया। साधनात्मक उपचारों का प्रतिपादन किया। उपासना को सर्वश्रेष्ठ अवलम्बन माना। जो एकाग्रता का एकाकी लक्ष्य ही नहीं सही दिशा में नियोजन का उद्देश्य भी पूरा करता है। मन उस परम सत्ता से जुड़कर ही टिका रह सकता तथा दृढ बन सकता है। एकाग्रता प्राप्ति के अन्यान्य माध्यम भी हो सकते हैं। सतत् अभ्यास से संकल्प शक्ति भी विकसित हो सकती है। पर उसका नियोजन श्रेष्ठ उद्देश्यों के सृजन के लिए होगा यह आवश्यक नहीं। संकल्प के, मनोबल के धनी नेपोलियन, हिटलर भी थे। पर वे इस शक्ति का सदुपयोग न कर सके। ध्वंस पर उतारू हुए और इतिहास में अपने कुकृत्यों का काला पन्ना जोड़ कर गये। इसलिए मनोबल की वृद्धि ही नहीं सही दिशा में उसका नियोजन भी उतना ही आवश्यक है।

सृजनात्मक प्रयत्न तो आदर्शवादी सिद्धान्तों के अवलम्बन से ही बन पड़ते हैं। इसी कारण उपनिषद् के ऋषि मन की एकाग्रता मनोबल की अभिवृद्धि ही नहीं उसके शिवतत्त्व से युक्त होने की भी कामना-प्रार्थना करते हैं। वे इस तथ्य से अवगत थे कि एकाग्रता का लक्ष्य पूरा हो गया तो भी यदि सृजन में उसका सदुपयोग न हुआ- ध्वंस पर उतारू हुआ तो संकट खड़ा हो जायेगा।

महत्त्वपूर्ण पक्ष विचारों का भी है। जो मन में ही उठते रहते हैं और अपने अनुरूप प्रभाव डालते हैं। उन पर नियन्त्रण नियोजन भी उतना ही आवश्यक है जितना कि एकाग्रता के लिए प्रयत्न। स्वतन्त्र अनियन्त्रित छोड़ देने पर तरह-तरह की विकृतियाँ खड़े करते और मन को कमजोर बनाते हैं। प्रसिद्ध संत ‘इमर्सन’ ने कहा है- ‘विचारों को स्वतन्त्रता दीजिए- वे कामनाओं का रूप धारण कर लेंगे, कामनाओं को स्वतन्त्र मार्ग दीजिए- कार्य में परिणित हो जायेंगे। यदि वे निकृष्ट हुए तो पठन के कारण होंगे।’ मन में उठने वाले अनेकानेक विचारों में से अनुपयोगी की काट-छांट एवं बहिष्कार की व्यवस्था भी बनानी चाहिए। अन्यथा वे घास-पात के समान उगेंगे और मन की उर्वरा शक्ति का अवशोषण करके फलेंगे, फलेंगे। तथा मनुष्य के अधःपतन के कारण बनेंगे। उनकी निरन्तर काट-छाँट करते रहना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि सद्विचारणा का बीजारोपण एवं उन्हें परिपक्व बनाने के लिए प्रयास।

‘मन असीम सामर्थ्यों का स्त्रोत है। संकल्प शक्ति विचार शक्ति की अनेकानेक सम्पदाएं उसके अंदर छिपी पड़ी हैं। इन्हें जगाने सही दिशा में नियोजित करने का प्रयास किया जा सके तो मनुष्य असीम शक्तियों का स्वामी बन सकता है। विचारक, संत, ऋषि, देवात्मा हो सकता है। भौतिक समृद्धियों भी इसी पर अवलम्बित हैं।‘

सा वा एषा देवतैतासां देवतानां पाप्मानं मुत्युमपहत्य यत्रासां दिशामन्तस्तद्गमयांचकारं तदासां पाप्मनो विन्यद्धात् तस्मान्न जनमिया- न्नान्तमियान्नेत्पाप्मानं मृत्युमन्ववायानीति। वृ. उप. 1।3।10

प्राण देवता ने इंद्रियों के पापों को दिगंत तक पहुँचाकर विनष्ट कर दिया। क्योंकि वह पाप ही इंद्रियों के मरण का कारण था। इन कल्मषों को इस निश्चय के साथ भगाया कि पुनः न लौट सकें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118