विज्ञान भावनाशील बने और धर्म तथ्यानुयायी

September 1978

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मोटेतौर से प्रतीत होता है कि विज्ञानी और अध्यात्म के आधारभूत सिद्धान्तों में मौलिक अन्तर है इसलिए उनका समन्वय कदाचित कभी भी सम्भव न हो सकेगा। अन्तर को देखकर प्रस्तुत निष्कर्ष पर पहुँचने वाले मनीषियों का कहना यह है कि विज्ञानी आग्रही नहीं है वह तथ्यों को खुले मस्तिष्क से तलाश करता है। पूर्वाग्रहों से मुक्त रहता है और जब जो प्रामाणिक आधार मिलते हैं उनके सहारे सिद्धान्तों का निर्धारण करता है। इसके विपरीत अध्यात्म में पूर्वाग्रहों की ही भरमार है। तर्क के लिए गुंजाइश नहीं है। शास्त्र अथवा आप्त पुरुष ही सब कुछ हैं। उन्हीं की खींची रेखाओं की परिधि में घूमने के लिए आर्थिक अथवा अध्यात्मवादी का सीमित रहना पड़ता है। तर्कों के झरोखे में झाँकने वालों की धार्मिकता को पतिव्रत को तोड़ने वाला घोषित कर दिया जाता है। ऐसी दशा में तथ्यों का निर्धारण करने को जब तक दोनों की स्थिति एक न हो तब तक समन्वय कैसे सम्भव होगा? या तो विज्ञान अपने तथ्यों को प्रामाणिकता देने वाली प्रवृत्ति छोड़े अथवा धर्म को परम्परा आग्रह अपनाये रहने से विरल किया जाय तभी वह स्थिति बनेगी जिसके आधार पर दोनों को साथ चलने अथवा सहयोग करके सत्य की शोध में समन्वित मार्ग अपनाने की बात बन सके।

कथन को सच मानने को मन तभी करता है जब दोनों की मूल प्रकृति को समझने में भ्रम बना रहे। यह अड़चन उथले चिंतन से सही मालूम पड़ती हैं और उस समय भी ठीक लगती है जब धर्म पक्ष के विकृत रूप को ही उसका आधारभूत सिद्धान्त मान लिया जाय। गहराई में उतरने पर धर्म और विज्ञान दोनों ही ऐसे तथ्यों पर आधारित दीखते हैं, जिन पर विश्वास करने या मिलजुल कर साथ-साथ न चल सकने की आशंका करने का कोई कारण नहीं हो।

विकृतियाँ तो न्याय और कानून के क्षेत्र में भी रहती हैं। इससे उनकी उपयोगिता या आवश्यकता इन्कार नहीं किया जा सकता। उत्पादन और व्यय में भी आये दिन बदमाशियाँ चलती हैं इसी कारण कार्यों को बन्द तो नहीं कर दिया जाता। धार्मिक क्षेत्र में निहित स्वार्थों को घुस पड़ने और अवांछनीय प्रथा परम्परा पर चला देने का अवसर मिल जाता है जब कि उस के अनुयायी तर्क और तथ्यों को जानने की आवश्यकता नहीं समझते। यदि वे धर्माध्यक्षों के उद्देश्य और प्रतिपादनों के फलितार्थ पर विवेकपूर्ण विचार करना सीखें तो फिर क्षेत्र की उपयोगिता भी विज्ञान क्षेत्र की तरह ही अक्षुण्ण बनी रह सकती है। धर्म की मूल प्रवृत्ति अन्धविश्वासी या दुराग्रही नहीं है। जिस श्रद्धा तत्व के आधार पर अंधेरगर्दी फैलती रहती है उसका भी आधार श्रेष्ठता के साथ जुड़ा हुआ है। श्रेष्ठता के प्यार को श्रद्धा की अवधारणा जहाँ भी करनी हो वहाँ सर्वप्रथम श्रेष्ठता है या नहीं इसको कसौटी पर कसना होता है। यह परख जागृत रखी जा सके तो श्रद्धा के शोषण की सम्भावना न रहेगी और धर्म को अवैधानिक तर्क विरोधी अथवा अप्रामाणिक कहे जाने का अवसर न आने पावेगा।

धर्म भी एक विज्ञान है। चेतना को अनुशासित रखना और उसे प्रयोजनों में नियोजित करना उसका उद्देश्य है। चेतना की सामर्थ्य प्रकृति क्षेत्र में भरी पदार्थ, सम्पदा एवं शक्ति धाराओं से किसी भी प्रकार कम नहीं है। प्रकृति सम्पदाओं की खोज निकालने और उनका सदुपयोग कर सकने की क्षमता पदार्थों में नहीं है। वह तो चेतना ही कर सकता है। विचारणाएं, भावनाएं और प्रवृत्तियाँ चेतना की ही चमत्कारी धाराएं हैं। पदार्थों की जड़ता को चेतना जैसी सुखद स्थिति में उभार लाने का श्रेय चेतना को ही है। सर्व विदित है विचार संस्थान की उत्कृष्टता से ही व्यक्ति का अन्तरंग आनन्दित और बहिरंग समुन्नत बन पाता है। उसमें त्रुटि रहेगी तो विकृत चिन्तन के फलस्वरूप मनुष्य उद्विग्न और दरिद्र ही बना रहेगा। पिछड़ेपन और शोक संकट से उसे छुटकारा मिल ही न सकेगा। भले ही परिस्थितियाँ उसके अनुकूल हों अथवा साधनों का बाहुल्य सामने प्रस्तुत हो। व्यक्ति को सुविकसित और समाज को सुव्यवस्थित बनाये रहना इस बात पर निर्भर है कि लोक चेतना का धारा प्रवाह किस दिशा में चल रहा है। इन तथ्यों पर ध्यान देने से धर्म चेतना को वैज्ञानिक उपलब्धियों की तरह ही श्रेयस्कर माना जाएगा। इतनी बड़ी उपयोगिता यदि अवैज्ञानिक, अप्रामाणिक मानी जाने की स्थिति में बनी रहे तो उसे मनुष्य जाति का दुर्भाग्य ही कहा जायगा। धर्म को प्रखर बनाये रहने के लिए उसके साथ यथार्थवादी विज्ञान दृष्टि का जुड़े रहना आवश्यक है। यह कार्य दोनों के समन्वय से ही हो सकता है।

ठीक इसी प्रकार विज्ञान को उस भाव सम्वेदना को अपनाकर चलना होगा जो विचार संस्थान की नहीं भाव संस्थान की उत्पत्ति कही जा सकती है। विज्ञान को मात्र बुद्धिवादी बने रहने से भी उसकी उपलब्धियाँ तो मिलती रह सकती हैं, पर उपयोगिता नष्ट हो जायगी और वे सूत्र सूख जायेंगे जहाँ से अन्वेषणों के मूलभूत स्फुरण का उद्भव होता है।

आविष्कारों के बारे में समझा यह जाता है कि वे प्रयोगशालाओं की देन है अथवा वे बुद्धिमत्ता के कारण उपलब्ध हुए हैं, पर बात इतनी उथली नहीं है। प्रत्येक आविष्कार की सम्भावना का आरम्भिक विचार अंतःस्फुरणा से उठा है। बुद्धि का काम पूर्व प्रचलनों का ऊहापोह करना है। पूर्ववर्ती अस्तित्व के बिना उसकी दौड़ आगे बढ़ती ही नहीं। मस्तिष्कीय संरचना में ऐसे विचारों के उद्भव की गुंजाइश नहीं है जिन्हें मौलिक कहा जा सकेगा। विज्ञान का विस्तार, बुद्धि और साधन सामग्री के सहारे होने की बात सच है, पर यह यह सच नहीं है कि आविष्कारों से भी पूर्व अन्तःकरण में उठने वाली अन्तःस्फुरणाएं भी मस्तिष्क ही उगा सकता है। यदि ऐसा होता तो पूर्ववर्ती बुद्धिमानों ने उन सब आविष्कारों को बहुत पहले ही कर लिया होता जो अब क्रमशः प्रत्यक्ष होते चले जा रहे हैं। न्यूटन से पहले भी चिरकाल से पेड़ों पर से फल जमीन पर गिरते हुए मूर्खों से लेकर विद्वानों तक सभी देखते रहे हैं, पर उतने भर संकेत से पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का आभास पाना विश्वास करना और अन्ततः उसे खोज निकालना न्यूटन की बुद्धि का नहीं अन्तःस्फुरणा का आधार है।

इसी प्रकार अन्यान्य सभी आविष्कार अपने प्रारम्भिक रूप में जब चिन्तन क्षेत्र में उतरे तब उनका अवतरण स्थल उस परत से कहीं गहरा था जिसे मस्तिष्क सम्पदा कहते हैं। यह अन्तःकरण ही है जो न केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों का आधारभूत कारण है, वरन् मानवी व्यक्तित्व की उत्कृष्टता और सामाजिक संगठनों का उद्गमस्रोत भी यही है। यदि अन्तःकरण तत्व को मनुष्य से छीन लिया जाय तो उससे न वैज्ञानिक शोधों की आरम्भिक अनुभूति पाने की क्षमता रहेगी और न पशु आचरणों से ऊँचे उन आधारों के अपनाने की आशा की जा सकेगी, जिसे मानवी संस्कृति कहा जाता है। सर्वतोमुखी प्रगति का श्रेय जितना शारीरिक और मानसिक श्रमशीलता को दिया जाता है उससे भी अधिक संस्कृति को मिलना चाहिए।

संस्कृति भी वैज्ञानिक उपलब्धि है। अन्तःस्फुरणा उत्पन्न करने वाला अन्तराल प्रकृति प्रदत्त अनुदान नहीं है वरन् विज्ञान की तरह ही मानवी पुरुषार्थ का प्रतिफल है। धर्म तत्व को विज्ञान की आत्मा में गुंथा देखा जा सकता है। ऐसा न होता तो वैज्ञानिकों में भी स्वार्थपरता और विलासिता जैसे दुर्गुण छाये रहते और वे शोध प्रयत्नों में योगियों जैसी तत्परता और तन्मयता का समावेश न कर सके होते। विज्ञानी में योगी और तपस्वी के दोनों लक्षण पाये जाते हैं। वह सत्य का शोधक भी होता है और व्यक्तिगत, ललक लिप्साओं से ऊँचा उठकर शोध प्रयत्नों में दत्तचित्त रहने वाला तपस्वी भी होता है। इन प्रयासों में उसे जो संकट सहने और खतरे उठाने पड़ते हैं वे चेतना की उत्कृष्टता के, बिना संभव नहीं हो सकते। विज्ञानी भले ही ईश्वरवादी नहीं, धार्मिक तो निश्चित रूप से होता है। भले ही वह किसी मत, सम्प्रदाय का अनुसरण न करता हो।

धर्म के बिना विज्ञान अपंग है और विज्ञान के बिना धर्म अन्धा। दोनों परस्पर सहयोग न करेंगे तो वे अपूर्ण ही बने रहेंगे और उतने उपयोगी सिद्ध न हो सकेंगे जितना कि मिलजुलकर काम करने पर हो सकते हैं। दोनों के बीच जो दिशा विरोध दीखता है वह सतही है। गहराई तक उतरने पर भिन्नता घटती और समता बढ़ती जाती है। गंगा और यमुना का मध्यान्तर लम्बा है पर गंगोत्री और यमुनोत्री की दूरी कम है यदि हिमालय की भीतरी जल सम्पदा तक पहुँचा जा सके तो प्रतीत होगा कि दोनों के उद्गम भिन्न स्थानों पर होते हुए भी उनकी धाराएं एक ही विशाल जलाशय से अनुदान प्राप्त करती हैं। धर्म और विज्ञान की प्रवाहमान धाराएं अलग−अलग हैं, उनके कार्य क्षेत्र भिन्न हैं इतने पर भी दोनों के मध्य मौलिक समानता विद्यमान है और दोनों को पूर्ण बनने के लिए पारस्परिक सहयोग की नितान्त आवश्यकता है।

अध्यात्म क्षेत्र में जिन रहस्यमयी उपलब्धियों की चर्चा होती है, उन सिद्धियों और चमत्कारों का आधार विज्ञान की किसी ऐसी धारा के साथ कल नहीं तो परसों जुड़ा हुआ पाया जायगा जो प्रकृति के अन्तराल में विद्यमान तो हैं पर अभी प्रकाश में नहीं आई है। यहाँ अद्भुत का कोई अस्तित्व नहीं। सब कुछ सुव्यवस्थित है। जिस व्यवस्था के कारणों को हम जान नहीं पाते वही अद्भुत लगता है। आरम्भ में अग्नि का प्रकटीकरण भी दैवी चमत्कार था। पीछे उसके रहस्य विदित हो जाने पर प्रकृति का एक सामान्य उपक्रम उसे मान लिया गया। ठीक इसी प्रकार वैयक्तिक चेतना की गहरी परतों से जब कभी कोई स्रोत फूट पड़ते हैं तो वे दैवी प्रतीत होते हैं। अनुसंधान को अपनाये रहा जाय तो उस सूत्र के सहारे वहाँ पहुँचने में सफलता मिलती है, जहाँ चेतना की किन्हीं गहरी परतों से वैयक्तिक चमत्कारी का उत्पादन होता है। इसी प्रकार इस विशाल ब्रह्माण्ड में संव्यक्त चेतना के समुद्र का स्वरूप और उपयोग समझा जा सके तो वह आधार मिल सकता है जिसे दिव्य लोकों से बरसने वाले वरदानों की संज्ञा दी जाती है। वैयक्तिक विभूतियों और दैवी अनुकम्पा की चमत्कारी सिद्धियों की चर्चा होती रहती है और उन्हें अभौतिक कहा जाता रहता है, किन्तु तथ्य यह है कि जो इन्द्रियगम्य या बुद्धिगम्य वह सभी मौलिक है। अध्यात्म के नाम पर चलने वाली साधनाओं को अथवा उपलब्धियों को भौतिक क्षेत्र से बाहर समझना भूल है। पदार्थों की सहायता से जो किया जाता है अथवा जिनकी अनुभूति मन समेत ग्यारह इन्द्रियों द्वारा होती है उन्हें अभौतिक कहने का साहस बालबुद्धि तो कर सकती है, पर तत्वदर्शन के गले उसे नहीं उतारा जा सकता। इसी प्रकार विज्ञान का उद्भव, अनुसंधान, अभिवर्धन और उपयोग में आदर्शों की तिलांजलि नहीं दी जा सकती है। इस प्रकार धर्म और विज्ञान एक ही उदर से जन्मे दो सहोदर भाइयों की तरह समझे जा सकते हैं और उनमें परस्पर सहयोग से मिलकर काम करने की पूरी गुंजाइश है। देव और दानवों के सहयोग से समुद्रमन्थन किए जाने और उनके फलस्वरूप चौदह रत्न मिलने की पौराणिक गाथा को अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए पाया जा सकता है।

विज्ञान अब विगत शताब्दी की तरह अप्रत्यक्ष की सत्ता से इन्कार करने में दुराग्रही नहीं रहा है। मैटाफिजिक्स और पैरासाइकोलॉजी की अगणित शाखा-प्रशाखायें इस अनुसंधान में संलग्न हैं कि अतीन्द्रिय अनुभूतियों के मूल में किन तथ्यों का समावेश है। गणितज्ञ सी.ए. डार्विन ने अपने ग्रन्थ ‘दि न्यू कंसेयशंस आफ मैटर’ में कहा है− अपने जमाने में वैज्ञानिक क्षेत्र की यह एक बड़ी क्रान्ति है कि जो अप्रत्यक्ष है उसकी सत्ता को भी अनुसंधान के क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया गया है।

विज्ञानी हर्बर्ट डिगल ने स्वीकारा है वे दिन बीत गए जब विज्ञान का क्षेत्र मात्र तथ्यों तक सीमित था। अब उसका कार्य क्षेत्र कहीं आगे बढ़ गया है और रहस्यों को भी अनुसन्धान के उपयुक्त आधारों का मान लिया गया है। अन्तरिक्ष विज्ञानी एडगृन के कथनानुसार विज्ञान के रहस्यों को भी तथ्यों में सम्मिलित कर लिया है इसका अर्थ है उनने अपने में अध्यात्म के सुरक्षित सीमा क्षेत्र तक पहुँचने और उसमें प्रवेश करने की हिम्मत जुटा ली है।

इन दिनों विज्ञान ने विधिवत् रहस्यवाद को अपने कार्यक्षेत्र में सम्मिलित किया है पर पूर्ववर्ती विज्ञानवेत्ता उस सन्दर्भ में सर्वथा अनुदार नहीं रहे हैं वे अपने शोध प्रयत्न धर्म और विज्ञान दोनों ही दिशाओं में नियोजित किये रहे हैं और उनके समन्वय की सम्भावना पर विश्वास करते रहे हैं। पैरासेल्सस, ब्रूनो, पैस्काल, न्यूटन आदि की गणना इसी वर्ग के वैज्ञानिकों में की जा सकती है। प्लेटो अपने समय का प्रख्यात समन्वयवादी था। उसके दार्शनिक चर्चा करने के लिए आने वाले जिज्ञासुओं के लिए यह शर्त रखी थी कि उनका गणित का जानकार होना आवश्यक है। उसके दरवाजे पर एक तख्ती टँगी रहती थी, जिस पर लिखा था− ‘‘जिसे गणित न आता हो वह भीतर न आये।’’

धर्म को विज्ञान सम्मत अर्थात् बुद्धिसंगत बनाने और तथ्यों को कसौटी पर कसने का प्रतिपादन करने वाले अनेक सुधारक समय−समय पर होते रहे हैं। धर्म क्षेत्र में चिरकाल में चलती आने वाली क्रान्तियाँ इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि अन्धानुसरण नहीं तथ्यों की कसौटी पर श्रद्धा और परम्परा को कसा जाना आवश्यक है।

भगवान बुद्ध की ख्याति इसी रूप में थी कि उनने बुद्धिवाद का प्रतिपादन किया था और तथ्यों की कसौटी पर खरी न उतरने वाली परम्पराओं को स्वीकार करने के लिए जन−मानस को भड़काया था। इस शृंखला में प्राचीन एवं अर्वाचीन समाज सुधारकों को इसी वर्ग में गिना जा सकता है।

विग्रह का अन्त और समन्वय का आरम्भ हर क्षेत्र में आवश्यक समझा जा रहा है और उसके लिए सर्वत्र अपने−अपने स्तर के प्रयत्न अपने−अपने ढंग से चल रहे हैं। धर्म और विज्ञान के सहयोग की आवश्यकता भी युग की पुकार है। हमें इच्छा और अनिच्छा से इस दिशा में बढ़ना ही होगा। विज्ञान को भावनाशील और धर्म को तथ्यानुवर्ती होने की आवश्यकता है। इस यथार्थता को जितनी अच्छी तरह समझा जाने लगेगा उतनी ही तेजी और मजबूती के साथ दोनों महान् शक्ति धाराओं के सुखद समन्वय का दिन निकट आता चला जायगा।

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