जीवन का सबसे बड़ा श्रेय साधन, कर्म, कौशल।

September 1978

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जीवन की सफलता के सम्बन्ध में कई व्यक्तियों की कई मान्यताएं पाई जाती हैं। कुछ लोग सम्पत्तिवान होने को जीवन लाभ मानते हैं और सोचते हैं जितना अधिक धन मिल सके उतने ही अधिक सुविधा साधन मिलेंगे और दूसरों को आकर्षित करने अथवा दबाने का अवसर मिल जायगा। उसका संचय इसलिए किया जाता है कि सम्पत्ति सुख का लाभ जीवन भर अपने को मिलता रहे और उत्तराधिकारी उसी सुविधा का उपभोग करते रहें। कुछ को ख्याति बहुत प्रिय होती है। अपनी जानकारी जितने अधिक लोगों को हो उतना अच्छा, यह सोचकर वे कुछ ऐसी तरकीबें लड़ाते हैं जिससे उनके नाम की चर्चा दूसरों के मुख से होती रहे। विवाह शादियों की धूमधाम में यही लिप्सा काम करती है। कई व्यक्ति संस्थाओं में पदाधिकारी बनने की फिराक में इसीलिए रहते हैं कि उन्हें बहुत लोग जानेंगे। वक्ता, गायक, नेता, अभिनेता बनने का शौक बहुतों को होता है। इसमें भी ख्याति की छिपी कामना ही लोक−सेवा का आवरण ओढ़कर सामने आती है। कइयों से कुछ नहीं बनता तो भूत−प्रेतों का पाखंड रचने से लेकर गुण्डागर्दी मचाने जैसे निकम्मे तरीके अपनाते हैं। शृंगार सज्जा में भी प्रायः यही प्रवृत्ति काम कर रही होती है। धनी लोग अपनी ख्याति के लिए इमारतें बनाते हैं। तीर्थयात्रा, धर्मानुष्ठान, ब्रह्मभोज आदि के उत्सव करते देखे जाते हैं।

कइयों को शक्तिवान होने के पद पाने की अभिलाषा रहती है ताकि अपने नियन्त्रण में औरों को रख सकें और अपना वर्चस्व सिद्ध कर सकें। नाम छपाना भी, एक नशा है। योग्यता न होते हुए भी कई लोग लेखक, सम्पादक बनते हैं। जहाँ−तहाँ से जोड़ गांठ करके किसी तरह अपनी आकाँक्षा तृप्त करते हैं।

ऐसे−ऐसे अनेक और भी उपाय हैं जिनमें दूसरों की आँखों में अपना मूल्यांकन कराने की, दूसरों की जीभ से अपनी चर्चा प्रशंसा सुनने की अपेक्षा की जाती है। यह साधन साध्य होने से सरल तो है पर स्थिर नहीं। जिनके पास चतुरता, फुरसत और सम्पत्ति मौजूद है वे कितने ही उपायों से बड़प्पन खरीद सकते हैं। इस कार्य में उन्हें थोड़े प्रलोभन के मूल्य पर खरीदे हुए चमचे भी मिल जाते हैं और काम किसी न किसी हद तक बन ही जाता है। ईमानदारी या बेईमानी से कुशल व्यक्ति पैसा भी कमा लेते हैं। लोकसेवी या धर्मात्मा का आवरण ओढ़ लेना इन सबसे सरल है।

इन उपायों से उपलब्ध की गई सफलता बाहरी होती है। उसके लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। दूसरे तो दूसरे ही हैं उनकी मति न तो स्थिर होती है और न ही यही पता चलता है कि जैसा दर्शाया जा रहा है वैसा ही उनका भीतरी मन भी है या नहीं। लोक चर्चा बहुत ही उथली होती है। उसका प्रवाह उलटने में भी देर नहीं लगती। मात्र अफवाहें तो उस उथले उपार्जन को हलके तिनके की तरह उड़ाकर कहीं से कहीं ले जा सकती हैं। फिर जनता की स्मृति इतनी उथली होती है कि पीठ फेरते ही औरों की बातें विस्मरण हो जाती है। असल में हर व्यक्ति अपने निजी कार्यों और झंझटों में इतना अधिक व्यस्त है कि उसे दूसरों की निंदा प्रशंसा में कोई गहरी दिलचस्पी नहीं होती। सामने की बातों पर या घटनाओं पर हलकी−सी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के उपरान्त हर आदमी अपने काम में लग जाता है। ऐसी दशा में दूसरों के प्रशंसा−प्रमाण पत्र बादल की छाया जैसे होते हैं। इनसे बालकौतुक भर पूरा होता है, जीवन की सफलता जैसे महान् प्रयोजनों की पूर्ति में उससे कोई सन्तोषजनक सहायता नहीं मिलती।

आत्मसन्तोष की सफलता का सबसे बड़ा लक्षण है। वही अन्तरंग के साथ रहता है। उसी का अभिमत वास्तविक होता है और चिरस्थायी भी। आत्म तृप्ति और आत्म तुष्टि इसी के सहारे सम्भव है। यह सन्तोष कैसे पाया जाय? इस प्रश्न का उत्तर एक ही है कि अपने क्रियाकलापों में अधिकतम आदर्शवादिता का समन्वय किया जाय। अपने दैनिक कामों में तत्परता, कलाकारिता और उत्कृष्टता का इतना अधिक समन्वय किया जाय कि वे दूसरों को भले ही सामान्य दीखें, पर अपने आपको उसकी विशिष्टता प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती रहे। सुवासित, सुन्दर पुष्पों का गुलदस्ता आँखों के आगे रहता है तो बहुत सुहावना लगता है। अपने कामों का स्तर इतना ऊँचा होना चाहिए कि उनकी श्रेष्ठता से अन्तःकरण निरन्तर पुलकित होता रहे।

जीवन की सफलता की बात यदि गम्भीरता से सोची गई है और उसके लिए सच्चे मन से प्रयास करने का उत्साह उठा हो तो उसकी योजना एक ही बनानी चाहिए कि अपने दैनिक कामों का स्वरूप और स्तर ऊँचा उठा दिया जाय। स्वरूप से तात्पर्य यह है कि वह अनैतिक और सार्वजनिक हित विरोधी नहीं होना चाहिए। मद्य−मांस जैसे व्यवसाय करने पड़ते हों, अनैतिक प्रवृत्तियों में संलग्न क्रियाकलाप में नौकरी करनी पड़ रही हो तो उसे बदलने का प्रयत्न करना चाहिए। श्रम ऐसे कामों के लिए किया जाय जिनके फलस्वरूप दुष्प्रवृत्तियों के पनपने में में सहायता न मिलती हो। इसके उपरान्त परिस्थितिवश जो भी काम करने पड़े उन्हें सामान्य असामान्य का भेद-भाव किये बिना उत्साहपूर्वक करना चाहिए। अमुक काम समाज में सम्मानित समझा जाता है अमुक को छोटे लोगों का माना जाता है। इस झंझट में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। काम न कोई छोटा है न बड़ा। अपने−अपने स्थान पर सभी की उपयोगिता है। सम्मानित कहलाने वाले काम ही यदि सब लोग करने लगें, सभी मेज, कुर्सी का काम तलाश करें तो फिर खेतों और कारखानों में होने वाले उत्पादन के अभाव में सर्वत्र भुखमरी फैल जायगी। परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप जहाँ जो काम मिल सकें उन्हें ही अपनाया जा सकता है। सम्मानित काम ढूँढ़ने के लिए बेकार बैठे रहना सर्वथा अनुपयुक्त है।

आजीविका के लिए किए जाने वाले कामों में जितना समय लगता है प्रायः उतना ही शरीर और परिवार की व्यवस्था में भी लग जाता है। यह निजी कहलाने या नित्य कर्म समझे जाने वाले क्रियाकलाप भी आखिर काम ही हैं। आवश्यक नहीं कि जो आजीविका के लिए किया जाय उसी को काम की संज्ञा दी जाय। परमार्थ प्रयोजन से लेकर भजन, उपासना के कृत्य भी अपने−अपने ढंग से काम ही हैं। इन्हें करने की प्रक्रिया और दृष्टि समुन्नत होनी चाहिए। यह समावेश हो जाने से छोटे काम भी कर्मयोग की संज्ञा से गिने जाने योग्य बन जाते हैं।

काम साधारणतया थकान उत्पन्न करता है। उसमें शक्ति व्यय होती है। अस्तु हर कोई श्रम से बचना और आराम से समय काटना चाहता है। किन्तु यदि उसे खेल मान लिया जाय तो उसे जितना भी किया जाय प्रसन्नता मिलती जायगी और उत्साह बढ़ता जायगा। बच्चे उठने से लेकर सोने तक खेलते रहते हैं। इसमें उन्हें कितनी उछल कूद करनी पड़ती है इसका लेखा−जोखा लिया जाय तो शरीर के अनुपात को देखते हुए वह लगभग उतना ही हो जाता है जितना कि किसी श्रमिक को आठ घण्टे की मजूरी में करना होता है। इतने पर ही बच्चों में थकान और उदासी के कोई चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते। काम को भार या पराया समझकर उदास मन से किया जाता है तो वह भारी पड़ेगा अन्यथा विनोद की तरह किये गये कामों में जितनी शक्ति खपती है उतनी ही विनोद के कारण दूसरी ओर से मिलती भी जाती है। डायनेमो और बैटरी का परस्पर सम्बन्ध बन जाय तो बैटरी डायनेमो को चलती है और डायनेमो बैटरी चार्ज करता है इस प्रकार दोनों एक दूसरे के पूरक बने रहते हैं। किसी की भी शक्ति चुकने नहीं पाती।

कर्मनिष्ठ होने का गौरव प्राप्त करना अन्य सभी सफलताओं से बढ़कर है। काम यदि ईमानदारी और दिलचस्पी के साथ किया जाय तो उसका स्वरूप और परिणाम ऐसा सुन्दर एवं सुखद होता है जिस पर महज ही गर्व किया जा सके। बेगार भुगतने की तरह हाथ के काम को किसी तरह निपटाने से और निश्चित रूप से आधा−अधूरा, काना−कुबड़ा ही बन सकेगा। किन्तु उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर अपनी सारी कुशलता को दांव पर लगा दिया जाय तो उपलब्धि इतनी सुन्दर होगी जिसके लिए हर किसी की जीभ से प्रशंसा के स्वर ही निकलेंगे। ऐसे कार्य नयनाभिराम होते हैं, उनसे दूसरे प्रेरणा लेते हैं, अनुकरण का उत्साह प्राप्त करते हैं तथा जो भूल करते थे उसे सुधारते हैं।

दूसरों को कई तरह की नसीहतें देने के लिए कई लोग कई तरह की योग्यताएं प्राप्त करते हैं। कई प्रकार की कलाएं सीखते हैं और विशेषताएं बढ़ाते हैं। यह सब भी ठीक ही है। किन्तु यदि काम को तन्मयता−तत्परता−कुशलता के साथ किया जा सके तो यह जनसाधारण को सिखाने के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण धर्मोपदेश है। अधर्म का निवारण और धर्म का अवधारण बहुत ही अच्छी बात है किन्तु उससे भी पहला कदम यह है कि आदमी अपना काम ऐसी अच्छी तरह सम्पन्न करे जिसमें व्यक्तित्व को गौरवान्वित करने और अच्छे काम का समुचित प्रतिफल पाने का अवसर प्राप्त हो सके। इसमें व्यक्ति और समाज दोनों का तात्कालिक हित साधन होता है। अतएव उसे भी धर्म धारणा में ही सम्मिलित किया जा सकता है। सही काम करने की नसीहत ऐसी है जिसे धर्म अध्यात्म सिखाने की तरह ही श्रेयस्कर माना जा सकता है। यह शिक्षण वाणी से नहीं अपना अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने से ही सम्पन्न होता है। अपनी कृति दिखाकर दूसरों को जितना अच्छी तरह प्रभावित किया जा सकता है, उतना और किसी प्रकार नहीं।

सफलताएं किसी भी क्षेत्र की क्यों न हों वे उत्कृष्ट स्तर के श्रम से ही मिलती हैं। बिना प्रबल पुरुषार्थ किये आसमान से किसी के भी गले में विजय श्री की माला नहीं पड़ती। अभीष्ट कुछ भी क्यों न हो उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ तो करना ही होगा। सामान्य काम और पुरुषार्थ में इतना-सा ही अन्तर है कि एक को किसी प्रकार उदास मन से निपटा दिया जाता है और दूसरे के लिए यह ध्यान रखा जाता है कि अपनी किसी कृति में घटियापन न रह जाय। उसका स्तर हलका रह जाने से अपने को शर्मिन्दगी न उठानी पड़े। जिसे इस प्रकार से काम करने का अभ्यास हो गया, उसे हर दिशा में सफलता ही मिलती चली जायेगी।

जीवन खाने−सोने में दिन बिताने को नहीं कहते। उसका मूल्यांकन मनुष्य की कृतियों के आधार पर ही बनी हैं। उनके काम सामान्य श्रमिकों को जैसे नहीं हुए होते वरन् जो करते हैं उसमें ईमानदारी, जिम्मेदारी और बाहरी श्रमशीलता का समावेश रहा होता है। अन्य सफलताएं मात्र पुरुषार्थ पर निर्भर नहीं रहतीं, किन्तु कर्मनिष्ठा की दृष्टि से गौरवान्वित हो सकना हर किसी के लिए सम्भव है।


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