असामान्य कहलाने की उद्धत ललक-लिप्सा

September 1978

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मनुष्य के महानता संभावनाओं के स्रोतों को देखते हुए उसकी गरिमा को भी स्वीकार करना पड़ता है, पर मूर्खताओं को देखते हुए यह आश्चर्य भी होता है कि उसे इन विडम्बनाएं के रहते, किस प्रकार बुद्धिमान ठहराया जाय।

मूर्खताओं में एक है बड़प्पन की वह उथली प्रवृत्ति जो दूसरों को ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए चित्र−विचित्र प्रकार की विडम्बनाएं रचती रहती हैं। ठाट−बाट, सज−धज, फैशन, शान−शौकत, जैसी शेखी−खोरी का सरंजाम खड़ा करने में मनुष्य की आधी से अधिक क्षमता खर्च होती रहती है। समय, श्रम, धन एवं चिन्तन का बहुत बड़ा अंश इन्हीं निरर्थक जाल जंजालों के रचने में नष्ट होता रहता है। यदि उसे बचाया जा सका होता और उस बचत को सृजनात्मक प्रयोजनों में लगाया जा सकना सम्भव रहा होता तो उतने भर से ही प्रगति के नये आयाम बनते और नये द्वार खुलते।

निर्वाह की समस्या अत्यन्त सरल है। मनुष्य की आवश्यकताएं सीमित हैं। उन्हें थोड़े में परिश्रम और कौशल के सहारे सरलतापूर्वक पूरा करते रहना सरल बना रह सकता है। कठिनाइयां महत्वकांक्षाएँ खड़ी करती हैं। यह महत्वाकांक्षाएं किसी उपयोगी सृजनात्मक प्रयोजन के लिए होती तो उन्हें सराहा जा सकता था, पर वे प्रायः निम्न स्तर की होती हैं और शेखी−खोरी के इर्द−गिर्द घूमती रहती हैं। उनका उद्देश्य इतना ही होता है कि लोग अपने को बड़ा आदमी अमीर सुन्दर, आकर्षक एवं असामान्य समझें। कैसे समझें? इसके लिए क्या किया जाय? इस प्रश्न का उत्तर समझ में एक ही आता है कि या तो कुछ आकर्षक ठाट−बाट रोपा जाय या कुछ ऐसा आचरण किया जाय जिसके कारण लोगों की आँखें, अपने पर गढ़ें उनकी जीभ पर अपने प्रसंग की चर्चा चढ़ी रहे। नेता बनने या कोई उद्धत प्रसंग खड़ा कर देने में यही अहंतावादी दुष्प्रवृत्ति काम करती रहती है। धर्माडम्बर खड़े करने तथा दान पुण्य की विज्ञापन बाजी के पीछे मूलतः सस्ती वाह−वाही लूटने की ही ललक छिपी रहती है। परामर्श का तो उन विडम्बनाओं को आडम्बर मात्र उढ़ा दिया जाता है।

आदर्श प्रस्तुत कर अपनी गरिमा का परिचय देना और लोक श्रद्धा का भाजन बनना एक बात है। और सस्ती वाह−वाही लूटने के लिए आडम्बर खड़े करना दूसरी। आमतौर से अधिक खर्च करने अधिक पराक्रमी, अधिक चतुर होने के सच्चे झूठे प्रसंग गढ़े जाते रहते हैं और यह अपेक्षा की जाती रहती है कि इतने भर से अहंकार की तृप्ति कर सकने जैसी चित्र−विचित्र खिलवाड़ें रची जाती रहती हैं। स्पष्ट है कि तथ्य छिपा नहीं रहता है उद्देश्य छिपा सकना अति कठिन है। सस्ते बड़प्पन को पाने के लिए रचा गया ठाट−बाट कौतूहल भर लगता है और उससे जो चर्चा फैलती है उसमें सामने झूठी प्रशंसा और पीछे व्यंग उपहास भरी भर्त्सना के अतिरिक्त और कुछ सार नहीं होता। इसी आत्म−प्रवंचना में उलझे हुए अधिकांश लोग अपने समय, चिन्तन और साधनों को बर्बादी करते रहते हैं। इसे बुद्धिमानी कहा जाय या मूर्खता, इसका निर्णय उन्हीं पर छोड़ा जाना चाहिए जो आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित रह कर बड़प्पन के उथले सरंजाम खड़े करते रहने में सामर्थ्य का बहुत बड़ा अंश ऐसे ही अस्त−व्यस्त और नष्ट−भ्रष्ट करते रहते हैं।

कितना ही व्यक्ति अनेक दृष्टियों में सामान्य लोगों की तुलना में अधिक समृद्ध होते हैं। वे अपने को सौभाग्यवान कहलाने और चर्चा का विषय बनने में भी सफलता पा लेते हैं, पर देखना यह है कि इस उथली चर्चा से उनका अथवा चर्चा करने वालों का क्या कुछ हित साधन होता है? बड़प्पन के उद्धत उदाहरण ढूँढ़ने पर ऐसे अनेक प्रसंग सामने आते हैं, जिनमें विचित्रता का कौतूहल एवं चर्चा का विषय तो था, पर उस यश का कहीं अता−पता ही न था, जिसके कारण अन्तराल में इस प्रकार की उमंगे उठती हैं।

अफ्रीका कांगो देश का राजा यलनटी 1894 में मरा। उस समय उसकी 415 पत्नियाँ थी। उसके परिवार में बहिनों से भी विवाह की प्रथा रही है। अस्तु इन पत्नियों में उसकी 55 बहिनें भी शामिल थीं। उसके पिता ने इससे भी अधिक पत्नियाँ संग्रह की थीं।

दक्षिण अफ्रीका के डरबन में 90 वर्षीय नीग्रोखोतों सेयुत्सा नामक व्यक्ति की वर्तमान पत्नियों की संख्या 21 और बच्चों की संख्या 227 हैं। इससे पूर्व जो पत्नियाँ एवं बच्चे मर गये इनकी संख्या उनसे अतिरिक्त हैं। सेयुत्सा के सबसे बड़े बच्चे की आयु 70 वर्ष है। 150 बच्चे प्रौढ़ और कमाऊ हैं। 30 बच्चे हाईस्कूल में पढ़ते हैं। शेष अभी छोटे हैं।

चर्चा की दृष्टि से यह सफलता ऐसी आश्चर्यजनक समझी जा सकती है। कुछ को प्रकृति ने अनायास ही इस प्रकार के उपहार दिये होते हैं। एक असाधारण मोटे और भारी आदमी का विवरण सुनिये।

डेनियल का पिता जेल कर्मचारी था। गरीबी में दिन गुजरते थे। बचपन में वह सस्ती मजूरी करता रहा। बड़ा होने पर उसे भी जेल कर्मचारी की नौकरी मिल गई। युवा होते−होते उसकी ऊँचाई 5 फुट 11 इंच पहुँच गई थी। वजन तीन मन से भी अधिक। फिर भी फुर्ती इतनी थी कि 7 फुट ऊँची छलाँग लगा सकता था।

वजन क्रमशः बढ़ता ही गया। 1793 में वह 5 मन 24 सेर हो गया। सन् 1798 में वह प्रायः 6 मन था। 1804 में वह 8 मन से अधिक था। अन्तिम बार वह तराजू पर सन् 1805 में बढ़ा तब वह 8 मन 32 सेर था। इसके बाद उसने तौल न कराने की कसम खाई फिर किसी के भी करने पर तुलने के लिए तैयार न हुआ। क्यों कि लोग आये दिन उसका वजन लेने के लिए तौलने की मशीन लिए खड़े रहते थे। उन लोगों के तो कौतूहल की पूर्ति होती थी पर बेचारे डेनियल को तुलने में समय नष्ट करने और आगन्तुकों का स्वागत सत्कार करने में हर दृष्टि से घाटा ही घाटा उठाना पड़ता था। हाँ वह अपने समय में ही मोटापे का कीर्तिमान स्थापित अवश्य कर गया था और उसकी चर्चा उस देश भर में सर्वत्र होती रहती थी। वजन बढ़ने से प्रायः लोग अपने जैसे हो जाते हैं। बढ़ा हुआ मांस शरीर पर अनावश्यक दबाव डालता है और उस बोझ को ढोने से पैर और घुटने इन्कार कर देते हैं। रीढ़ की हड्डी और हृदय पर भी इस बढ़े हुए वजन का बुरा असर पड़ता है। यह आम बात है, पर डेनियल को इस प्रकार की कठिनाई मरते समय तक नहीं हुई। वह दूसरों की तरह ही चलता फिरता भागता दौड़ता था। एक बार तो अपने कुत्ते पर आक्रमण करने वाले रीछ से ही उसे गुथ पड़ना पड़ा और इस लड़ाई में रीछ ही पिट कर भागा। डेनियल उसे और लड़ने के लिए खड़ा−खड़ा चुनौती ही देता रहा। लोग उसे मांस का पहाड़ कहते थे। गेंडे के चमड़े की तरह उसकी मांस-पेशियाँ जगह−जगह लटकती रहती थीं। पेट की झूल घुटनों को छूने लगती थी।

अपनी इच्छा के विरुद्ध अन्तिम बार किसी चकमे में आकर तुल गया और 9 मन 8 सेर का निकला, इसके बाद उसका वजन और बढ़ा या घटा इसकी कोई निश्चित जानकारी का उल्लेख नहीं मिलता।

इस मोटापे से उसको कोई वैयक्तिक लाभ नहीं मिला। नौकरी के दिनों भी मुश्किल से ही गुजर होती है। उसे 800 रुपये वार्षिक अर्थात् 66 रु. मासिक के लगभग वेतन मिलता था। इतने में गुजर न होती तो मछली पकड़ने, मुर्गी पालने जैसे अन्य अतिरिक्त काम करके किसी तरह अपना काम चलाता था। एक बार उसकी भेंट एक वोस्लवास्की नामक बौने से हुई। इस भेंट में डेनियल ने उससे पूछा− ‘आपके पजामे में कितना कपड़ा लगता है। जब उसने बताया कि पौन गज काफी होता तो डेनियल ने लम्बी साँस खींचते हुए कहा− ‘इतना तो मेरी एक बाँह को ढकने में ही खर्च हो जाता है।’

एक विचित्र लम्बे आदमी का प्रसंग इस प्रकार है−

हरियाणा प्रान्त में रेवाड़ी के पास एक छोटे गाँव का निवासी रतीराम नामक श्रमिक की ऊँचाई 224 सेन्टीमीटर− वजन 127 किलोग्राम है। उसके पैरों का पंजा 45 से.मी. है। जिराफ जैसी लम्बाई को देखकर दर्शक आश्चर्यचकित रह जाते हैं। इस चलते−फिरते अजूबे को देखकर भीड़ खड़ी हो जाती है, बच्चे पीछे लग लेते हैं। इतने पर भी अपनी कोई आन्तरिक विशेषता न होने से उसे सदा गुजारे की ही चिन्ता करनी पड़ती है। बढ़ी हुई काया से उसका खाने, पहनने का खर्च ही बढ़ा है। उसी अनुपात से योग्यता भी बढ़ी होती तो वह बड़प्पन काम का भी सिद्ध हो सकता था।

इस अजूबे से चकित और प्रभावित लोग कभी−कभी उसकी ओर आकर्षित भी होते रहे हैं और यथा सम्भव कुछ सहायता करने का भी प्रयत्न करते रहे हैं, पर वह बाहरी सहायता भी कुछ विशेष काम नहीं आ सकी और स्थिति जहाँ की तहाँ बनी रही। एक बारात में गया तो चकित महिलाओं में से चार ने उसे एक-एक रुपये का पुरस्कार दिया। हरियाणा के मुख्यमन्त्री राव वीरेन्द्र सिंह ने उसे ढाई सौ रुपये मासिक पर चौकीदार की नौकरी लगवा दी। पुलिस में भी सिपाही की भर्ती का अवसर किसी प्रकार मिल गया, पर इन पदों पर भी वह टिक नहीं सका। दिल्ली की कृषि प्रदर्शनी के राजस्थानी पंडाल में उसे बीस रुपया रोज की मजूरी मिल गई। अखबारों में कौतुक कौतूहल की दृष्टि से उसके फोटो भी छपे। ऐसे-ऐसे छुट−पुट सहयोग ही दूसरे लोग उसे दे सके, पर इनसे उसका कुछ काम नहीं चला। काया की ऊँचाई दर्शकों के लिए कौतुक भले ही रही तो, पर उससे उसने स्वयं कुछ लाभ नहीं उठाया। पग−पग पर हैरानी ही अनुभव होती रही है। साइज की न तो धोती बाजार में मिलती है और न जूता। चारपाई से लेकर चप्पल तक अपने नाप की अलग से बनानी पड़ती। इस झंझट से उसे असुविधा का ही सामना करना पड़ता।

ब्लिडा अल्जीरिया के वैण्डस्टेस्ड कस्बे में एक बार एक ताड़ का पेड़ जमींदोज पक्की छत वाले तहखाने को फाड़कर ऊपर उगा दिखाई दिया है। कमजोर पौधे ने इतनी मजबूत छत में किस तरह छेद बनाया और ऊपर आया इस पर सभी लोग बहुत चकित हुए थे और दूर−दूर से लोग उसे देखने पहुँचे थे।

अपने देश की आबादी 50 करोड़ के करीब है। इनमें से 1 करोड़ लोग मानसिक रोगों से पीड़ित हैं। इनमें कम से कम 8 लाख ऐसे हैं जिन्हें पागलखाने में ही रखा जाना चाहिए। खुले रहकर वे सामाजिक अशान्ति और उपद्रव उत्पन्न करते हैं। इनके अतिरिक्त 16 लाख मनुष्य ऐसे हैं जो मन्द बुद्धि मस्तिष्क के हैं और वे कठिनाई से अपनी शरीर यात्रा भर चलाते रह सकने योग्य उत्पादन कर सकते हैं। व्यवस्था की दृष्टि से उन्हें अपंग ही माना जा सकता है।

संसार में सबसे खारा जल ‘डेड सी’ का है। इटली के स्कीपा द्वीप के फारिया बन्दरगाह के समुद्र का जल इतना गर्म है कि उसमें अण्डे उबारे जा सकते हैं। अटलांटिक समुद्र में एक जगह 30246 फुट गहराई है। इतनी ऊंची कोई भी पर्वत चोटी अपनी पृथ्वी पर नहीं है।

उत्तर में उसने अपना नाम डम्बर्टो बताया। यही नाम सम्राट का था और ठीक यही जन्मदिन भी।

पत्नी और सन्तान के नामों की पूछ−ताछ हुई तो वे भी दोनों के एक ही निकले। दोनों की पत्नियों के नाम ‘मार्गरीता।’ दोनों के पुत्रों का नाम− ‘वित्तेरियो।’

बात आगे चली। वर्तमान कार्यक्षेत्र में दोनों ने कम प्रवेश किया। इस पूछ−ताछ में यह तथ्य सामने आया कि 9 जनवरी 1877 को ही एक ने होटल संभाला और दूसरा सिंहासनारूढ़ हुआ और भी कितनी ही बातें एकता प्रदर्शित करने वाली सामने आई।

वार्ता समाप्त होने तक दोनों इस आश्चर्यजनक एकताओं के कारण अत्यन्त घनिष्ठ बन गये। विदाई से पूर्व फिर मिलने का अवसर निश्चित किया गया। सम्राट को दूसरे दिन ओलम्पिक खेलों का पुरस्कार वितरण करना था। दुबारा भेंट की बात उसी समय होने की बात तय हो गई। आश्चर्य है कि वे दुबारा इस संसार में फिर कभी न मिल सके।

सम्राट डम्बर्टो को किसी ने समारोह के बीच ही गोली का निशाना बना दिया और होटल मालिक डम्बर्टो भी ठीक उसी समय आपसी रंजिश के कारण एक प्रतिद्वन्दी की गोली का शिकार बन गया।

दोनों की शव यात्रा ठीक एक ही समय निकली यद्यपि वे दफन दो भिन्न स्थानों पर हुए।

सामान्य की अपेक्षा असामान्य कहलाने का अवसर उपरोक्त घटनाओं से सम्बन्धित व्यक्ति अथवा पदार्थों को मिला है, पर देखना यह है कि उस चर्चा के पात्रों को अथवा उनकी गाथा गाने वालों को उथले मनोरंजन के अतिरिक्त और क्या मिला?

चर्चा को विषय बनने के लिए खर्चीले श्रम साध्य, खड़े करने में, अति जटिल साधनों को रचने में मन जितना ललकता रहता है उतना ही यदि वह वास्तविक बड़प्पन पाने के लिए महान उद्देश्य पूरा करने वाले आदर्शवादी क्रिया−कृत्यों में लगें तो उस भाव भरे सम्मान की उपलब्धि भी हो सकती है, जिसके लिए उद्धत आचरण और बचकाने खिलवाड़ करने में बालबुद्धि प्रायः लगी रहती है।


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