वर्षा ऋतु (kahani)

September 1978

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वर्षा ऋतु मैं गाँव की पोखर पानी से लबालब हो उठी, तो यह उल्लास उससे सम्हालते नहीं बन रहा था।

ग्राम-तट में बहती थी नदी। पोखर घूमते-घूमते नदी के पास पहुँची।

नदी की निरन्तर प्रवाहशीलता और अपरिग्रह से वह चकित हो उठी-”यह क्या दीदी। कुछ भी संग्रह न कर क्या तुम मूर्खता नहीं कर रही।”

“मैं समझी नहीं, बहन “नदी ने पोखर से कहा-”पानी मेरा नहीं। वह तो मुझे इसी विश्व में कहीं से मिलता है और फिर मुझसे इसी विश्व के लोग उसे लेकर यदि अपनी प्यास बुझाते तथा जरूरत पूरी करते हैं, तो इसमें मुझे खुशी ही मिलती है। इसी आत्म-सन्तोष से मेरा अन्तःकरण निर्मल है। यह निर्मलता मुझे उल्लास देती है।

“ये सब सिद्धान्त बघारना भूल जाओगी, जग गाढ़े वक्त पर कोई भी काम न आवेगा। अपरिग्रह आदर्श-चर्चा है, परिग्रह व्यावहारिक कर्म है।” कहती हुई पोखर ठुनकती लौट पड़ी और मुँह फुलाकर पसर रही।

ऋतु बदली। शरद और बसन्त बीते। अब आयी गर्मी। नदी का शरीर दुबला-पतला हो गया, पर उत्साह और उदारता पूर्ववत् थी।

एक दिन वह पोखर से मिलने गई और उसकी दशा देख पीड़ा से कराह उठी-पोखर के पूरे शरीर में दरारें पड़ गई थीं और पानी की एक भी बूँद नहीं थी।

नदी धीरे से बोली-‘‘बहन! काश! तुम भी उस जीवन-मंत्र को समझती, जो मैं निरन्तर जपती और साधती हूँ। तो आज यह दुर्दशा न होती।”

पोखर क्या कहती, उसके सूखे ओंठ जल रहे थे।

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