बढ़ती हुई रुग्णता का मूल कारण चिन्तन की निकृष्टता

September 1978

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इन दिनों वैज्ञानिक एवं आर्थिक क्षेत्रों की प्रगति पर सभी का ध्यान है और उनमें उत्साहवर्धक प्रगति भी हो रही है। सभ्यता की भी बहुत चर्चा है। जीवन स्तर बढ़ रहा है। इस बढ़ोत्तरी का तात्पर्य है अधिक सज-धज और सुख सुविधा के साधनों का विस्तार। विलासी साधनों के नये-नये उपकरण बनते और बढ़ते जा रहे हैं। भावनात्मक सौहार्द्र न सही कम से कम व्यावहारिक शिष्टाचार को तो महत्व मिल ही रहा है। यह सब बातें ऐसी हैं जिनके आधार पर प्रगतिशीलता की दिशा में बढ़ते चलने का दावा किया जा सकता है।

इस प्रगतिशीलता के साथ जुड़ा हुआ एक दुःखदायी पक्ष भी है-जिसे आधि-व्याधियों की अभिवृद्धि कहा जा सकता है। लाग शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ और मानसिक दृष्टि से असंतुलित होते चले जा रहे हैं और इस दिशा में प्रगति उन सब क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक द्रुतगति से हो रही है जिन्हें अपने समय की सफलताएँ कह कर गर्व किया जाता है।

शारीरिक दुर्बलता और रुग्णता का प्रसंग बहुत ही चिन्ताजनक है। स्पष्ट है कि अपच, जुकाम जैसे छोटे रोगों से लेकर क्षय और केन्सर जैसी घातक बीमारियों का क्षेत्र इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि स्वास्थ्य संकट की भयावह विभीषिका सामने खड़ी दीखती है। मधुमेह, अनिद्रा, हृदय रोग, रक्तचाप जैसे रोग अब बड़े आदमियों के क्षेत्र तक सीमित नहीं रहे, उनने सर्वसाधारण को भी अपने शिकंजे में कस लिया है।

समझा जाता था कि पौष्टिक खाद्य सामग्री के अभाव में दुर्बलता और रुग्णता का प्रकोप होता है। यह भी मान्यता थी कि विषाणुओं का आक्रमण बढ़ती हुई रुग्णता का कारण है, पर विश्लेषण और अन्वेषण से पता चलता है कि यह दोनों ही कारण अर्ध सत्य हैं। बड़ा कारण दूसरा है जिसके कारण स्वास्थ्य के मूल में काम करने वाली जीवनी शक्ति की जड़ें खोखली होती हैं और उस खोखले को तनिक-तनिक से आघात क्षत-विक्षत करके रख देते हैं।

उथले कारण जो भी हों, गहराई में उतरने पर एक ही प्रधान तथ्य सामने आता है कि मानसिक तनाव की अभिवृद्धि इन दिनों तेजी से हो रही है और इसी की रुग्णता की अभिवृद्धि में सबसे बड़ी भूमिका है। शरीर पर नियन्त्रण करने वाली क्षमता, मात्र मस्तिष्क में है। यही वह संस्थान है जिससे ऐच्छिक और अनैच्छिक सभी शारीरिक क्रिया-कलापों का सूत्र संचालन होता है। अन्य अवयवों की दुर्बलता एवं उत्तेजना सहन हो सकती है। उसके रहते हुए भी काम चलता रहता है, पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है वहाँ तनिक सी-गड़बड़ी उत्पन्न होते ही सारा ढाँचा लड़खड़ाने लगता है। नशे-बाजी से उत्पन्न सामयिक विक्षिप्तता में सारा शरीर किस प्रकार लड़खड़ाने लगता है इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। आवेशग्रस्त मनुष्यों की मुखाकृति, वाणी, विचार पद्धति से लेकर पाचन, रक्ताभिषरण तक पर अवांछनीय प्रभाव उत्पन्न हुआ देखा जा सकता है। जब सूत्र संचालक ही लड़खड़ाने लगा तो सारा खेल ही बिगड़ेगा। कप्तान के हड़बड़ा जाने पर सेना को बेमौत मरना पड़ता है। ड्राइवर संतुलन खो बैठे तो फिर गाड़ी को दुर्घटनाग्रस्त होना ही पड़ेगा। यही बात स्वास्थ्य संकट के सम्बन्ध में भी है। मानसिक तनाव का समस्त नाड़ी संस्थान पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। उस पर उत्तेजना छाई रहती है। फलतः जीवन धारिणी शक्ति का बुरी तरह अपव्यय होता है। अवयवों की आन्तरिक गति-विधियों का सामान्य क्रम-बिगड़ जाता है और उन्हें इस प्रकार के अवरोधों का सामना करना पड़ता है जिनके फलस्वरूप उनका दुर्बल और रुग्ण हो जाना स्वाभाविक है।

अन्वेषणकर्ताओं ने बताया है कि गिरते हुए स्वास्थ्य और बढ़ते हुए रोग प्रकोप के अन्य कारण उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना कि मानसिक उद्वेग। यह अकेला ही इतना आक्रामक है कि आहार-विहार से लेकर ऋतु प्रभाव, प्रदूषण, वायरस आदि सब की समन्वित क्षति की तुलना में अकेला ही अधिक विघातक सिद्ध होता है।

एक पेचीदा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जिन्हें पोषक पदार्थों की कमी नहीं, साधन सुविधाओं की भी कमी नहीं, प्रत्यक्षतः कठिनाई भी कोई ऐसी नहीं है जिसे असाधारण कहा जा सके। इतने पर भी लोग मानसिक तनाव से ग्रसित क्यों रहते हैं? सुसम्पन्न लोगों को यह व्यथा क्यों घेरती है और क्यों उन्हें उसके कारण अस्वस्थता का दुःख सहना पड़ता है।

उत्तर खोजने पर एक ही निष्कर्ष सामने आता है कि मनुष्य अनावश्यक रूप से महत्वाकांक्षी बनता जा रहा है। अकारण भय-भीत रहने लगा है और बात को बतंगड़ बना कर देखने का बचकानापन अपनाने लगा है। ऐसे ही कारण उसके सामने कुकल्पनाओं का जाल-जंजाल बुन कर खड़ाकर देते हैं। इसी में फँस कर उसे असंतुलन का शिकार होना पड़ता है। दृष्टिकोण का घटियापन और व्यक्तित्व का ओछापन ही मिल-जुल कर ऐसी विचित्र परिस्थिति उत्पन्न करता है जिससे मनःक्षेत्र की सौम्यता का टिक सकना ही सम्भव न हो सके।

औसत भारतीय स्तर का जीवनयापन ही नैतिक है। योग्यता कितनी ही बढ़े-उपार्जन कितना ही अधिक हो, पर उसमें से निर्वाह के लिए उतना ही लिया जाय जितना कि अपने सामान्य देशवासी के हिस्से में आता है। बचे हुए बुद्धि वैभव और समय साधन को लोक मंगल में लगा दिया जाय। व्यक्तिगत सुविधा सम्वर्धन ओर बड़प्पन की असीम लिप्सा लालसा उठ पड़े तो उसकी पूर्ति के रंगीन सपने मनःक्षेत्र में बुरी तरह धमाचौकड़ी मचाते हैं। उनकी पूर्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने साधन जुटाने में जो समय लगाना चाहिए उसके लिए धैर्य नहीं रहता। आतुरता उद्विग्नता का रूप धारण करती है और उतावली में अनैतिक मार्ग अपनाने की छूट दे देती है। इस मार्ग पर चलने वाले को पग-पग पर बाह्य प्रतिरोधों और आन्तरिक असंतोषों का सामना करना पड़ेगा। इच्छित परिस्थिति प्राप्त होने में विलम्ब लगते देखकर धीरज टूटेगा और खीज भरा उद्वेग बढ़ेगा। विलासी और महत्वाकांक्षी उमंगे अधिक उपलब्धियाँ प्राप्त करा सकती हैं किन्तु उस दिशा में चलते हुए जितने उद्वेग का सामना करना पड़ता है उससे मनःसंस्थान की सौम्यता तो क्षत-विक्षत ही होकर रहती है।

व्यक्तिवादी, स्वार्थी मनुष्य निरन्तर अपनी ही चिन्ता करता है। दूसरों के सुख-दुख की परवाह न करने के कारण आत्म-भाव की परिधि बहुत छोटी रह जाती है। यह एक प्रकार का मानसिक एकाकीपन है। सुनसान में रहने वाले एकाकी जीवनयापन करने वाले प्रायः नीरस और कठोर-कर्कश मनः स्थिति के पाये जाते हैं। भावनात्मक एकाकीपन के सम्बन्ध में भी यही बात है। जो जितनी संकीर्णता, स्वार्थपरायणता से ग्रसित होगा उसे उतनी ही नीरस मनःस्थिति में रहते हुए पाया जायगा।

शंकाशील, भयभीत, निराश, आशंकाग्रस्त, अविश्वासी मनःस्थिति में साथियों पर अविश्वास बना रहता है। निकट भविष्य में किसी विपत्ति की आशंका बनी रहती है, प्रस्तुत परिस्थितियों में कुचक्रों की गन्ध आती रहती है। स्नेह-सौजन्य के अभाव में प्रायः ऐसी ही शंकाशील मनोभूमि रहती है और उसमें चिन्तन रहने के लिए कुकल्पनाओं के पहाड़ निरन्तर आँखों के सामने से गुजरते रहते हैं। क्षुद्रता का एक दोष यह भी है कि वास्तविकता को असली रूप में समझने नहीं देती परिस्थितियों को बहुत बढ़ा कर या बहुत घटा कर दिखाती है। फलतः सही निर्णय ले सकना भी सम्भव नहीं रहता। अनिश्चितता और भीरुता का समन्वय इतना विकट होता है कि उसके दबाव को सहन कर सकना और संतुलन बनाये रहना अति कठिन हो जाता है।

व्यक्तित्व का ओछा और दृष्टि कोण का नीचा होना एक दुर्भाग्यपूर्ण अभिशाप है। ऐसे लोग चालाक कहलाते हैं और कभी-कभी अपनी गरिमा को बेच कर थोड़ी कमाई करने या छोटी सफलता पाने का भी गर्व करते हैं। किन्तु अन्ततः उनकी अप्रामाणिकता से स्नेह सहयोग का वातावरण ही समाप्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति सदा डरे, सकुचे, सिमटे और दबे छिपे रहते हैं। यह आत्मप्रताड़ना भी कम तनाव उत्पन्न नहीं करती। व्यक्तित्व की दरिद्रता अपने किस्म की सबसे बड़ी अभावग्रस्तता है। ऐसे लोग या तो गुण्डागर्दी पर उतारू होते हैं या फिर अपंग असहाय की तरह गई-गुजरी स्थिति में गुजारा करते हैं। असन्तोष भी एक प्रकार का आवेश ही है, संतुलन उससे भी बिगड़ता है।

बढ़ते हुए मानसिक तनाव को स्वास्थ्य संकट का आधारभूत कारण माना गया है। किन्तु भौतिक दृष्टिकोण अपनाये रहने वाले विचारक उसकी उत्पत्ति, सांसारिक कठिनाइयों और सामाजिक अव्यवस्थाओं को दोष देकर अपना समाधान करते हैं और उनके निराकरण का उपाय करने के लिए समाज तथा सरकार को परामर्श देते हैं। अच्छी आजीविका चिकित्सा की सुविधा, सामाजिक सहकारिता मनोविनोद के अवसर, पौष्टिक आहार, अधिक विश्राम जैसे उपाय संतुलन संरक्षण के लिए सुझाये जाते हैं। इसमें विरोध की गुंजाइश नहीं है, पर यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए मूल कारण इससे भी गहरा है। जीवन के प्रति दृष्टिकोण का स्तर गया-गुजरा होना वह प्रमुख कारण है, जिसके रहते अनुकूलताएँ भी निरर्थक चली जाती हैं, और प्रतिकूलताएं अकारण ही उठ खड़ी होती हैं। अहार-विहार की सुव्यवस्था, स्वच्छता, सतर्कता अपनाने की सलाह देना उचित है। उससे रोगों के ऊपरी कारणों का किसी हद तक निराकरण भी हो सकता है, पर तथ्य को भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए और स्मरण रखा जाना चाहिए कि दृष्टिकोण में संकीर्णता एवं क्षुद्रता के तत्वों का भरा रहना, ऐसे अनेक दुर्भाग्यपूर्ण आधार खड़े करता है जिनसे स्वास्थ्य की ऊपरी देखभाल और टीपटाप करते रहने पर भी भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला होता जाता है। इस विपत्ति के रहते औषधि उपचार से बहुत थोड़ी मात्रा में ही राहत मिल सकती है।

जीवन का मूलतत्व-वाइटिलिटी है। शरीर में जीवनी शक्ति और मन में जिजीविषा बनकर यही अपनी चमत्कारी प्रखरता दिखाती रहती है। यह क्षमता पदार्थजन्य नहीं आस्थाजन्य है। उसका उद्गम हृदय नहीं अन्तःकरण है इसी के अभाव में उद्वेग उठते और सन्तुलन बिगड़ते हैं।

मनोविज्ञानी एरिकट्रिमर कहते हैं-‘डरावने अथवा आक्रोश भरे उद्वेग शरीर और मस्तिष्क को जितना क्षति पहुँचाते हैं उतनी और कोई नहीं। चिन्ता का प्रकृति प्रयोजन इतना ही है कि मनुष्य ‘फाइट या फ्लाइट’ में से एक को अपनाकर प्रस्तुत विपत्तियों से छुटकारा प्राप्त करे। चिन्ता से इन्हीं प्रवृत्तियों के लिए उत्तेजना मिलती है। ‘लड़े या भागे’ यही दो नीतियाँ विपत्ति से बचने की हैं। अपनी स्थिति विचित्र है। न लड़ने का साहस होता है न भागने का कौशल। एक मध्यवर्ती दुष्प्रवृत्ति अपना ली जाती है जिसे संक्षोभ कह सकते हैं। मानसिक तनाव इसी की प्रतिक्रिया है सुखद भविष्य की कल्पित आशंका, उपाय निर्धारण की अक्षमता, यथार्थता का निरूपण कर सकने वाली अदूर दर्शिता, जैसे कारण मिलकर मनःसंस्थान को विचित्र स्थिति में धकेल देते हैं। यही है वह असमंजस भरी उद्विग्नता जो शरीर संस्थान के विभिन्न अवयवों पर बुरा असर डालती है। कोशाओं और ऊतकों को दुर्बल बनाती है और शरीर तन्त्र की सामान्य गति-विधियों को तोड़-मरोड़ कर रख देती है। पाचन तन्त्र, हृदय, यकृत, गुर्दे जैसे महत्वपूर्ण अवयवों को इस विकृति के कारण भयंकर क्षति पहुँचती है।

मस्तिष्क ठीक काम करे उसके सिम्पेथेटिक, पैरा सिम्पेथेटिक सिस्टम यदि समर्थ बने रहें तो शरीरगत कमजोरियों के रहते हुए भी मनुष्य बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कार्य करता रह सकता है। इसके विपरीत शरीर के स्वस्थ होते हुए भी असंतुलित मस्तिष्क से कितने ही ऐसे ही रोग उठ खड़े होते हैं जिनकी न तो निदान बन पड़ती है और न उपचार। ‘साइकिकपेन’ इसी प्रकार के होते हैं। रोगी अमुक अवयव में भारी दर्द की शिकायत करता रहता है, पर डाक्टरों को बार-बार आपरेशन करने पर भी वहाँ कुछ दिखाई नहीं पड़ता। बढ़ते हुए हृदय रोगों में मानसिक तनाव सबसे बड़ा कारण है। ‘कोरोनरी थ्रांबोसिस’ में रक्त वाहिनी नलियों की सिकुड़न-रुकावट रक्त में थक्के आदि कारण दीख पड़ते हैं। इतने पर भी उसका मुख्य कारण आहार में चिकनाई की अधिकता न होकर मानसिक तनाव ही होता है। इस व्यथा के अनेक मरीजों का पर्यवेक्षण करने पर शोधकर्ताओं को इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा है।

मानसिक उत्तेजना से शरीर में ‘ऐपीनेक्रिन’ रसायन सामान्य की अपेक्षा सात गुना अधिक बनने लगता है और यह बढ़ी हुई मात्रा मस्तिष्क और हृदय दोनों को ही समान रूप से क्षति पहुँचाती है। यों कहने को तो कोई भी यही कहेगा कि उसने हृदय रोग रक्त-चाप, मधु-मेह, अनिद्रा जैसी व्यथाएँ न्यौत कर थोड़े ही बुलाई है। इतने पर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि महत्वाकांक्षा चिन्ता, अवांछनीयता, आशंका की अनावश्यक मात्रा बढ़ा लेने में मनुष्य का अपना ही दोष होता है यदि चिन्तन में शालीनता जोड़ रखी जाय-दृष्टिकोण में आदर्शवादिता और जीवन कला के जाने माने तत्व घुले रहें तो इतनी उद्विग्नता का कोई कारण न रहेगा जिसके कारण इन भयानक आधि-व्याधियों का शिकार बनना पड़े।

अपच, अल्सर, कोलाइटिस, अतिसार, जैसे रोग यों आमाशय एवं आँतों में उत्पन्न होते दिखाई पड़ते हैं, पर इन अवयवों को शिथिल और अस्त−व्यस्त कर डालने में प्रधानतया उद्विग्नता का ही हाथ होता है। खुजली, प्रदर, प्रमेह जैसे रोगों में औषधि उपचार उतना सफल नहीं होता जितना मानसोपचार। इसमें एक ही लक्ष्य होता है। रोगी की उद्विग्नता का येन-केन प्रकारेण निराकरण। इसमें मनोवैज्ञानिक कौशल का ही मुख्यतया उपयोग होता है। मनःसंस्थान को संतुलन बनाने की कई पद्धतियाँ और विधियाँ खोज निकाली गई हैं और तनाव दूर करने के लिए उनका उपयोग भी होता है। काम इतने से भी नहीं चलेगा। खोजना यह पड़ेगा कि आखिर यह उद्वेग आते कहाँ से हैं? नाम मात्र के कारणों के सहारे वे आसमान पर क्यों छा जाते हैं। निष्कर्ष एक ही निकलता है-दृष्टिकोण में आदर्शवादिता की कमी और निकृष्टता की भरमार ही उसका आधारभूत कारण है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व को अपनाकर यदि हलका फुलका-कलात्मक स्नेह सौजन्य से भरा-पूरा जीवन जिया जा सके तो इतने भर से शारीरिक और मानसिक व्यथाओं से बहुत हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। परिष्कृत व्यक्तित्व से महान कार्यों का सम्पादन और आत्मिक गरिमा से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति जैसे वे लाभ भी इस मार्ग पर चलने से मिल सकते हैं जो शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं।


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