क्या खाएँ, क्या न खाएँ?

September 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

खाद्य पदार्थों को प्राकृतिक सजीवता के आधार पर उन्हें पसन्द किया जाय। हरे शाक−भाजी, ऋतु−फल प्रायः हर जगह मिल जाते हैं और अन्न की तुलना में सस्ते भी पड़ते हैं। अन्नों को अंकुरित करके अधिक सजीव एवं शक्तिदायक बनाया जा सकता है। वस्तुओं की कम से कम तोड़−फोड़ की जाय। दलिया या मोटा आटा− बारीक पिसे मैदा की तुलना में अधिक सुपाच्य होता है। छिलके अन्न, शाक, फल आदि सभी के अधिक गुणकारी होते हैं। सूर्य की किरणों के सीधे सम्पर्क में रहने से छिलकों में बहुमूल्य जीवन−तत्व भरे रहते हैं। अस्तु जिनके छिलके बिलकुल ही अखाद्य हैं उन्हें छोड़कर शेष को छिलके समेत ही खाया जाय। आटे को साफ तो किया जाय, पर उनकी भूसी फेंकी न जाय। दालें साबुत पकाई जायें। दलनी ही हों तो भी छिलका तो जुड़ा ही रहने दिया जाय। यही बात तरकारियों के सम्बन्ध में भी है। अरबी, कटहल जैसे बेतुके शाकों को छोड़कर शेष शाक छिलके समेत ही पकने चाहिए। पकाने में अग्नि संस्कार कम से कम किया जाय। हलकी आग पर वस्तुओं का उबाल लेने भर तक चूल्हे की गतिविधियों को सीमित किया जाय। तलना, भूनना खाद्य पदार्थों की जीवनीशक्ति को जला डालता है और उनकी स्थिति निर्जीव कोयले जैसी बन जाती है। उबालने का अधिक उपयुक्त तरीका भाप के सहारे पकाने का है। इसमें खाद्य पदार्थों की मूल सामर्थ्य उतनी नष्ट नहीं होती जितनी कि तेज आग पर अथवा खुले मुँह की पतीली से भाप उड़ते रहने पर होती है। पकाने के लिए प्रेशर कुकर एवं सादे कुकरों का उपयोग करना अधिक वैज्ञानिक है। यह उपकरण हर कहीं बड़ी आसानी से और कम मूल्य के मिल जाते हैं। उनका उपयोग भी कठिन नहीं है।

जो प्राणी जहाँ पैदा होता है उसे उसी क्षेत्र के खाद्य पदार्थ अधिक अनुकूल पड़ते हैं। प्रयत्न यह किया जाये तो परदेश से मंगाई हुई, बहुत समय की रखी हुई वस्तुओं का उपयोग न हो। दूध, दही, घी जिन्हें मिल सकता हो वे उसका उचित मात्रा में उपयोग करें अन्यथा मूँगफली, तिली, सोयाबीन से चिकनाई की आवश्यकता पूरी कर लें। यह मोटे−मोटे नियम हैं, जिनका प्रतिपादन सामान्य जानकार से लेकर उच्चकोटि के शरीर शास्त्री तक समान रूप से करते रहे हैं।

अभक्ष्य पदार्थों में मांसाहार मनुष्य की शरीर रचना और दयालु प्रकृति के हिसाब से सर्वथा विपरीत पड़ता है। भूत−पलीत, शकुन, मुहूर्त, जादू टोने जैसे अनेक भ्रम पिछड़े लोगों पर छाये रहते हैं। तथाकथित समझदारी का एक बड़ा भ्रम यह है कि मांसाहार से शरीर पुष्ट बनता है। यह बात सिंह, व्याघ्र जैसे हिंसक संरचना वाले प्राणियों के लिए ही हो सकती है। मनुष्य के दाँत, आंतें और नाखून विशुद्ध रूप से शाकाहारी वर्ग के हैं। उसके लिए मांस किसी भी प्रकार सुपाच्य नहीं हो सकता। मांस में विटामिन ए प्रोटीन आदि तत्व होने का ढोल तो पीटा जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि दालों में मिलने वाले प्रोटीन की तुलना में मांस का प्रोटीन कहीं अधिक गरिष्ठ और घटिया होता है। फिर प्राणियों के शरीर में पाये जाने वाले रोग भी मांस के साथ खाने वाले के पेट में चले जाते हैं। विटामिन ए की दृष्टि से मांस एवं अण्डों की तुलना में गाजर कहीं अधिक समृद्ध है।

किसी जमाने में मांस का समर्थन एवं उपयोग प्रगतिशीलता का चिन्ह माना जाता था और उसका विरोध करने वालों को दकियानूसी ठहराया जाता था। शरीर-शास्त्र की नवीनतम खोजों ने स्थिति को उलटकर रख दिया है। मांसाहार की प्रतिक्रिया स्वास्थ्य पर क्या होती है उसके गहन अनुसंधान ने मानवी विवेक को यह समझने के लिए विवश किया है कि बौद्धिक दृष्टि से मांसाहार का समर्थन उथले दर्जे की प्रतिगामिता है। शरीर शास्त्र की दृष्टि से अखाद्य को खाद्य सिद्ध करने जैसी कुचेष्टा है। भावनात्मक दृष्टि से यह एक क्रूर कर्म है। एक से एक स्वादिष्ट और पौष्टिक खाद्य पदार्थों के रहते हुए भी माँस का आग्रह यह बताता है कि दूसरों के प्राण हरण करने की निष्ठुरता को कोई बुराई नहीं माना जा रहा है और अपने स्वाद एवं भ्रम की पूर्ति के लिए ऐसा कुछ किया जा रहा है जैसा यदि अपने साथ किया गया होता तो न्याय और अधर्म की दुहाई दी जाती। दुर्बलों और असमर्थों के उत्पीड़न में न तो बहादुरी है और न प्रगतिशीलता। इस समर्थन में मानवी गरिमा का अवमूल्यन ही होता है। मांस की तामसिकता मन और बुद्धि पर निष्ठुरता की ऐसी प्रतिक्रिया छोड़ती है। इससे होने वाली सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं की कमी इतनी बड़ी हानि है जिसके साथ तथाकथित स्वास्थ्य लाभ को नगण्य ही ठहराया जायगा। शारीरिक लाभ की मृग तृष्णा तो पूरी न हुई उलटे मानसिक उत्कृष्टता भी गुम गई तो खाद्य चुनाव में मांसाहार को भी स्थान देना बुद्धिमत्तापूर्ण कहाँ हुआ?

अभक्ष्यों की गणना में बहुत प्रचलित नशेबाजी का भी स्थान है। बुद्धिमत्ता की वृद्धि के लिए किये जाने वाले खर्च और प्रयत्नों की बात समझ में आती है, पर अच्छे खासे आदमी को देखते−देखते पागलों की श्रेणी में ले जाकर खड़े कर देने वाले नशों के लिए जो शौक चल पड़ा है, उसकी उपयोगिता किस प्रकार समझी जाय?

नशे की हानि सर्वविदित है। तम्बाकू से लेकर शराब तक के चित्र−विचित्र नशों में पेट और दिमाग को खराब करने वाली बुराइयाँ आरोग्य शास्त्र के आधार पर आये दिन घोषित की जाती रहती हैं। उन सेवन की प्रतिक्रिया को धीमी आत्म−हत्या सिद्ध किया गया है। कितने ही रोग उनसे होते हैं। पेट, फेफड़े, जिगर, गुर्दे, हृदय, मस्तिष्क जैसे महत्वपूर्ण अवयवों पर नशेबाजी का घातक प्रभाव पड़ता है। जीवनी शक्ति के घटते जाने से खोखला बना शरीर आये दिन बीमारियों का शिकार बनता जाता है। विक्षिप्तता में निरर्थक गई− प्रतिक्रिया से रुग्ण हुई− और अन्ततः अकाल मृत्यु में घट गई जीवन सम्पदा को नशेबाजी के कारण जो क्षति पहुँचती है उसका पूरा लेखा−जोखा तैयार किया जाय तो प्रतीत होगा कि व्यक्ति के समस्त शत्रु मिलकर उतनी हानि नहीं पहुँचा पाते, जितनी कि नशेबाजी के कारण अपने द्वारा ही अपने को पहुँचाई जाती है। नशे वस्तुतः विष हैं। मादकता के साथ−साथ उनमें विघातक तत्व भी बड़ी मात्रा में भरे रहते हैं। मात्रा में स्वल्प होने के कारण उनसे तत्काल मृत्यु तो नहीं होती, पर धीरे−धीरे उनका दुष्परिणाम सामने ही आता जाता है। आंशिक मृत्यु के छिद्र में से जीवन रस टपकता रहता है और बहुमूल्य जिन्दगी का प्रायः एक चौथाई भाग अकाल मृत्यु के मुख में चला जाता है। उनका प्रसाद रुग्णता और दुर्बलता के रूप में मिलता है और बढ़ता ही चला जाता है।

देखना यह भी है कि कहीं मद्य, मांस जैसे अभक्ष्य पदार्थों को खान−पान में सम्मिलित करके अपने ही हाथों अपने धनुष−बाण से अपने को बेध डालने की बुद्धिमत्ता में यह अभक्ष्य भोजन भी तो सम्मिलित नहीं हैं। यदि हो, तो उसे उसी प्रकार अपनाये रहा जायगा या गलती को सुधारने का प्रयत्न किया जायगा?

मुख द्वार से हमें अमृत पीना चाहिए और अमृत बांटना चाहिए। इसलिए इस देव गुफा का निर्माण हुआ है। जिह्वा के रूप में भगवान ने इस महामन्दिर में भगवती, सरस्वती की प्रतिष्ठापना की है। इनकी आराधना करके सुदृढ़ स्वास्थ्य और आकर्षक सौन्दर्य का वरदान पाया जा सकता है। इन्हीं भगवती की वाणी शक्ति दूसरों को स्नेह, सौजन्य से परितृप्त करती है। फलस्वरूप जब समाज का असीम सद्भाव, सहयोग अर्जित कराती हुई भौतिक प्रगति का पथ निरन्तर प्रशस्त होता चला जाता है। मुख को मूर्धन्य तीर्थ और देव शक्तियों का निवास गृह कहा गया है। यदि उसका स्तर बनाये रहा जाय तो सहज ही इस देव द्वार से बरसने वाले अनुदानों से सुनिश्चित आरोग्य तो मिलता ही रहेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles