प्रगतिशील जीवन अच्छी आदतों पर निर्भर है।

September 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रगति और प्रसन्नता के लिए अनुकूल पड़ने वाली परिस्थितियाँ बनी बनाई तो शायद ही कि सी को मिलती हों, वे आम तौर से बनानी पड़ती हैं। यह निर्माण कार्य अपनी आदतों को सुधारने के साथ आरम्भ करना होता है। आदतों का जीवन में जितना महत्व है उतना शिक्षा और तन्दुरुस्ती का भी नहीं हैं, यद्यपि यह दोनों ही हर किसी को आवश्यक प्रतीत होती हैं।

शरीर की कार्यक्षमता अद्भुत है। वह इसी छोटी जिन्दगी में इतना काम कर सकता है कि जिसका मूल्याँकन करने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा। कठिनाई इतनी ही है कि वह श्रम शक्ति हवा के झोंके के साथ उड़ने वाले पत्ते की तरह अव्यवस्थित रास्ते से दिशा विहीन उड़ती रहती है और उसका योजनाबद्ध लाभ बहुत ही स्वल्प मात्रा में मिल पाता है। आदतें ही हैं जो निरर्थक कामों में शरीर को उलझाये रहती हैं और वे काम करने से रह ही जाते हैं जिन्हें करने से कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हाथ लग सकती थीं।

बुद्धि तीव्र है या मन्द, यह कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है सोचने की दिशा और उपयोगी तथ्य पर विचार शक्ति का केन्द्रित रहना। काम उनके सफल होते हैं जो अपने करने के लिए कुछ निश्चित लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं और उस पर नियमित रूप से लगे रहते हैं। इसी प्रकार बुद्धि का लाभ उन्हें मिलता है जो अपने सोचने के लिए एक दिशा धारा निश्चित करते और फिर उसी मार्ग पर अनवरत गति से बिना इधर−उधर भटके चलते रहते हैं। ऐसे लोग मन्द बुद्धि होने पर भी इतना कुछ कर गुजरते हैं कि बुद्धिमत्ता को अपनी निरर्थकता और असफलता स्वीकार करनी पड़े। जिनका मन निरुद्देश्य कल्पनाओं में भटकता रहता है वे समय ही नहीं गँवाते वरन् उलटे ऐसी भ्रान्तियों में फँस जाते हैं जो चिन्तन, श्रम और समय की बहुमूल्य सम्पदाओं को नष्ट-भ्रष्ट ही करती चली जाती हैं।

सही करने और सही सोचने की आदत डाल ली जाये, चंचलता और भटकाव पर अंकुश रखा जाय तो स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्पदा, सहयोग आदि की दृष्टि से हल्का पड़ने वाला मनुष्य भी अपने सुनिश्चित मार्ग पर धीरे−धीरे चल कर भी इतनी प्रगति कर सकता है जिसे देखकर अस्त-व्यस्त साधन सम्पन्नों को भी लज्जा लगती है।

परिस्थितियों की अनुकूलता भले ही आवश्यक प्रतीत होती हो पर वह अपने हाथ में नहीं है। जैसा चाहे वैसा सोचना, जैसा चाहे वैसा करना, तो मनुष्य के हाथ में है पर परिणाम सर्वथा अनिश्चित है। क्योंकि उसमें मात्र पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं होता ढेरों अन्य कारण भी जुड़े रहते हैं। अनुकूलता और इच्छित सफलता पाने के लिए उत्साह भरे प्रयत्न करने के लिए साहस जुटाना बहुत ही अच्छी बात है। उसका लाभ भी है इतने पर भी जो चाहा गया है वही होकर रहेगा इसका कोई ठिकाना नहीं है। जो अनिश्चित है उसी के लिए अड़े रहने की अपेक्षा और अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण है कि जो पूर्णतया अपने हाथ में है उसी को संभालें। मनःस्थिति को सुनियोजित बनाने के प्रयास ऐसे हैं जिसमें सफलता प्राप्त करना किसी संकल्पवान व्यक्ति के लिए सरल है। मनःस्थिति को परिष्कृत किया जा सके तो परिस्थितियों की अनुकूलता का मार्ग खुल जाता है। कुछ कमी भी रहे तो मानसिक परिष्कार अपने आप में इतना सुखद है कि उसके रहते परिस्थितियों की प्रतिकूलता भी बहुत बाधक और बहुत कष्टकर नहीं रह जाती।

मनःस्थिति सुधारने का तात्पर्य विचारों में हेरा-फेरी करने से इतना नहीं है जितना कि आदतों को सुधारने से। सोचने वाला मस्तिष्क तर्क और तथ्य उपस्थित कर देने पर विचार बदलने के लिए आसानी से तैयार हो जाता है। कठिनाई अचेतन मन के सम्बन्ध में उसकी आदतें जड़ जमाये बैठे रहती हैं और इतनी हठी होती हैं कि समझाने−बुझाने का सामान्य प्रयत्न उन्हें अपनी और जिद से हटाने में सफल नहीं होता।

बुरी आदतें ही हैं जो आलस के रूप में नस, नाड़ियों में घुस बैठती हैं और मनुष्य को गठिया, लकवा आदि रोगों से ग्रसित व्यक्ति से भी अधिक अपंग बनाकर रख देती हैं। मस्तिष्क पर छाया रहने वाला प्रमाद उतना ही हानिकारक सिद्ध होता है जितना कि अविकसित और अर्द्धविक्षिप्त लोग अपने को दुर्भाग्य ग्रस्त अनुभव करते हैं। चटोरेपन की आदत अनेक बीमारियों की जननी है। यों उसमें कोई खास बुराई नहीं दीखती, पर जहाँ तक स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन का सम्बन्ध है उसे हलका विष पीते रहने का आरोग्य गँवा बैठने की मूर्खता से कम घातक नहीं माना जा सकता।

दिनचर्या बनाकर चलने और समय की नियमितता के नियन्त्रण में कसे रहने पर सामान्य योग्यता का व्यक्ति भी आशाजनक प्रगति कर सकता है। इसके विपरीत जो भी प्रसंग सामने आ जाय उसी में उलझ जाने और आवश्यक कामों को भुला देने वाले व्यक्ति बहुत घाटे में रहते हैं। उनकी उपलब्धियाँ नगण्य ही बनकर रह जाती हैं।

कछुए और खरगोश की वह कहानी सभी को याद है, जिसमें दोनों बाजी कर नियत स्थान पर जल्दी पहुँचने के लिए निकले थे। खरगोश इधर−उधर उछलता भटकता रहा, कछुआ बिना दायें बायें देखे अनवरत चलता रहा। फलतः वही पहले पहुँचा और बाजी जीत ली। प्रश्न द्रुतगामिता और मन्दगामिता का उतना नहीं है जितना क्रमबद्धता का। सफलताओं का एक तिहाई श्रेय योग्यता और साधनों को दिया जा सकता है। शेष दो तिहाई मनुष्य की आदतों पर निर्भर रहता है। सुनियोजित रीति−नीति अपनाने वाले ही दूसरों की दृष्टि में प्रामाणिक बनते हैं और सहयोग उपलब्ध करते हैं। चोर उचक्कों की ही तरह अस्त−व्यस्त व्यक्ति भी अप्रामाणिक समझा जाता है। उसका सहयोग पाने में किसी को रुचि नहीं होती और न कोई उसे उत्साहपूर्वक कुछ सहयोग देने के लिए ही सहमत होता है। दूसरों पर असहयोग करने का दोष देने से पूर्व यह देखना होगा कि कहीं अपनी ही अस्त−व्यस्त आदतें तो उस अवरोध का भीतरी कारण तो नहीं है। आहार-विहार सम्बन्धी अनियमितताएं और उच्छृंखलताएं स्वास्थ्य की बर्बादी का बहुत बड़ा कारण हैं। अन्यमनस्कता अपनाये रहने वाले आधे-अधूरे मन से काम करते हैं फलतः उनके अध्ययन, व्यवसाय, शिल्प आदि में अपूर्णता रह जाती है। ऐसी दशा में असफल रहना स्वाभाविक है। शरीर को तत्परता और मन को तन्मयता के लिए अभ्यस्त बना लिया जा सके तो असफलताओं में से अधिकांश अनायास ही दूर बनी रहेगी।

भारी मन से काम करना बहुत बुरा है। यह बहुत कठिन है। मुझ पर लद गया है। इसे करने पर तो मैं बुरी तरह थक जाऊँगा। यह मेरे बस का नहीं है। यह मेरी रुचि का नहीं। न जाने कब इससे पीछा छूटेगा। इस प्रकार के विचार अपने प्रस्तुत कामों के सम्बन्ध में करने वाले सचमुच ही उसे थोड़ा−सा करने पर ही बुरी तरह थक जाते हैं और बेगार भुगतने की तरह कुरूप और काना कुबड़ा ही किसी प्रकार कर पाते हैं। अरुचि मनुष्य की आधी योग्यता और शक्ति का अपहरण कर लेती है। अरुचि और कुछ नहीं एक बुरी आदत भर है। वस्तुतः कोई काम कठिन नहीं है। अभ्यास और मनोयोग से ही हर काम सीखा जा सकता है और भली प्रकार किया जा सकता है। खिलाड़ी की तरह अपने दैनिक कामों को खेल की तरह सम्पन्न किया जाय और उसे अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने वाली कलाकारिता के स्तर का समझा जाय तो उसे बढ़ी−चढ़ी दिलचस्पी के कारण काम हलका ही हलका लगेगा, जल्दी और अच्छा भी होगा। काम कोई भारी नहीं होता। भारी होता तो दूसरे इसे कैसे कर पाते। असल में सब से भारी होती है अरुचि। अन्यमनस्कता के सामयिक कारण कुछ भी गिनाये जाते रहे वस्तुतः वह एक बुरी आदत भर है।

आदतें स्वनिर्मित होती हैं। इसलिए उन्हें संकल्पपूर्वक बदला या हटाया जा सकता है। गलत बुन जाने पर स्वेटर को लड़कियाँ उधेड़ डालती हैं और फिर नये सिरे से उसे दुबारा बुनती हैं। आदतों के सम्बन्ध में भी यही बात है वे अपने आप कहीं से नहीं आतीं। बहुत समय तक जाने या अनजाने एक ढर्रा अपनाये रहने पर वह अभ्यास परिपुष्ट होता है और आदत बनती है जिन आदतों को अवांछनीय समझा गया है उसके प्रतिकूल आचरण करने का कार्यक्रम बनाया जाय और उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहा जाय तो परिवर्तन भी उतना ही सरल प्रतीत होगा जितना कि आरम्भ में उसे स्वभाव का अंग बनाते समय कोई विशिष्ट कष्ट नहीं सहना पड़ा था।

बुरी आदतें छोड़ने की तरह ही अच्छी आदतें डालने के लिए भी हर किसी को सहज सफलता मिल सकती है। आदतें चाहे भली हो या बुरी स्वभाव में सम्मिलित तब होती हैं जब उन्हें दिलचस्पी और क्रियाशीलता का आश्रय मिलता है। यदि यह पोषण बन्द कर दिया जाय तो आदतें भीनी पड़ती और समाप्त होती चली जाती हैं। कई आदतों के सम्बन्ध में यही बात है यदि उनकी उपयोगिता समझी जाय, रुचि ली जाय और दैनिक व्यवहार में सम्मिलित किया जाय तो आरम्भ में नवीनता के कारण कुछ अड़चन भले ही लगे अभ्यास चलते रहने में स्वभाव का अंग बनने में देर न लगेगी।

आज का काम आज निपटाने का स्वभाव बनाया जाय। कल पर तभी छोड़ा जाय तब नितान्त विवशता हो। मन उचटते ही काम को आधा अधूरा छोड़कर भाग निकलना। छोड़ने से पहले उसे सुव्यवस्थित रीति से न संभालना, बुरा है। इससे अगले दिन उस बिखराव को संभालने में उससे दूनी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा जितना कि बन्द करते समय ठीक तरह समेटने में करना पड़ता। अधूरे काम अपने कर्त्ता की निंदा चुगली हर दर्शक से करते हैं और कहते हैं यह व्यक्ति और कुछ भी क्यों न हो, सुसंस्कारी नहीं है। सुसंस्कारिता का प्रथम परिचय उसके वस्त्र, उपकरण ही नहीं काम करने के ढंग और उसे सांगोपांग करने का ढंग देखकर ही ज्ञात होता है। विद्वत्ता, सुन्दरता, बलिष्ठता, सम्पन्नता आदि विभूतियों का अपना महत्व है किन्तु सुसंस्कारिता इनमें से किसी से भी हलकी नहीं पड़ती। व्यक्तित्व का वास्तविक मूल्यांकन किसी के स्वभाव और क्रिया-कलाप को देखकर ही किया जा सकता है।

उतावली में अधिक उत्सुकता तो झलकती है पर जब वह अधीरता को सीमा तक जा पहुँचती है तो भावोन्माद ने मस्तिष्क पर कब्जा कर लिया। इससे सफलता जल्दी मिलने की सहायता नहीं मिलती वरन् वह और अधिक दूर हटती जाती है। कामों में अनावश्यक विलम्ब न लगाया जाय यह ठीक है। जो काम आज हो सकता है उसे पीछे कभी के लिए न टाला जाय, यह उचित है। किन्तु हड़बड़ी में सारे काम आज ही कर डालने और सोचने तथा साधन जुटाने तक की गुंजाइश न रहने देने से भी सफलता लूटी नहीं जा सकती। योजनाबद्ध रीति से मनोयोगपूर्वक श्रम करने वाले और उपयुक्त सफलता का अवसर आने तक धैर्य रखने वाले ही महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कर सके हैं। यह तथ्य ध्यान में रखने योग्य है। विशेषतया उन लोगों को जो अधीरताजन्य उतावली को ही सक्रियता की निशानी मान लेते हैं।

कई व्यक्तियों में ऊँचे स्वर में बोलने की, रूखे और कर्कश शब्दों का प्रयोग करने की आदत होती है। कइयों को बात−बात में अपनी बड़ाई करने और शेखी बघारने की लत होती है। वे समझते हैं कि ऐसा करने से दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप जमाई जा सकती है। पर होता ठीक उलटा है। फैशन के नाम पर उद्धत प्रदर्शन और वाचालता के सहारे आत्म विज्ञापन करने वाले किसी पर अच्छी छाप नहीं छोड़ते, ऐसे लोग ओछे, बचकाने और घटिया समझे जाते हैं। वाणी में मिठास और विनय का समन्वय न हो, दूसरों के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति का पुट न रहे तो समझना चाहिए वाणी का आकर्षण एक प्रकार से गँवा ही दिया गया। अपनी प्रभावोत्पादक शक्ति बचकानी आदतों के कारण गँवा बैठना वस्तुतः एक बड़ा घाटा और जोखिम उठाना है।

दूसरों की बात में अपनी टाँग अड़ाना, दूसरों के कार्यों में अकारण हस्तक्षेप करना सामान्य शिष्टाचार के विपरीत है। किन्तु कइयों को ऐसा करने की आदत होती है। बहुत से लोग इस उस की निन्दा स्तुति में ही मजा लेते रहते हैं और अपना तथा दूसरों का समय खराब करते रहते हैं। जहाँ आवश्यक हो वहाँ सलाह दी जा सकती है। जहाँ सहयोग अपेक्षित हो वहाँ हाथ बंटाया जा सकता है। इस प्रकार जब प्रशंसा एवं निन्दा की कोई उपयोगिता हो तो उन्हें भी करने में हर्ज नहीं। किन्तु अपनी कुसंस्कारिता का परिचय देने के लिए अकारण शक्तियों का अपव्यय करना और अशिष्ट कहलाना बुद्धिमानी की बात नहीं है। निरर्थक हानिकारक आदतों से पीछा छुड़ाने की बात यदि समझ में आ सके तो साथ ही अच्छी आदतें डालने के लिए भी साहस जुटाना चाहिए। प्रातःकाल दिन भर की दिन−चर्या बना लेना और उस क्रम पर ध्यान रखे रहना बहुत अच्छी आदत है। भले ही उस क्रम में परिस्थितिवश हेर−फेर करना पड़े पर इतना निश्चित है कि उसके स्वभाव और अभ्यास में उपयोगी तत्व जुड़ जाते हैं। समस्याओं के समाधान में योगदान देने वाले साहित्य का नित्य नियमित रूप से अध्ययन करना संसार का सबसे बड़ा उपयोगी मनोरंजन है। सत्साहित्य में सम्पर्क बनाये रहना अपने चिन्तन को सुसंस्कृत बनाने का सरल किन्तु प्रभावोत्पादक उपाय है।

भोजन का समय, आहार का चयन परिमाण नियत रखा जाना चाहिए। सफाई को स्वभाव का अंग बनाया जाय। शरीर, कपड़ा, उपकरण, निवास आदि अपने सभी सम्पर्क सूत्र साफ सुधरे रखे जायें। इसका सहज उपाय यह है कि जहाँ भी गंदगी दृष्टिगोचर हो उसे हटाने के लिए दूसरों को हुक्म देने में पहले स्वयं ही आगे रहा जाय। गन्दगी यदि असह्य होगी आँखों में काँटे की तरह चुभेगी तो ही यह संभव है कि स्वच्छता का आनन्द लेना और गौरव पाना शक्य होता रहे।

अच्छी आदतें अपनाने वाले ही प्रसन्न रह सकते हैं। कुढ़न का कारण बाहरी कठिनाइयाँ उतनी नहीं होती जितनी कि भीतर की सुसंस्कारिता। सफलता के मार्ग में भी वे ही सबसे अधिक बाधक होती हैं। दूसरों का सहयोग पाने में भी अपने ही दुर्गुणों के कारण व्यवधान उत्पन्न होता है। अपनी आदतों को सुधारना इतना सरल और इतना उपयोगी काम है कि उसे सबसे प्रथम हाथ में लिया जाना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118