मृत्यु से डरें नहीं उसे सरल और सुखद बनायें।

September 1978

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यों कहने को तो सभी कहते हैं कि जो जन्मा है सो मरेगा। इसलिए किसी भी मृत्यु पर दुःख मानते हुए भी यह नहीं कहा जाता है कि यह कोई अनहोनी घटना घट गई। देर सवेर में आगे−पीछे मरना तो सभी को है यह मान्यता रहने के कारण रोते−धोते अन्ततः सन्तोष कर ही लेते हैं। जब सभी को मरना है तो अपने स्वजन सम्बन्धी ही उस काल चक्र से कैसे बच सकते हैं?

लोक मान्यताओं की बात दूसरी है, पर विज्ञान के लिए यह प्रश्न काफी जटिल है। परमाणुओं की तरह जीवाणु भी अमरता के सन्निकट ही माने जाते हैं। जीवाणुओं की संरचना ऐसी है जो अपना प्रजनन और परिवर्तन क्रम चलाते हुए मूलसत्ता को अक्षुण्ण बनाये रहती है। जब मूल इकाई अमर है तो उसका समुदाय शरीर क्यों मर जाता है? उलट−पुलटकर यह जीवित स्थिति में ही क्यों नहीं बना रहता? उनके बीच जब परस्पर सघनता बनाये रहने वाली चुम्बकीय क्षमता का अविरल स्रोत विद्यमान है तो कोशाओं के विसंगठित होने और बिखरने का क्या कारण है? थकान से गहरी नींद आने और नींद पूरी होने पर फिर जग पड़ने की तरह ही मरना और मरने के बाद फिर जी उठना क्यों सम्भव नहीं हो सकता?

बैक्टीरिया से लेकर अमीबा तक के दृश्यमान और अदृश्य जीवधारी अपने ही शरीर की उत्क्रान्ति करते हुए अपनी ही परिधि में जन्म−मरण का चक्र चलाते हुए प्रत्यक्षतः अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाये रहते हैं। फिर बड़े प्राणी ही क्यों मरते हैं? मनुष्य को ही क्यों मौत के मुँह में जाने के लिए विवश होना पड़ता है? इस प्रश्न के उत्तर में जर्मनी के जीव विज्ञानी आगस्ट बीजमान का कथन है कि जीव विकास की प्रगति शृंखला में प्राणियों का मरण तब से प्रारंभ हुआ जब उनमें मेरुदण्ड और मस्तिष्क का विकास, विस्तार आरम्भ होने लगा। मेरुदण्ड भी वस्तुतः मस्तिष्क का ही एक पूँछ जैसा भाग है। मरण को कभी नाड़ी या हृदय की धड़कन के साथ जोड़ा जाता था, पर अब जीवन सत्ता में प्रधानता मस्तिष्क की ही मानी जाती है। हृदय समेत अन्य अवयव उसी के आज्ञानुवर्ती माने जाते हैं। अन्य अवयवों के निःचेष्ट हो जाने पर भी यदि मस्तिष्क में किसी प्रकार की हलचल विद्यमान है तो प्रत्यक्षतः उसे मृतक घोषित किये जाने पर भी उसमें जीवन का अस्तित्व माना जाता है और पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया जाता है। मरने वालों में से बहुत से घोषित मृत्यु के दस मिनट पश्चात तक मस्तिष्कीय दृष्टि में जीवन पाये गये हैं और कृत्रिम धड़कन एवं श्वास−प्रश्वास की व्यवस्था करके प्राण लौटाने के लिए प्रयत्न किये गये हैं। इनमें से कितनों को ही जीवित करने में सफलता भी मिल गई है।

मृत्यु भी प्रगतिक्रम की एक सीढ़ी कही जा सकती है। जड़ता में स्थायित्व है। परमाणु और तरंगों की सत्ता में ऊर्जा और हलचल तो है, पर मरण नहीं है। आरम्भिक स्तर के जीवधारियों में भी मरण संकट नहीं है। जीवाणुओं से लेकर एकेन्द्रिय जीवों तक अपनी सत्ता बनाये रहते हैं यों मरण−जीवन का क्रम तो चलता रहता है, पर इससे उनके अस्तित्व के लिए चुनौती उत्पन्न नहीं होती। वे बिना टकराये और बिना किसी महत्वाकांक्षा के प्रकृति के प्रवाह क्रम में बहते रहते हैं। महत्वकांक्षाएं जहाँ प्रगति में सहायक हैं वहाँ उनमें यह खतरा भी मौजूद है कि प्रकृति ऐसे प्राणियों को अपनी सुव्यवस्था में बाधक समझें और जल्दी ही अपना बिस्तर गोल करने के लिए रास्ता साफ करती हैं। मनुष्य के लिए मृत्यु संकट सम्भवतः इसीलिए अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक जटिल और कष्टकर बन गया है।

बीमारियों से मनुष्य का घिरा रहना ही उसका प्रकृति को चुनौती देने का ही दण्ड दुष्परिणाम है। उपभोग की मर्यादाओं का उल्लंघन शरीर संरचना के अनुरूप आचार संहिता न अपनाने से स्वास्थ्य संकट उत्पन्न होता है और उसकी दुःखद प्रतिक्रिया आये दिन बीमार रहने के रूप में भुगतनी पड़ती है। जितना सरल, सौम्य, हलका और आवेश उत्तेजनाओं से रहित जीवन जिया जायेगा, उतना ही मृत्यु का भय और कष्ट हलका होता जायेगा।

मौत भयानक या अवांछनीय ही हो, ऐसी बात नहीं है। कई बार तो वह जीवन से भी अधिक मूल्यवान, सुखद और सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली होती है। देश की सुरक्षा के लिए युद्ध क्षेत्र में जाने वालों में से कितनों को ही अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है और वे उच्च आदर्शों के लिए इस प्रकार प्राण गंवाते हुए गर्व गौरव का अनुभव करते हैं। उनकी इस वीरगति के लिए लोक श्रद्धा भी बरसती है। लोकहित के लिए प्रयत्नशील महामानवों से कितनों को ही कठिनाइयों से जूझते हुए अकाल मृत्यु का ग्रास होना पड़ता है। कितने ही ईसा, सुकरात, गान्धी आदि की तरह प्रति पक्षियों द्वारा मौत के घाट उतार दिये जाते हैं। गीता कहती है कि ऐसा मरण भाग्यवानों को ही उपलब्ध होता है। क्षत्रिय धर्म में नीति से संघर्ष करते हुए मिलने वाले मरण को यश और स्वर्ग देने वाला कहा गया है। मौत यदि बुरी ही होती तो उसे हर कोई कष्टकर ही अनुभव करता। तब गोली और फाँसी के सामने दौड़ते हुए चले जाने के लिए कोई तैयार ही न होता और वीर बलिदानियों की परम्परा ही समाप्त हो जाती।

कई बार तो जीवन और मौत के बीच कौन सुखद है यह चुनने में मनुष्य को मौत के पक्ष में अपना निर्णय देना पड़ता है। आत्महत्याएं उसी प्रकार के निर्णय का परिणाम होती हैं। समाज उसे किस दृष्टि से देखता है और कानून उसे कितना अवांछनीय दण्डनीय मानता है यह दूसरी बात है, पर जो इस प्रकार के भयानक निर्णय करते हैं और जिन्दगी से मौत को वरिष्ठ मान बैठते हैं उनके अपने भी तो कुछ तर्क होने ही चाहिए। भले ही उन्हें जन विवेक मान्यता न देता हो।

मनोविज्ञान शास्त्र को सुव्यवस्थित बनाने वाले डॉ. सिंग फ्रायड का नाम विश्व विख्यात है। उनकी समझदारी पर कोई अविश्वास नहीं कर सकता। जीवन के अन्तिम दिनों में उन्हें जबड़े का कैन्सर हो गया था। यह लगातार 16 वर्ष तक चला। इतने समय में उस फोड़े का 33 बार आपरेशन हुआ। फिर भी वे उस असह्य पीड़ा से छुटकारा न पा सके। फलतः उन्होंने मार्फीन की सुई लगा ली और 83 वर्ष की आयु में स्वेच्छामरण को गौरवास्पद मानते हुए विदा हो गये।

इसी प्रकार एक असह्य पीड़ा से छटपटाते हुए असाध्य रोगी की दया भिक्षा स्वीकार करते हुए डॉ. विन्सेट मान्ट मेरिनो ने स्वेच्छामरण में सहायता करने वाली औषधि उपलब्ध करा दी थी, रोगी को पाँच मिनट के भीतर ही चिरशान्ति का लाभ मिल गया। पर कानून ने इसे अपराध ही माना और चिकित्सक को न्यायालय का निर्धारित दण्ड भुगतना पड़ा। महात्मा गान्धी ने भी साबरमती आश्रम में एक मृत्यु से छटपटाते हुए बछड़े को मरण की सुई लगाने की आज्ञा दे दी थी और उन्हें तीखे जन विरोध का सामना करना पड़ा था।

यहाँ स्वेच्छामरण के कानूनी और औचित्य पथ पर चर्चा नहीं हो रही है। देखा यह जा रहा है कि क्या कोई ऐसा भी समय आ सकता है जब जीवन से मरण को अधिक उपयुक्त माना जाय? मृत्यु दण्ड के अपराधियों के लिए भी न्याय परम्परा यही निर्धारण करती है कि उनके जीवित रहने की अपेक्षा मरण ही श्रेयस्कर है।

प्रसंग जीवन और मरण में से वरिष्ठता किसे दी जाय यह निर्णय करने का है। यहाँ सब कुछ सापेक्ष ही ठहरता है। उपयोगिता ही प्रधान है। न जीवन ही सदा सर्वदा उत्तम समझा जा सकता है और न मृत्यु को ही सर्वथा हेय ठहराया जा सकता है। दोनों ही अपने−अपने स्थान पर गुण−दोष की कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त श्रेष्ठ समझे जा सकते हैं।

प्राणियों की इस मनःस्थिति पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए महाभारत में महर्षि व्यास करते हैं−

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यम मन्दिरम्। अन्ये स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्य मतः परम्॥

अर्थात्− प्राणियों को निरन्तर मृत्यु मुख में जाते हुए आँखों में देखते हुए भी लोग अपनी स्थिरता का ही विश्वास किये बैठे रहते हैं यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है।

आत्मा की पुकार है− मृत्योर्माऽमृतं गमय। ‘‘हे परमेश्वर− मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चल।” मरण कितना अवांछनीय और जीवन कितना अभीष्ट है इसका आभास इस पुकार में मिलता है। अन्तरात्मा की प्रबल कामना है− जिजीविषा। वह जीना चाहता है। यह सभी जानते हैं कि शरीर गत मृत्यु अपराजित है। वह प्रकृति पदार्थों को परिवर्तित करने के लिए अनिवार्य रूप से आती है। किन्तु निश्चय ही उसका भय जीता जा सकता है। मौत अपने आप डरावनी नहीं है। परिवर्तन में विनोद है और उत्साह भी। स्थिरता में नीरसता रहती है। गति और सरसता बनाये रहने के लिए परिवर्तन आवश्यक है। यह स्वाभाविक सरल प्रक्रिया ही मरण कहलाती है जिसे काय−कलेवर का परिवर्तन ही कह सकते हैं। इसमें न तो कुछ अप्रिय है न अनुचित और न कष्ट कर। कष्टकारक तो मृत्यु का भय है। यदि उससे निवृत्ति मिल सके तो समझना चाहिए कि मृत्यु का भय है। यदि उससे निवृत्ति मिल सके तो समझना चाहिए कि मृत्यु से छुटकारा पाने और अमरता का लाभ लेने जैसा आनन्द मिल गया।

मृत्यु कोई विभीषिका नहीं एक सुनिश्चित नहीं एक सुनिश्चित संभावना है, उसे एक समस्या का रूप दिया जा सकता है। उसका हल इतना ही खोजा जा सकता है कि सुखद, संतोषजनक और सराहनीय मृत्यु का वरण किस प्रकार सम्भव हो। इसका उत्तर एक ही है कि जीवन का सदुपयोग इस प्रकार किया जाय कि जन्मोत्सव की तरह ही मरणोत्सव भी देह छोड़ने वाले प्राणी को सरल प्रतीत हो सके। सुखद मृत्यु जीवन देवता की आराधना का वरदान है। जो इस साधना को कर सके उसके लिए मरण का दिन पश्चात्ताप का नहीं वरन् अधिक सुखद परिस्थितियों के लिए विनोद यात्रा पर निकलने की तरह उत्साहवर्धक ही बन कर आता है।

भगवान बुद्ध जब मरने लगे तो रोते हुए अपने प्रिय शिष्य आनन्द को दुलारते हुए उन्होंने कहा− ‘आनन्द, रोओ मत, यह रोने का अवसर नहीं है। स्वयं अपने लिए दीपक बनो। निर्वाण तो नितान्त स्वाभाविक है। उसके लिए तो पहले से ही तैयार रहना है।’ विल्सन ने मृत्यु की बेला से मुस्कराते हुए किसी अज्ञात से कहा− “मैं तो बिलकुल तैयार हूँ।” और उन्होंने आँखें मूँद ली। वाल्टेयर ने उपस्थित लोगों से मरते समय कहा− ‘आप लोग, गड़बड़ न करें शान्ति से बैठें और मुझे शान्ति से मरने दें।’ गेटे ने मरण की उपस्थिति को प्रकाश के रूप में देखा और वे बड़े उत्साह से चिल्लाये प्रकाश−प्रकाश− अनन्त प्रकाश। इतनी अनुभूति व्यक्त करके उनकी वाणी मौन हो गई। स्वामी दयानन्द ने सन्तोष भरी लम्बी साँस खींची और कहा− हे! दयामय तेरी इच्छा पूर्ण हो।’ गान्धी जी के मुख से अन्तिम शब्द निकला− ‘हे राम’ और वे राम में ही समा गये।

जीवन का सदुपयोग ही मौत को सरल बनाने की पूर्व तैयारी है जो उसे कर सके उनके लिए जीवन और मरण दोनों अभिन्न मित्रों की तरह सुखद और सहयोगी प्रतीत होते हैं।


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