मानव और धर्म (kavita)

September 1978

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पाई तो मनुज-देह हमने, पर मनुज-धर्म अपना न सके। देवों को दुर्लभ-देही का, किंचित भी लाभ उठा न सके ॥1॥

मानव तो कहलाये, लेकिन हम मनुज-धर्म से दूर रहे। दी बहुत दुहाई धर्मों की, बस इसी नशे में चूर रहे ॥

लेकिन हम अपने जीवन में, हां ! धर्म न धारण कर पाये। धर्मों के सत्यादेशों पर, जीवन में तनिक न चल पाये। किंचित, अनुकूल धर्म के हम, अपना आचरण बना न सके ॥2॥

हमको मानव जीवन पाकर, अनुकरण धर्म का करना था। देवों को दुर्लभ देही पाकर, श्रेष्ठ कर्म ही करना था ॥

हम चले धर्म के पीछे कब, बेचारा धर्म चला पीछे। हम धर्मात्मा कहलाने को, ले चले उसे खींचे-खीचे॥ धर्मों के ठेकेदार रहे, पर धर्म तत्व को पा न सके ॥3॥

अनचाहे, जय-जयकार करी वैभव की, धर्म विचारे ने। सम्मान, अनैतिक-जीवन को दे दिया, हाय! मन-मारेने॥

हो गया धर्म-आचरण लुप्त, धर्माडम्बर के घेरों में। रह गया भटक कर धर्म-तत्व, भ्रम में, अज्ञान अंधेरों में ॥ पर उसका गरिमामय-स्वरूप, जग के सन्मुख हम ला न सके।4।

वास्तविक-धर्म का दर्शन तो, होता है सत्य-आचरण में। वास्तविक-धर्म का धारण तो, होता प्रतिदिन के जीवन में॥

जीवन-पद्धति है धर्म, धर्म होता है नहीं मात्र-अभिनय। कोमलता, करुणा, ममता, सेवा से मिलता उसका परिचय। इन दैव-गुणों से हम अपना धार्मिक -व्यक्तित्व बना न सके॥5॥

पर बिना धर्म के जग, जीवन का सुख केवल मृग-तृष्णा है। यदि धर्म नहीं है तो सुख का संसार, व्यर्थ का सपना है॥

आओ! अधर्म से मानव के जीवन को मुक्ति दिलाने को। मानव को देवों सा सक्षम, धरती को स्वर्ग बनाने को ॥ हो धर्म-साधना, ताकि मनुज पशु-सी जिन्दगी बिता न सके ॥6॥

-मंगल विजय

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*समाप्त*


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