मुसकान सुसंस्कृत व्यक्तित्व की निशानी

September 1978

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खिन्न रहना, मनुष्य की अपनी उपार्जित कुरूपता है, सौन्दर्य सहज प्रिय है। उसका दूसरों पर प्रभाव पड़ता है और अपने आपको गर्व एवं सन्तोष की अनुभूति होती है। आमतौर से सौन्दर्य वृद्धि के भारी उथले प्रयत्न सभी अपने ढंग और स्तर के अनुरूप करते रहते हैं, किन्तु कुछ ऐसे भी हैं जो प्रकृति प्रदत्त सुरुचि को अपने हाथों बिगाड़ते रहते हैं और उपलब्ध सहज सौन्दर्य पर कुठाराघात करते रहते हैं। ऐसी भूल करने वालों में आलसी और गन्दगी प्रकृति के लोग उतनी बड़ी संख्या में नहीं होते जितने कि अप्रसन्नता की मुद्रा बनाये रहने वाले।

अंगों की बनावट मनुष्य के अपने हाथ में नहीं है। वह जैसी भी कुछ है जन्मजात है और उसमें परिवर्तन बहुत प्रयत्न करने पर भी थोड़ा-सा ही हो सकता है। स्वच्छता और सुसज्जा से सुन्दरता का बाह्य आवरण किस कदर सध जाता है। उससे व्यक्ति की सुरुचि का पता चलता है किन्तु चेतना का आन्तरिक सौष्ठव इन आवरणों के आधार पर यत्किंचित् ही झलकता है। वस्त्र, अलंकार एवं सुसाधनों की सहायता से सज−धज की व्यवस्था एक सीमा तक हो सकती है। केश सज्जा एवं परिधानों के सहारे मनुष्य थोड़ा−सा आकर्षक तो जरूर लगता है फिर वह वास्तविक सौन्दर्य जो व्यक्तित्व का अंग है, इतने भर से बन नहीं पड़ता। शृंगार के द्वारा सहज सौन्दर्य की आवश्यकता बहुत प्रयत्न करने पर भी पूरी नहीं हो पाती।

सौन्दर्य की जड़ें मनुष्य के अन्तरंग की गहराई में होती हैं। बच्चों का भोलापन उनकी निर्मल मनःस्थिति और सहज सरलता के कारण हर किसी की आँखों को प्रिय लगते हैं। बच्चे के साथ खेलने के लिए हर किसी का मन करता है इसमें अपनेपन का मोह ही नहीं उस पर छाये रहने वाले सहज सौन्दर्य का आकर्षण भी बहुत बड़ा कारण होता है जो अनजान का भी मन लुभाता है। अपनों की तरह पराये बालक भी प्रिय लगते हैं।

चेहरा एक पारदर्शी दर्पण है जिसमें होकर मनुष्य का अन्तरंग झाँकता है। आँखों के छिद्र यों होते तो माथे की हड्डी के निचले हिस्से में हैं, पर उनमें होकर मनुष्य की अन्तरात्मा झाँकती है। आँखों की किस स्थिति का दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ता है और उसका आधार क्या है उसका अभी तक कोई विधिवत् शास्त्र नहीं बन सका है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि आँखों की चमक और चितवन दूसरों पर तरह−तरह के प्रभाव डालती है। वह बाहरी बात हुई भीतर की गहराई में प्रवेश किया जाय तो पता लगेगा कि बात बहुत आगे तक चली जाती है। इन छिद्रों से निकलने वाली संवेदनात्मक किरणों को आँका जा सके तो उनमें व्यक्ति का समूचा व्यक्तित्व मुखरित होते देखा जा सकता है। चर्चा, मात्र आँखों की नहीं हो रही है। पूरे मुखमण्डल का समूचा क्षेत्र आन्तरिक अभिव्यक्तियों का प्रकटीकरण करता है। होठ, कपोल, भवें, नाका, ठोड़ी, गरदन जैसे चेहरे से सम्बन्धित अवयवों की कोमलता और संवेदनशीलता अद्भुत है, वह भीतर की स्थिति का बहुत सही वर्णन करती है। व्यक्तित्व को छिपा सकने की कला में तो हजारों लाखों में से कोई एकाध ही प्रवीण हो पाता है।

सौन्दर्य का नयनाभिराम स्तर ही सज्जा के आधार पर एक सीमा तक विनिर्मित किया जा सकता है। हृदय ग्राही स्तर को विकसित करने में प्रसाधनों का बाहुल्य एवं सज्जा कौशल तनिक भी कारगर नहीं होता, वरन् लादी हुई शृंगारिकता मनुष्य की आत्महीनता का विज्ञापन करती है। ओछे, बचकाने, छिछोरे, मनचले लोग ही प्रायः इस प्रकार के आडम्बर बनाते हैं। यह सहज मान्यता है। इसलिए सौन्दर्य सज्जा पर खर्च किया गया समय और धन उथले लोगों में से कुछ की ही आँखों को अपनी ओर मोड़ने में समर्थ होता है। विचारशील वर्ग की दृष्टि में तो यह छिछोरे लोग एक प्रकार से कुरूप ही नहीं एक प्रकार से अविश्वस्त भी होते हैं। सामान्य वेश-भूषा वालों की तुलना में सह-धज वाले मन-चले लोग अपेक्षाकृत अधिक अप्रमाणिक माने जाते हैं। आकर्षक लगते हुए भी वे किसी की घनिष्ठता और आत्मीयता का लाभ कदाचित ही कभी पा सकते होंगे।

सौन्दर्य अन्तःकरण की देन है। फूल के अन्तरंग की मस्ती जब उफनती है तो वह खिलता-मुसकाता ही नहीं कोमलता, शोभा और सुवास से अपने निकटवर्ती वातावरण को अनुप्राणित कर देता है। पुष्प का यह आन्तरिक और वास्तविक सौन्दर्य तितली, मधुमक्खी, भौंरे जैसे पतंगों को ही नहीं कलाकारों, दार्शनिकों, योगियों की ही नहीं देवताओं को भी अपनी सहज सुषमा का अनुदान बाँटता है। पौधे के उस छोटे से अवयव पुष्प का गुणानुवाद गाते-गाते मूकों और मुखरों में से कोई भी थकता नहीं है।

मनुष्य रूपी वृक्ष का परम शोभायमान अवयव उसका मुखमण्डल है। उसकी उपमा कमल पुष्प से दी जाती रही है सो फवती भी है। यह फवन इसलिए नहीं कि दोनों की आकृति एक जैसी है वरन् इसलिए कि दोनों की प्रकृति में अद्भुत साम्य है। दोनों के अन्तरंग का उभार उनके बाह्य कलेवर पर थिरकता देखा जा सकता है। फूल जब मस्ती पर होता है तो उसकी मादकता भी देखते ही बनती है और जब अन्तःकरण शालीनता की प्रौढ़ता अपनाता है तो उसका सौन्दर्य भी पुलकित किये बिना नहीं रहता। यह आकृतिजन्य नहीं प्रकृति परक होता है।

आत्मा के तीन गुण हैं। सत्य, शिव और सुन्दर। इनमें से प्रथम सुन्दर, द्वितीय शिव और अन्तिम सत्य है। आत्मिक प्रगति ‘सुन्दर’ से आरम्भ होती है। मोटे-तौर से उसे स्वच्छता और सुव्यवस्था के अर्थ में लिया जाता है। बहुत हुआ तो सुरुचि और सुसज्जा की कलात्मकता भी उसी में जुड़ जाती है। यह आवरण क्षेत्र की दृश्य परिकर की बात है। अन्तरंग इससे आगे है। हृदय पर छा जाने वाला सौन्दर्य आगे है सज्ज परक सौन्दर्य तो रंगमंचों के नट नायक कितनी अच्छी तरह बना लेते हैं, पर आन्तरिक सौन्दर्य का सृजन न साधन सामग्री से हो सकता है और न हस्तकौशल से। उसे विनिर्मित करने में आत्मा को ही अपनी सृजनशक्ति का परिचय देना पड़ता है। मधुमक्खी का छत्ता, बया का घोंसला, मकड़ी का जाला अन्य लोग विनिर्मित नहीं कर सकते। असली रूप में ऐसे सृजन वे प्राणी अपनी ही अंतःचेतना के आधार पर कर पाते हैं। हृदय को पुलकित कर देने वाला सौन्दर्य पवित्र अन्तरात्मा के अतिरिक्त और किसी के द्वारा और किसी उपाय से विनिर्मित हो सकना शक्य नहीं है।

जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण और तद्नुरूप उत्कृष्ट आचरण जहाँ कहीं भी समन्वित हो रहा होगा वहाँ सन्तोष के लक्षण दृष्टिगोचर होंगे और जो है तथा जो होने वाला है उसके प्रति उत्साह उभर रहा होगा। ऐसी अन्तः स्थिति का होना मनुष्य जीवन की सरसता का सच्चा आनन्द प्रदान करता है और उपलब्धकर्त्ता उससे धन्य बनता है। यह स्थिति किसे प्राप्त है किसे नहीं, इसकी जानकारी की परख कसौटी एक ही है- चेहरे पर चिरस्थायी रूप से छाई रहने वाली मुसकान। परिस्थितियों के कारण समय-समय पर व्यक्त होती रहने वाली प्रसन्नता-अप्रसन्नता इससे भिन्न है। वह तो अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्रतिक्रिया मात्र होने के कारण नितान्त बाह्य है और सर्वथा अस्थिर। सहज मुसकान अन्तरात्मा की गरिमा को प्रकट करती है और बताती है कि प्राणी इसमें खोखले के भीतर रहने वाली शालीनता की विशिष्टता का वरण कर रहा है। उसे जीवन के स्वरूप और सौन्दर्य का बोध हो रहा है।

मुस्कान कृत्रिम भी हो सकती है। वेश्याएँ इस छद्म में निष्णात होती हैं। ठगों का धन्धा भी इसी के सहारे चलता है। चापलूसों और दरबारियों को इसी हथियार का प्रयोग दूसरों को फुसलाने के लिए करना पड़ता है। किसी को मूर्ख बनाने के लिए उसके व्यंग उपहास के समय भी ऐसी ही विचित्र मुख मुद्रा देखने को मिलती है। अभिनय करते समय अनेक तरह की मुद्राएँ बनाने में एक मुस्कान भी सम्मिलित की जा सकती है यहाँ इन विद्रूपताओं की चर्चा नहीं हो रही है। प्रसंग उस वास्तविकता का है जो अन्तरात्मा की शालीनता का दृष्टिकोण की परिपक्वता का परिचय देती हुई चेहरे पर परिष्कृत व्यक्तित्व का प्रमाण देने के लिए विद्यमान रहती है। यही है असली मुसकान, जो न केवल अपने धारणकर्ता को उत्कृष्टता का आनन्द देती है वरन् जो भी सम्पर्क में आता है उसे अनेक प्रकार के अनुदान देती रहती है।

परिस्थितियों और व्यक्तियों को अनावश्यक महत्व देने से बात बिगड़ती है और बनती तब है जब अपनी उत्कृष्टता और कर्तव्य निष्ठा का स्तर बनाये रहने पर दृष्टि केन्द्रित रखी जाती है। अपना स्तर बनाये रखा जाय। अपनी रीति-नीति को सही रखा जाय। इन दो तथ्यों की यदि प्रधानता दी जाय और चिन्तन तथा कर्तृत्व को सही बनाये रखा जाय तो फिर वे कारण सहज ही तिरोहित होते दिखाई पड़ेंगे जो असंतोष भड़काने और अप्रसन्न रखने के लिए जिम्मेदार थे।

जो अपने पास है उसकी महत्ता समझी जाय और उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की व्यवस्था बनाई जाय। अधिक उपार्जन और अधिक सफलता के लिए प्रयत्न तो किया जाय पर जब तक अभीष्ट की प्राप्ति न हो सके तब तक खिन्न बने रहने की तनिक भी आवश्यकता नहीं हैं। जो उपलब्ध है वह भी इतना कम नहीं कि उसपर सन्तोष और हर्ष का अनुभव न किया जा सके। भविष्य के अशुभ होने की कल्पना करके शंका-शंकित रहने की अपेक्षा यह क्या बुरा है कि उज्ज्वल भविष्य की आशा अपेक्षा की जाय और प्रसन्न रहा जाय। भविष्य का कोई ठिकाना नहीं, वह आशा के विपरीत भला भी हो सकता है और बुरा भी। जब यहाँ सब कुछ अनिश्चित के ही आंचल में छिपा पड़ा हो फिर सम्भावनाएँ उज्ज्वल ही क्यों न मानी जाय। यह अनुमान गलत निकला तो भी अशुभ चिन्तन की तुलना में शुभ सम्भावनाएँ सोचते रहना ही लाभदायक है। उतने समय तक खिन्न रहने की अपेक्षा प्रसन्न रहने का और उस आधार पर शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य संभाले रहने का अवसर मिल गया, यही क्या बुरा रहा? यदि अनिश्चित कल्पना के आधार पर मुस्कान बनाये रखी जा सके तो वह कल्पना भी सृजनात्मक ही रही।

अपने अन्तरंग को ऊँचा उठायें। परिष्कृत चिन्तन करें। उज्ज्वल भविष्य की आशा रखे। कर्तव्य को सही रीति से करने में आत्म-सम्मान अनुभव करें। दूसरों से सीमित अपेक्षा करें। परिस्थितियों से ताल-मेल बिठायें, जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलें और उसे खिलाड़ी की तरह बिना हार-जीत की प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये खेलें। अन्य कुछ भी हाथ से चला जाय पर मुस्कान को अक्षुण्ण रखें। क्योंकि यही वह दिव्य सम्पदा है जो आड़े समय में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होती है और प्रगति पथ पर बढ़ चलने में सबसे अधिक सुविधा उत्पन्न करती है।


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