मेरा दृढ़ विश्वास है कि मानव समाज को धर्म की आवश्यकता सबसे अधिक है। धर्म सही अर्थों में एक ही है− मानव धर्म। धर्म के नाम पर जो अलग−अलग रूप हम देखते हैं वे वास्तव में अलग−अलग धर्म नहीं, एक ही धर्म के अलग−अलग सम्प्रदाय हैं। आज धर्म के साथ ही साथ इन अलग−अलग संप्रदायों में आपसी सहकार की भी आवश्यकता है।
मैं जानता हूँ कि धर्म और विज्ञान में, धर्म और उच्चतम सामाजिक नैतिकता में धर्म और इसके पृथक−पृथक संप्रदायों के पारस्परिक सहयोगात्मक−समन्वयात्मक भाव में कोई विरोध नहीं है। धर्म का उद्देश्य है इस प्रज्ञा जगत में जहाँ विभेद है, द्वित्व है वहाँ हम में सामंजस्य, समन्वय, एकत्व लाते हुए जीवन में विकसित होते रहने में हमारी सहायता करना।
धर्म का आन्तरिक रूपान्तरण है− एक आध्यात्मिक परिवर्तन है। धर्म हमारे अपने विभेदवादी स्वरों में एकरूपता लाने की क्रिया है। धर्म का यह स्वरूप इतिहास के आरम्भ में ही मिलता आया है। यही इसका मूल रूप है।
धर्म एक आध्यात्मिक परिवर्तन है− एक अन्तर्मुखी रूपान्तरण है। धर्म नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा कर उनकी महत्ता प्रतिपादित करता है। यह अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, आत्मोद्धार की स्थिति में पहुँचाता है।
धर्म का एक जागरण है− एक प्रकार का पुनर्जन्म है।
-डॉ. राधाकृष्णन्
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