पैरों को तोड़ें नहीं, प्रगति की सहज यात्रा पर बढ़ने दें।

September 1978

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सुखी और समुन्नत जीवन जीने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। उसके लिए समुचित प्रबन्ध सृष्टा ने स्वयं ही कर रखा है। जो करना है वह इतना ही है कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की हरकतें बन्द कर दें। अपने को नष्ट करने वाली उद्दंडता न बरतें। इतना भर किया जा सके तो समझना चाहिए− आये दिन संत्रस्त करने वाली कठिनाइयों में से अधिकांश में पीछा छुड़ाने का सुअवसर हाथ लग गया।

इसमें क्या कठिनाई है कि भूख में कम खाया जाय और पेट खाली रखा जाय। इसमें समय, श्रम और धन सभी की बचत होती है। अधिक खाने से जहाँ पेट की स्वाभाविक शक्ति नष्ट होती है और पैसा भी तो अतिरिक्त रूप से खर्च होता है। स्वास्थ्यकर सात्विक आहार सस्ता भी होता है और पकाने बनाने में सौम्य सरल। वह सुपाच्य भी होता है और शक्तिवर्धक भी। यह सब होते हुए भी अनेक कृत्रिमताओं की भरमार करके गरिष्ठ, महंगा बनाने में कठिन और हानिकारक पदार्थों को ठूँस−ठूँसकर खाते रहने में क्या समझदारी रही? अकल का अनावश्यक प्रयोग यदि आहार के सन्दर्भ में न किया जाय तो अन्य सुविधाओं के साथ−साथ आरोग्य और दीर्घजीवन का लाभ अनायास ही पाया जा सकता है।

ऋतु प्रभाव से शरीर की रक्षा करने और प्रचलित शिष्टाचार के अनुरूप तन ढ़कने के लिए थोड़े से हलके कपड़ों की जरूरत है। वे आसानी से धोये भी जा सकते हैं। सस्ते मिलते हैं। देखने में भी सादगी के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहने वाली शालीनता का भी परिचय देते हैं। शरीर की भाप बाहर ले जाने और बाहर का प्राण वायु रोमकूपों तक पहुँचाने में अवरोध भी खड़ा नहीं करते। ऐसी दशा में परिधान यदि उतने ही रखे जायें तो क्या हर्ज है? बहुमूल्य कपड़ों की चित्र−विचित्र सिलाई कराने के उपरान्त अभिनेताओं जैसा लिबास पहने फिरने में कितना तो पैसा खराब होता है और कितना मिथ्या अहंकार शिर पर चढ़ा रहता है। प्रदर्शन ही करना रहा तो ढेरों डिजाइनें चाहिए और उनके रखने के लिए जगह। अनावश्यक संग्रह पुराना होने पर सड़ता है और कीड़ों के पेट में जाता है। गुड्डे−गुड़ियों की−सी सज−धज बच्चों को भले ही आकर्षित करे किन्तु विज्ञ व्यक्तियों की आँखों में यह ओछेपन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। एक को देखकर अन्य ओछी लतों की तरह कपड़े और जेवरों का फैशन भी औरों को ललचाता है। इस नकल में गरीबों का दिवाला पिटता है और आवश्यक कामों में कटौती करनी पड़ती है। ईर्ष्या भड़कती और फिजूलखर्ची बढ़ती है। सीधी रीति से इतना खर्च जुट नहीं पाता तो चोरी, बेईमानी से लेकर ऋण लेने और अपराध करने की नौबत आती है।

अंगों को जकड़ने वाले कपड़े स्पष्टतः स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। त्वचा पर बुरा असर डालते और रक्ताभिषरण के स्वाभाविक क्रम में अड़चन पैदा करते हैं। इन सब बातों पर ध्यान रखा जा सके कि भोजन की तरह वस्त्रों में भी सादगी का समावेश किया जा सके तो उसमें हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। कपड़े का अपव्यय बचने से व्यक्ति को ही बचत का लाभ नहीं मिलेगा वरन् अपव्यय रुकने से नंगों को तन ढकने की सुविधा भी मिल जायगी। चटोरेपन से अन्न की बर्बादी होती है और फैशन से कपड़े की। राष्ट्रीय दृष्टि से यह दोनों ही बचते सच्चे अर्थों में अन्य बचत योजना का बहुत बड़ा प्रयोजन पूरा करती हैं। इन अपव्ययों में कटौती करने से राष्ट्रीय समृद्धि के अभिवर्धन में भारी सहायता मिलती है। सात्विकता अपनाने से उसके साथ जुड़ी हुई शालीनता का स्तर तो बढ़ेगा ही। उसका प्रकाश व्यक्तित्वों के परिष्कृत बनाने वाली सत्परम्परा के रूप में सामने आता है।

विलासिता के अनेक उपकरण थोड़ी सुविधा तो देते हैं, पर उनका मुख्य प्रयोजन दूसरों पर अपने बड़प्पन का आतंक उत्पन्न करना ही मनोवैज्ञानिक तथ्य होता है।

सद्गुणों से सत्कर्मों से, दूसरों के अन्तःकरणों में श्रद्धा उत्पन्न करना एक बात है और ठाट-बाट के चकाचौंध से आतंकित करना दूसरी। अमीरी का उद्धत प्रदर्शन ही खर्चीला ठाट−बाट है। यह बहुत ही खर्चीला और आडम्बर की दृष्टि से पूरा जाल−जंजाल है। इसे बनाने वाले लोग सोचते हैं वह नितान्त भ्रमयुक्त है। अमीरी का आतंक बहुत ही निकृष्ट स्तर के लोग स्वीकार करते हैं। विचारशीलता की मात्रा बढ़ाते हैं उसके प्रति उपहास, तिरष्कार की दृष्टि बढ़ते−बढ़ते घृणा और बहिष्कार तक जा पहुँचती है। इस समानतावादी युग में अमीरी निष्ठुरता का प्रतीक मानी जाती है और उस उद्धत प्रदर्शन को खुलेआम दुष्टता की संज्ञा दी जाती है। महंगे आडम्बर के बदले महँगा ईर्ष्या, द्वेष खरीदने वाले किस प्रकार अपनी बुद्धिमानी का परिचय देते हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता। छोटे परिवारों के लिए बड़े बंगले, अनावश्यक वाहन, सज्जा उपकरण और विलासी साधनों में खर्च होने वाली कुशलता किस प्रकार किसके लिए, किसी सीमा तक उपयोगी सिद्ध होती होगी। इसका मूल्यांकन किया जा सके तो प्रतीत होगा कि बुद्धिमानों की मूर्खता में यह विलासी प्रदर्शन एक दुःखद प्रकरण है।

दूसरों से अधिक बड़ा बनने के लिए लोग अपनी समर्थता सिद्ध करने के लिए उद्धत प्रदर्शनों में अग्रणी रहते हैं। येन-केन-प्रकारेण सस्ती वाहवाही लूटने में निरत रहते हैं। संस्थाओं में पद पाने, अभिनन्दन बटोरने, मंच पर बैठने, माइक पर चिल्लाने, पर्चे छपाने, आत्मश्लाघा करने, दूसरों में भद्रती कराने के लिए न जाने कितनी तरकीबें लोग भिड़ाते रहते हैं। इसके लिए कितने ही अनैतिक सन्धि विग्रह करते हैं। इन बाल प्रयासों में किसी को तत्काल कुछ सफलता के दृश्य दीखने को भी मिल सकते हैं, पर अन्ततः उपहासास्पद ही बनना पड़ता है। यश लिप्सा जब असंयत होकर सर्वविदित बनती है तो प्रयासों के प्रति तिरष्कार के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रह जाता। किया गया श्रम और खर्चा हुआ धन न केवल निरर्थक ही चला जाता है वरन् व्यंग उपहास का कूड़ा करकट सिर पर उलटा लद जाता है।

सज्जनता के साथ जुड़ी हुई नम्रता अपनाई जा सके, दूसरों को बड़ा और अपने को छोटा प्रस्तुत किया जा सके तो लोग कोने में से घसीट पर बड़प्पन के सिंहासन पर प्रतिष्ठित करेंगे। नीतिकारों की उक्ति है, जो ख्याति के पीछे भागता है वह उसे खोता है, किन्तु जो नम्रता अपनाता है उसके पीछे वह पीछे−पीछे दौड़ती चली आती है। नम्रता−सज्जनता और प्रामाणिकता का प्रतिनिधित्व करती है। उससे व्यक्तित्व की गरिमा बढ़ती है और ख्याति से भी बढ़कर श्रद्धा उपलब्ध करते हैं। वह श्रद्धा सम्पदा ही है जिसके कारण असंख्यों का स्नेह, सहयोग और विश्वास अनवरत रूप से बरसता है। यह उपलब्धि चेतना क्षेत्र की सबसे बड़ी सफलता है। इसे पाकर व्यक्ति प्रमुदित और पुलकित रहता है, साथ ही हर क्षेत्र में सहकार प्राप्त करता और प्रगति पथ पर द्रुतगति से आगे बढ़ता चला जाता है। संसार के इतिहास में विशिष्ट कार्य सम्पन्न करने वाले महामानवों की सफलता का रहस्य एक ही रहा है कि उनने अपनी नम्रता युक्त सज्जनता के सहारे लोक श्रद्धा सम्पादित की और उसी के बलबूते ऐतिहासिक भूमिकाएं निभा सकें।

मस्तिष्क की चिन्तन शक्ति को अनजाने और अनावश्यक विषयों में दौड़ते रहना ही बहुमूल्य विचार शक्ति को कूड़े करकट में बिखेरने के बराबर है। उत्पादन में श्रम की उपयोगिता को सभी जानते हैं, किन्तु सच पूछा जाय तो उसमें अधिक योगदान सही चिन्तन और सही नियोजन का होता है। यह कार्य ठीक तरह तभी हो सकता है जब सोचने का काम करने वाला विचार−तन्त्र अभीष्ट प्रयोजनों में तन्मयता पूर्वक लगा रहे। थोड़ा वही अभीष्ट स्थान तक पहुँचता है जो सीधे रास्ते ठीक चलता रहे। यदि वह बेसिलसिले चाहे जिस दिशा में असंगत भगदड़ मचाता रहे तो थकान के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा। विचार शक्ति भी अश्वशक्ति की तरह है जिसे अभीष्ट दिशा में लगाये रखा जाय, असंगत भगदड़ से बचाये रखा जाय तो ही आवश्यक क्रिया−कलापों में उत्साहवर्धक सफलता मिल सकती है। यदि मस्तिष्क में असंगत कल्पनाएं चलती रहती होंगी, कुविचार और मनोविकार छाये रहते होंगे तो चिन्तन की बहुमूल्य सम्पदा की बर्बादी तो होती ही रहेगी। ‘खाली दिमाग शैतान की दुकान’ वाली लोकोक्ति के अनुसार अवांछनीय विचारों में रस मिलने लगे तो सर्वनाश के आधार बन चलेंगे। सभी जानते हैं कि मस्तिष्क पर कामुकता के अश्लील विचार छाये रहे तो प्रत्यक्ष रति कर्म न हो सकने पर भी शारीरिक, मानसिक और नैतिक क्षति कितने बड़े परिमाण में होती है अन्य, अवांछनीय विचार भी न केवल चिन्तन क्षमता को बर्बाद करते हैं वरन् पतन और संकट के सरंजाम भी जुटा कर खड़े कर देते हैं।

चिन्तन को सुनियोजित दिशा में लगाये रहना भी नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं को पालन करने की तरह है। विचारों को कुछ भी सोचने की छूट नहीं मिलनी चाहिए। विशेषतया अनावश्यक, अव्यावहारिक अनुपयुक्त प्रसंगों पर तो मनःशक्ति का छोटा−सा अंश भी नहीं लगना चाहिए। बर्बादी में बिखराव भी एक कारण है। विचार शक्ति को दिशा विशेष में न लगाया जा सके तो फिर उसकी स्वेच्छाचारिता भटकती भर रहती है, उपार्जन उससे तनिक भी नहीं बन पड़ता। बुद्धिमान होते हुए भी कितने ही लोग इसलिए मूर्खों से भी अधिक घाटे में रहते हैं कि वे गम्भीरतापूर्वक अपने सामने के आवश्यक काम में तन्मय होने की अपेक्षा जिस−तिस अनावश्यक प्रसंग में अकारण उलझने लगते हैं और उसमें उतनी विचार सम्पदा नष्ट कर देते हैं जितने में सामने पड़े कार्य बहुत ही खूबसूरती के साथ सम्पन्न हो सकते हैं। भूतकाल की घटनाओं से शिक्षा ली जा सकती है। भविष्य की कल्पनाओं से आज का आधार खड़ा किया जा सकता है, पर असल तो वर्तमान है। अपने करने के लिए वही सब कुछ है। हमारी मनःशक्ति वर्तमान का मूल्यांकन करते हुए आज जो सम्भव है उसी का श्रेष्ठतम स्वरूप बनाने में नियोजित रहनी चाहिए।

यदा−कदा तोड़−फोड़ की भी जरूरत पड़ती है, पर काम तो सृजन से ही चलता है। हमारी प्रवृत्ति ध्वंसात्मक नहीं सृजनात्मक होनी चाहिए। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, आक्रोश, धर्म−विरोध, निन्दा जैसी मनःक्षेत्र की आक्रामक प्रवृत्तियाँ कभी−कभी ही आवश्यक होती हैं। डराना, धमकाना भी यदा−कदा उपयोगी हो सकता है, पर सामान्यतया, स्नेह और सहयोग के सहारे रचनात्मक कार्य में ही जुटा रहना होता है कितने ही व्यक्ति निषेधात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। दोष−दर्शन और निन्दा वर्णन ही उनके मस्तिष्क पर चढ़ा रहता है। नीचा दिखाने और बदला लेने की योजनाएं बनाने में उनका कौशल नष्ट हो जाता है। फलतः उनके पास उपयोगी सृजन के लिए बौद्धिक क्षमता बचती ही नहीं। दिलचस्पी ही चली गई तो शरीर से उपयोगी श्रम भी कैसे बन पड़ेगा। सृजन ही मानवी प्रतिभा का सदुपयोग है। उसी से व्यक्ति यशस्वी बनता है और अपनी कृतियों से अनेक को सुखी समुन्नत बनाता है। यह सम्भव तभी है जब मूल प्रवृत्ति में सृजनात्मक रुझान का बाहुल्य हो। ध्वंस तो फोड़े के ऑपरेशन की तरह कदाचित ही कभी करना कराना पड़ता है। नित्य तो आहार, विश्राम, उत्पादन एवं सहकार का ही क्रम चलता है। हमारा चिन्तन और क्रिया−कलाप स्वभावतया इसी दिशा में गतिशील रहना चाहिए।

यह सब सरल और स्वाभाविक है। जीवन का सहज प्रवाह सुख−शान्ति की ओर बहता है उसे यथावत चलने दिया जाय और बुद्धिमत्ता के नाम पर बरती जाने वाली मूर्खता प्रगति के बहाने अपनाई गई। अवगति से यदि बचा जा सके तो पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने वाली वह सुखद प्रक्रिया चलती ही रहेगी जिसका आनन्द लेने के लिए यह सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर उपलब्ध हुआ है।


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