विचारों की शक्ति-सर्वोपरि

September 1978

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दो समान परिस्थितियों और समान साधनों के व्यक्तियों की मनःस्थिति का विश्लेषण किया जाय तो उनमें भारी अन्तर मिलेगा। कई बार तो उसमें जमीन-आसमान जितना फर्क मिलता है। जिन परिस्थितियों में एक व्यक्ति दुःखी, उदास, खिन्न और असन्तुष्ट बना खीजता रहता है उन्हीं में दूसरा सन्तोष की साँस लेता है और कई बार तो अपने को सुसम्पन्न सौभाग्यशाली भी अनुभव करता है। इस अन्तर का कारण क्या हो सकता है, इस पर विचार करने से एक ही निष्कर्ष उभर कर आता है। ‘विचारों के स्तर एवं प्रवाह का अन्तर।’ वस्तुतः मानव जीवन के दुःख और दुःख के उत्थान-पतन का केन्द्र बिन्दु यही है।

नैपोलियन के पास साधनों की कमी नहीं थी। वे यश, प्रतिभा और पराक्रम ही नहीं सफलताओं के भी धनी थे। इतना सब होते हुए भी जिन्दगी भर में उन्हें न तो कभी चैन मिला और न सन्तोष। दूसरे लोग उनके बारे में क्या सोचते होंगे यह बात दूसरी है, पर अपनी आन्तरिक स्थिति का परिचय देते हुए उनने सेन्टहेलना के कारागार में अपने साथियों से कहा था-बीती जिन्दगी के इतिहास पर नजर डालने से मुझे कुल मिलाकर छह दिनों की ऐसी याद है जिसमें प्रसन्नता का अनुभव कर सका, शेष दिन तो आवेगों और आक्रोश में ही बीत गये।

इसके विपरीत एक साधनहीन ही नहीं कई दृष्टियों से अपंग असमर्थ महिला का उदाहरण है जिसे देखने की सुनने की और बोलने की शक्ति से वंचित रहना पड़ा। यह अन्धी, गूँगी और बहरी महिला हेलेन केलर इन परिस्थितियों में रहते हुए भी प्रबल पुरुषार्थ के आधार पर ज्ञान साधना में संलग्न रही और कई विश्व-विद्यालयों से स्नातकोत्तर परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने में सफल रहीं। वह कहती थीं-‘‘मुझे अपने चारों ओर सौन्दर्य ही सौन्दर्य और आनन्द ही आनन्द बिखरा दीखता है।’’

नैपोलियन और केलर की परिस्थिति और मनःस्थिति की तुलना करने पर पता चलता है कि मनुष्य की प्रसन्नता-अप्रसन्नता का आधार साधनों पर नहीं वरन् उसकी विचार पद्धति पर टिका हुआ है। इसी के सहारे मनुष्य प्रसन्न-अप्रसन्न रहता है और उसी प्रवाह में बहता हुआ उत्थान एवं पतन का भागी बनता है।

विश्व विख्यात जीवन-कला के विज्ञानी डेल कारनेगी से एक प्रश्न पूछा गया कि अपने अब तक जो जाना है उसके सर्वोत्तम अंश पर प्रकाश डालें। तो उन्होंने नपे-तुले शब्दों में छोटा-सा उत्तर दिया-‘‘मैंने सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह देखी है कि विचारों की शक्ति से बढ़कर इस संसार में और कोई सम्पदा या सामर्थ्य है नहीं। इसी के सहारे मनुष्य जो चाहता है वह बनता है और जैसी स्थिति में रहना चाहता है वह बनता है और जैसी स्थिति में रहना चाहता है वैसी में रहता है।

कारनेगी ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है-‘‘हमें जानना चाहिए कि जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली उसका स्वरूप गढ़ने वाली शक्ति एक ही है- विचारों की प्रवाह धारा। उसी के साथ बहते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। यदि सोचने का सही तरीका जान लिया जाय तो समझना चाहिए-सन्तोष, सहयोग, सफलता और प्रसन्नता प्राप्त करने की कुँजी हाथ में आ गई।”

अन्धे कवि मिल्टन अपनी निजी अनुभूतियों को व्यक्त करते हुए कहते थे-‘‘यह जीवन मुझे दैवी वरदान की तरह मिला है इसके एक-एक क्षण का पूरी सजगता के साथ उपयोग करूंगा।” सामान्यतया अन्धे व्यक्ति अपने आपको अपंग दुर्भाग्यग्रस्त ही मानते रहते हैं। इन्हीं परिस्थितियों में रह कर मिल्टन ने अपने 65 इंच लम्बे शरीर में आँखों की कमी दो इंच की छोटी-सी ही हानि समझी और जो कुछ शेष था उसका सही उपयोग करके अपना और समस्त विश्व का हित साधन किया। आँखों की कमी से उनके प्रगतिक्रम में तनिक भी अवरोध उत्पन्न न हुआ। वे उस कमी की पूर्ति अन्य साधनों के सहारे करते रहे। इसके विपरीत एक दूसरे प्रख्यात लेखक का उदाहरण है। अँग्रेजी के प्रख्यात साहित्यकार स्विफ्ट अपने जन्मदिन पर शोक सूचक काली पोशाक पहना करते थे। वे कहते थे-‘‘उन्हें दुःख सहने के लिए व्यर्थ ही यह जन्म मिला- अच्छा होता वे जन्मे ही न होते।” मिल्टन की तुलना में उनकी शारीरिक और आर्थिक स्थिति कहीं अच्छी थी फिर भी वे सदा खिन्न ही देखे गये। जन्मदिन जैसे प्रसन्नतादायक अवसर पर तो उनकी खिन्नता और भी अधिक बढ़ जाती थी। इस अन्तर में परिस्थितियों का नहीं मनःस्थितियों की दिशा धारा ही अपनी भूमिका निभाती दीखती है।

इस सन्दर्भ में शेक्सपियर की मान्यता कहीं अधिक स्पष्ट है- वे लिखते हैं, ‘‘हमारे विचार ही हैं जो प्रतिकूलता और अनुकूलता गढ़ते हैं। वे ही हैं जो उदासी या प्रसन्नता देते हैं। सहयोग और तिरस्कार पाने में जितना दूसरों का अनुग्रह और विरोध कारण होता है उससे भी अधिक अपने स्वभाव का आकर्षण, विकर्षण काम कर रहा होता है।’’

विद्वान मान्टेन कहा करते थे- ‘‘मनुष्य जिस भी स्थिति में रह रहा होता है उसमें ईश्वर का हस्तक्षेप कम और अपना निज का कर्तृत्व अधिक काम कर रहा होता है। वे नरक और स्वर्ग को स्वभाव या साधन आदि से संबंधित नहीं मानते, वरन् उस भले-बुरे वातावरण को बताते थे जो अपनी ही मनःस्थिति के अनुरूप अपने ही द्वारा सृजा गया होता है।’’ रोम के दर्शन शास्त्री मार्क्स अण्डीलियस की उक्ति अपने समय की तरह आज भी सत्य समझी जाती है जिसमें कहा गया है कि हर व्यक्ति की एक अलग दुनिया है और वह उसके स्वयं के द्वारा बनाई गई है। मान्यताओं के ढाँचे में गतिविधियाँ ढलती हैं और उन्हीं की प्रतिक्रिया स्व निर्मित दुनिया के रूप में सामने आ खड़ी होती है।

व्यक्ति में शक्ति का अजस्र भंडार भरा पड़ा है। उसमें मौलिक सामर्थ्य प्रचुर परिमाण में विद्यमान है, पर उपयोग उतने का ही हो सकता है जितना कि विचारणा एवं मान्यता के सहारे, उभारा जाता है। अपने को दुर्बल और दुर्भाग्यग्रस्त मानते रहने वाले व्यक्ति सदा इसी स्थिति में पड़े रहेंगे। अन्तर में परिवर्तन हुए बिना सौभाग्य का आलोक उनके जीवन में हो ही नहीं सकेगा। दूसरों की सहायता भी अधिक कारगर न होगी। जिस दुर्दशा को स्वेच्छापूर्वक वरण किया गया है वह सहज ही जाने वाली नहीं है। प्रगति का अरुणोदय सबसे पहले अंतःक्षेत्र में उदय होता है, इसके उपरान्त ही उसकी किरणें बाह्य जीवन में अपना आलोक उत्पन्न करती है।

शास्त्रकारों ने मनोनिग्रह पर बहुत जोर दिया है और उसका चमत्कारी माहात्म्य बताया है। यह एकाग्रता का नहीं चिंतन प्रवाह को शालीनता में जोड़ देने का संकेत है। मन को इधर-उधर न भागने देने की कला से विचारों का बिखराव रुकता है और अभीष्ट प्रयोजनों में चिन्तन को नियोजित किये रहने से कार्य की सफलता का पथ-प्रशस्त होता है। किन्तु मनोनिग्रह की प्रक्रिया का यह आरम्भ है अन्त नहीं। निकृष्टता के साथ जुड़े हुए निषेधात्मक चिन्तन के प्रवाह को उलट कर उसे उत्कृष्टता की दिशा में लगाना और उससे सृजनात्मक गतिविधियों की नई रूपरेखा बनाना यही है मनोनिग्रह का वास्तविक उद्देश्य। चिन्तन जब उच्चस्तरीय उद्देश्यों को अपनाने के लिए कटिबद्ध होता है और परिष्कृत जीवन क्रम के साथ-साथ आन्तरिक विभूतियों और बहिरंग सफलताओं का द्वार खुलता है। विचारशक्ति मानव जीवन की सर्वोपरि सम्पदा है उसका सही उपयोग कर सकने वाले ही सुखी रहते और समुन्नत बनते देखे गये हैं।


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