बौद्ध भिक्षु होने पर अपना नाम बदलना अनिवार्य था। उसका उद्देश्य यह था कि वर्ण, गोत्र, जाति का आभास न हो व सब शिष्यगण अहंकार को विस्मृत कर दें!
एक बार शिष्यों में चर्चा चली कि दीक्षित होने पर भी शरीर तो छूट नहीं जाते फिर गोत्र, जाति वर्ण कैसे छूट जायेंगे। बात भगवान के कानों तक पहुँची उन्होंने सबको एकत्र कर कहा, “वत्स, तुमने सांपों की केंचुली देखी है?” हाँ भगवन् देखी है “तो कोई बतावे यह क्या है?” “भगवन् केंचुली जब आती है तो साँप अन्धा हो जाता है।”
“एवं जब केंचुली छूट जाय तब”
“तब सांप को पुनः दीखने लगता है।”
तथागत ने समझाया, “हमारे गोत्र, वर्ण व जातियाँ भी साँप की केंचुली के समान ही हैं जब तक शरीर पर यह रहती हैं, मनुष्य अहंकार में अन्धा बना रहता है, परन्तु जब यह केंचुली छूट जाती है तो उसे सर्वव्यापी विराट सत्ता की अनुभूति होने लगती है। इसीलिए नाम पद, यश और कुलगोत्र की अहंता से विमुक्त होना आवश्यक है।
शिष्य वस्तुस्थिति समझकर सन्तुष्ट हो गये।
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